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१०० भाषारहस्यप्रकरणे - स्त.१. गा.२२
० अन्योन्याश्रयत्रैविध्यद्योतनम् ० विहितत्वेनाऽऽराधकत्वस्याऽसम्भवात् । विहितत्वं हि विधिबोधितकर्तव्यताकत्वं । तच्च सत्यभाषाघटितमित्यन्योन्याश्रयात् । पवित्रयन्ती त्रौकते। तत्र प्रथमे तावदसम्भवः । ननु कथमसम्भव इत्याह-'विहितत्वं हि विधिबोधितकर्तव्यताकत्वमिति । एतेनष्टसाधनत्वेन वेदबोधितत्वं विहितत्वमिति निरस्तम्, वेदानामप्रमाणत्वात् । 'तच्चेति विधिबोधितकर्तव्यताकत्वरूपं विहितत्वम। सत्यभाषाघटितमिति। विधिवाक्यस्य सत्यभाषारूपत्वेन विधिबोधितकर्तव्यताकत्वरूपस्य विहितत्वस्य सत्यभाषाघटितत्वम् | घटितत्वं च तद्विषयताव्याप्यविषयतावत्त्वम्। सत्यभाषायाश्च विहितत्वघटकत्वम्, तद्विषयताव्यापकविषयतावत्त्वलक्षणत्वाद घटकत्वस्य । अन्योन्याश्रयादिति । अन्योन्याश्रयो हि ज्ञप्तौ, उत्पत्तौ स्थितौ च भवति। प्रकृते चाऽन्योन्याश्रयो ज्ञप्तौ। तस्य चेदं लक्षणं स्वग्रह-सापेक्षग्रहसापेक्षग्रहकः। प्रकृते स्वग्रहः सत्यभाषाज्ञानं सत्यत्वज्ञानमिति यावत। तस्य सापेक्षोऽपेक्षाकारी विहिताराधकत्वग्रहः, विहितत्वेन आराधकत्वज्ञानमिति यावत् । तस्य सापेक्षः अपेक्षाकारी ग्रहः सत्यभाषाज्ञानं यस्य स इति । अयं भावः, सत्यभाषास्वरूपविधिवाक्यनिष्ठविषयताया विधिबोधितकर्तव्यताकत्वलक्षणविहितत्वनिष्ठविषयताव्यापकत्वात यावत् सत्यभाषात्वं लक्ष्यं न ज्ञायते तावद विहिताराधकत्वं लक्षणं न ज्ञायते, यतो घटकस्याज्ञाने सति घटितं न ज्ञायते । यावच्च विहिताराधकत्वं न ज्ञायते तावत्सत्यभाषात्वं न ज्ञायते लक्षणज्ञानाधीनत्वाल्लक्ष्यज्ञानस्येति । एवं विहिताराधकत्वं सत्यभाषाज्ञानाधीनं, सत्यभाषाज्ञानञ्च विहितत्वरूप से आराधकत्व को सत्यभाषा का लक्षण बनाया जाये तो असंभव दोष आता है। असंभव दोष अन्योन्याश्रयदोष के कारण यहाँ आता है। वह अन्योन्याश्रय दोष कैसे आयेगा? यह देखिये, - विहितत्व का अर्थ है विधिबोधितकर्तव्यताकत्व । अर्थात् विधिवचन से जिसमें कर्तव्यता का बोध होता है वह विहित होता है। जैसे कि - 'मुक्तिकामो जिनं पूजयेत्' इस विधिवाक्य से मोक्षकामी जीव को जिनपूजा में कर्तव्यता का बोध होता है। अतः जिनपूजा विधिवाक्य से बोधित कर्तव्यता वाली होने से विहित है। जिनपूजा में विधिवाक्यबोधितकर्तव्यता ही विहितत्व है। जो विहित होता है वह इष्ट का साधन होता है और अधिकारी इसका पालन न करे तो इसे अवश्य पापकर्म का बंध होता है। अतः यह विधिवाक्य वही हो सकता है जो सत्यवचन हो। यहाँ सत्य भाषा के लक्षण की विचारणा चल रही है। अतः विहितत्वरूप से आराधकत्व को सत्यभाषा का लक्षण मानने पर अन्योन्याश्रय दोष आयेगा। देखिये; विहितत्व विधिबोधित कर्तव्यतारूप है और विधि अर्थात् विधिवाक्य सत्यवचन स्वरूप है। अतः विहितत्व का अर्थ होगा सत्यवचन-बोधितकर्तव्यता। अतः विहितत्व के ज्ञान के लिए सत्यवचन का ज्ञान आवश्यक है, क्योंकि विहितत्व सत्यवचन से घटित है और सत्यवचन विहितत्व का अंगघटक है। यह एक नियम है कि घटक के ज्ञान के बिना इससे घटित का नहीं ज्ञान होता है। अतः विहितत्वेन विहितत्वरूप से आराधकत्व का, जो कि सत्यभाषा के लक्षणरूप से यहाँ अभिप्रेत है, ज्ञान करने के लिए सत्यभाषा का ज्ञान आवश्यक है, जो लक्ष्य होने से अभी तक सिद्ध ज्ञात नहीं है। तथा सत्यभाषा के ज्ञान के लिए सत्यभाषा के लक्षण भूत विहितत्वेन आराधकत्व का ज्ञान आवश्यक है। फलतः दोनों में से एक का भी ज्ञान न होगा। विहितत्व का ज्ञान सत्य भाषा के ज्ञान पर अवलंबित है और सत्यभाषा का ज्ञान विहितत्व के ज्ञान पर अवलंबित है। दोनों अपने ज्ञान के लिए एक दूसरे की अपेक्षा रखते हैं। अतः यहाँ विहितत्वरूप से आराधकत्व को सत्य भाषा का लक्षण मानने पर अन्योन्याश्रय दोष आने के कारण सत्यभाषा का ज्ञान ही असंभवित हो जायेगा।
शंका :- विहितत्वेन आराधकत्व को सत्यभाषा का लक्षण मानने में अन्योन्याश्रय दोष आता है तब सम्यगुपयोगपूर्वकत्वेन आराधकत्व को सत्यभाषा का लक्षण मानना चाहिए। अर्थात् जो भाषा सम्यग् उपयोगपूर्वक बोली जाती है वह भाषा आराधक है, इसी सबब सत्य है। अर्थात् सम्यक उपयोग से जन्यत्वरूप से आराधकत्व को सत्यभाषा का लक्षण मानना उचित है। इसमें कोई दोष नहीं आता है।
* सम्यगुपयोगपूर्वकत्व आराधकत्व नहीं है * समाधान :- आपकी यह बात ठीक नहीं हैं, क्योंकि ऐसा मानने पर अतिव्याप्ति दोष आयेगा। देखिये, साधु भगवंत शासन रक्षा आदि निमित्त से अपवाद से सम्यग् उपयोगपूर्वक मृषा या मिश्र भाषा को बोलते हैं तब सम्यग् उपयोगपूर्वकत्व तो आपवादिक मृषा और मिश्र भाषा में है ही, फिर भी इस भाषा में शुद्ध व्यवहारनय की दृष्टि से सत्यत्व नहीं है। निश्चयनय की दृष्टि से भले ही