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९६ भाषारहस्यप्रकरणे स्त. १. गा. २०
विस्तरः ||२०||
तदेवं समर्थितं नयभेदेन भाषाया द्वैविध्यं चातुर्विध्यं च ।
अथ सौत्रविभागमनुसृत्योद्देशक्रमप्रामाण्यात् सत्याया एव लक्षणाभिधानपूर्वकं विभागमाह
० उद्देशस्वरूपम् 0
मुख्यत्वोपपत्त्यर्थमेवेति । वस्तुनोऽनन्तधर्मात्मकत्वेऽपि अभिप्रायविशेषमवलम्ब्य केषाञ्चिद्धर्माणां गौणत्वं केषाञ्चिद्धर्माणां मुख्यत्वं साधयितुमेव नयविशेषाश्रयणमित्यर्थः । 'एव'कारेण विवक्षितेतरधर्मव्यवच्छेदप्रयोजनव्यवच्छेदः कृतः, अप्रामाणिकत्वेन नयाभासत्वप्रसङ्गादिति दिक् ॥ २० ॥ ॥
अथेति । अनेनाऽवसरसङ्गतिः प्रदर्शिता । विषयसिद्ध्या प्रतिबन्धकीभूतशिष्यजिज्ञासानिवृत्तौ सत्यामवश्यवक्तव्यत्वमवसरः। जिज्ञासितार्थसिद्धत्वमवसर इति कश्चित् । भवति हि जिज्ञासाविषये सिद्धे 'इदं ज्ञातं किमन्यद्वक्तव्यमिति जिज्ञासेति तदाशयः ।
सौत्रविभागमिति। दशवैकालिकसूत्रनिर्युक्तिप्रदर्शितविभागमित्यर्थः । विभागस्तु प्रकृते न प्राप्तिपूर्विकाऽप्राप्तिः न वा समानाश्रयत्वे सति संयोगनाशकः किन्तु परस्पराऽसङ्कीर्णव्याप्यधर्मकथनम् । किरणावलीरहस्यकारस्तु "सामान्यतोऽवगतानां विशेषरूपेणाभिधानं विभाग" इति व्याचष्टे ।
उद्देशेति। नाममात्रेण वस्तुसङ्कीर्तनमुद्देशः । दशवैकालिकसूत्रप्रदर्शितभाषाविभागमनुसृत्य उद्देशक्रमे यत् प्रामाण्यं तमाश्रित्येत्यर्थः। निरुक्तोद्देशक्रमविवक्षयेति भावः । एतेन उद्देशक्रमे च सर्वत्रेच्छैव नियामिकेति तर्कसङ्ग्रहदीपिकाकारवचनमपास्तम् तदीयप्रमाणाद्युद्देशक्रमस्याऽपि न्यायसूत्रीयोद्देशक्रमनियन्त्रितत्वात् ।
अवधारणैकभावेनेति। अन्ययोगव्यवच्छेदमात्राभिप्रायेणेत्यर्थः । प्रयोज्यत्वं तृतीयार्थः । तस्य तद्वचनशब्दार्थेऽन्वयः । मृषाभाषाव्यवच्छेदार्थं केवलं तस्मिंस्तद्वचनमित्युक्तौ त्वसत्यामृषाभाषायामतिव्याप्तिः स्यात् । अतोऽवधारणैकभावेनेति नयविशेष = अपेक्षा विशेष का मानव आश्रय करता है और अपने अभीष्ट धर्म के प्रतिपादन का, उसकी सिद्धि का प्रयास करता है। मगर इसका मतलब यह नहीं है कि उस वस्तु में इस धर्म के सिवा अन्य धर्म है ही नहीं, क्योंकि अन्य धर्मों का वस्तु में अस्वीकार या खंडन करने पर वह वचन दुर्वचन हो जाता है, वह नय दुर्नय या नयाभास हो जाता है। अतः प्रस्तुत में कर्मनिर्जराहेतुत्व और पापकर्मबंधहेतुत्व की अपेक्षा से निश्चयनय भाषा का दो भेद मानता है। जब कि बाह्य अर्थ में संवादित्व, विसंवादित्व आदि की अपेक्षा व्यवहार नय भाषा का चार भेद मानता है। मगर इसमें कोई विरोध नहीं है। आशय यह है कि निश्चयनय का अभिप्राय ऐसा है भाषा के दो ही भेद हो सकते हैं क्योंकि या तो भाषा निर्जरा की हेतु बनेगी या तो पापकर्मबंध का हेतु। इसके अलावा भाषा का तीसरा कोई भेद संभवित नहीं है। जब कि व्यवहारनय भिन्न पहलू का स्वीकार करता है। व्यवहारनय का अभिप्राय यह है कि या तो भाषा संपूर्ण संवादी हो सकती है, या तो सर्वथा विसंवादी हो सकती है, या तो अमुक अंश में संवादी और अमुक अंश में विसंवादी हो सकती है, या तो न संवादी और न विसंवादी ऐसी हो सकती है। इन चार भेद से अतिरिक्त पाँचवा कोई भेद भाषा में संभवित नहीं है। सुस्पष्ट ही है कि दोनों नय अपने अपने दृष्टिकोण की अपेक्षा से सत्य है, प्रमाण है, अप्रमाण-असत्य नहीं । वस्तु में अनंतधर्मात्मकता कैसे युक्त है ? - इस विषय का विस्तार से निरूपण स्याद्वादरत्नाकर स्याद्वादकल्पलता आदि में प्राप्य है ।। २० ।।
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तदेवं इति। इस तरह भिन्न भिन्न नय की अपेक्षा भाषा में द्वैविध्य और चातुर्विध्य हैं । अर्थात् निश्चयनय से भाषा के दो भेद हैं और व्यवहारनय की दृष्टि से भाषा के चार भेद हैं- यह सिद्ध हुआ । अब ग्रंथकार प्रज्ञापनासूत्रप्रदर्शित भाषा के विभागों के अनुसार उद्देशक्रम को प्रमाण कर के सत्य भाषा के लक्षण का प्रतिपादनपूर्वक सत्यभाषा का विभाग बताते हैं । उद्देश का अर्थ है नाममात्र से वस्तु को बताना । दशवैकालिकसूत्र की नियुक्ति में भाषा का विभाग जैसे बताया गया है, उसी क्रम के अनुसार भाषा के भेदों का कथन करने पर उद्देश क्रम प्रामाणिक होता है। अतः ग्रंथकार उस क्रम से सत्यभाषा के भेदों का कथन करने के पूर्व में सत्यभाषा का लक्षण २१वीं गाथा से बताते हैं और २२वीं गाथा में सत्यभाषा के भेदों का उल्लेख करते हैं।