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९८ भाषारहस्यप्रकरणे - स्त.१. गा. २२
० नव्यपरिभाषयाऽन्वयबोधोपदर्शनम् ० अनन्तधर्मात्मके वस्तुन्येकधर्माभिधानं च न सत्यं अवधारणबाधादित्यायूह्यम् ।
इदन्तु ध्येयं तद्धर्मवतीत्यत्र विशेष्यितासम्बन्धेनावच्छिन्नत्वमेव सप्तम्यर्थः, अन्वयश्चास्य तत्प्रकारकत्वे। तथा च विशेष्यितासम्बन्धेन तदवच्छिन्ना या तत्प्रकारिता तच्छालिशाब्दबोधजनकः शब्दः सत्यमिति फलितम् । इदमत्रैतत्प्रकारकमितिप्रतीत्या विशेष्यस्याऽपि विशेष्यितासम्बन्धेन तत्प्रकारितायामवच्छेदकत्वात्। पूर्वोक्तविपरीतसमूहालम्बनशाब्दभ्रमजनकशब्दे च नातिव्याप्तिः; तज्जन्यशाब्दभ्रमे च रजतावच्छिन्नं न रजतत्वप्रकारकत्वमपि तु रङ्गावच्छिन्नमिति। सर्वत्र तदद्वत्ताप्रकारिता च प्रमात्वनियामकसम्बन्धेन ग्राह्या। तेन संयोगादिसम्बन्धेन वहन्यादिमति पर्वतादौ समवायादिना तच्छाब्दबोधजनकशब्दे नातिव्याप्तिरिति। जनकत्वं च फलजननस्वरूपयोग्यत्वं न तु फलोपहितत्वं । तेन श्रोतुरनवधान-शक्तिग्रहाभावादिना तादृशशाब्दबोधाजननेऽपि नाव्याप्तिरिति । वस्तुतस्तु विषयताविशेष एव ज्ञाननिष्ठं प्रामाण्यमिति भावनीयम्।
नन्वेवं सति "आत्मा नित्य एव" इत्यादिपरतीर्थिकवचनानामपि सत्यत्वप्रसङ्गात्, अनन्तधर्मात्मके आत्मनि नित्यत्वस्य सत्त्वेन नित्यत्वाश्रयात्मविशेष्यक-नित्यत्वप्रकारकताशालिशाब्दबोधजनकत्वादित्याशङ्कां निराकरोति'अवधारणबाधादिति। सर्वथा अनित्यत्वव्यवच्छेदाभिप्रायस्य बाधात् पर्यायार्थिकनयेन आत्मन्यनित्यत्वादेरपि सत्त्वात्, अनन्तधर्मात्मकत्वादिति। तदुक्तं सम्मती - सवियप्प-णिव्वियप्पं इय पूरिसं जो भणेज्ज अवियप्पं । सवियप्पमेव वा के अभिप्राय से। अवधारण का अर्थ है - "यह वस्तु ऐसी ही है" ऐसा निश्चयात्मक अभिप्राय, जिससे वस्तु के अन्य स्वरूप का निषेध प्राप्त होता है। जब किसी वस्तु के स्वरूप में विवाद होता है तब वक्ता अपनी अभिप्रेत वस्तु की सिद्धि के लिए एवकार = 'ही' शब्द का प्रयोग करता है। अतः वक्ता के अवधारणअभिप्राय अन्ययोगव्यवच्छेद का श्रोता को ज्ञान होता है।
शंका :- वक्ता अपनी इष्ट वस्तु की सिद्धि के लिए सदा एवकार = 'ही' शब्द का प्रयोग करता ही है, ऐसा नहीं है। कभी कभी वस्तु के स्वरूप आदि में विवाद होने पर भी एवकार का प्रयोग वक्ता नहीं करता है। अतः तब श्रोता को वक्ता के अवधारणअभिप्राय का, अर्थात् 'वक्ता को यही अर्थ अभिप्रेत है, अन्य अर्थ नहीं' इस तात्पर्य का लाभ कैसे होगा?
* एवकार के प्रयोग बिना भी अवधारण प्राप्य है * समाधान :- दुनिया का मुँह किसने बन्द किया है? मगर मुँह खोलने से ही वह अक्ल का दुश्मन है - यह ज्ञात होता है। आप भी अक्ल का उपयोग किये बिना ही शंका कर रहे हैं। वास्तविकता यह है कि जहाँ वक्ता अवधारण के लिए एवकार = 'ही' शब्द का प्रयोग, जैसे कि "शंख श्वेत ही है" - इस तरह करता नहीं है तब 'एव', 'ही' आदि पद का यानी संस्कृतभाषा में 'एव' आदि शब्द का और हिन्दीभाषा में 'ही' इत्यादि शब्द का अध्याहार करने से वक्ता के अवधारणअभिप्राय का लाभ होता है। अध्याहार का अर्थ है नहीं सुने गये शब्द की कल्पना। वक्ता 'शंख श्वेत है' ऐसा वाक्य प्रयोग करता है तब 'ही' शब्द का अध्याहार कल्पना कर के 'शंख श्वेत ही है' इत्याकारक अवधारणअभिप्राय का ज्ञान श्रोता को होता है। यहाँ यह शंका करना कि - "यदि वक्ता से अकथित शब्द की कल्पना की जाय तब तो कोई भी श्रोता अपनी इच्छा के अनुसार मनपसंद शब्द का अवधारण कर सकता है। तब तो भारी अव्यवस्था हो जायेगी।" - मुनासिब नहीं है, क्योंकि 'एवकार की कल्पना का नियामक वक्ता का वस्तुस्थापन करने का अभिप्राय है। अर्थात् जहाँ वक्ता को वस्तु को अमुक रूप में सिद्ध करने की इच्छा होगी तभी एवकार का अध्याहार हो सकता है, अन्यथा नहीं। इस व्यवस्था के स्वीकार में किसी दोष का अवकाश नहीं है। अथवा संसर्गमहिमा से यानी पदसमभिव्याहार बल से भी वक्ता के अवधारण-अभिप्राय का लाभ हो सकता है।
'तद्धर्मवति.' इति । अब विवरणकार सत्यभाषा के लक्षण के द्वितीय अंश को, जो कि तस्मिंस्तद्वचनं' रूप है, स्पष्ट करते हैं। इसका अर्थ है तधर्मवति-विवक्षितधर्म से विशिष्ट वस्तु में, तत्प्रकारक अर्थात् विवक्षित धर्म का विशेषणरूप से अवगाहन करनेवाला जो शाब्द बोध हो उसका जनक शब्द । जैसे कि - 'यह शंख श्वेतवर्णवाला है' यह वचन श्वेतिमा धर्म से विशिष्ट शंख में श्वेतवर्ण का प्रकार रूप से = विशेषण रूप से शाब्द बोध का जनक होने से अवधारण-अभिप्राय से प्रयुक्त होने पर सत्य होता है। अतः 'शंखः पीतः' इत्यादि वाक्य में सत्यभाषा के लक्षण की अतिव्याप्ति नहीं आयेगी, क्योंकि 'शंखः पीता' यह वाक्य पीतवर्ण