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* विविधनयानुसरणप्रयोजनप्रदर्शनम् *
अथ निश्चयव्यवहारयोरेकमवश्यमप्रमाणमेव, अन्यथा वस्तुनस्तदभिमतद्वैरूप्यानुपपत्तेरिति चेत्? न, वस्तुनोऽनन्तधर्मात्मकत्वस्य प्रामाणिकत्वात्, अन्यथा एकस्यैव पितृपुत्रादिव्यवस्थानुपपत्तेः तत्तद्धर्मगौणमुख्यत्वोपपत्त्यर्थमेव नयभेदानुसरणादित्यन्यत्र ___ द्वैरूप्यानुपपत्तेरिति। भाषायां द्वैविध्य-चातुर्विध्यान्यतरस्यैव युक्तत्वं न तु तदुभयस्य तदन्यतरस्याऽसत्त्वाद् द्विविधत्व-चतुर्विधत्वयोः परस्परविरोधात्। अतो भाषायां वैविध्य-चातुर्विध्यप्रतिपादकयोनिश्चयव्यवहारयोरन्यतरदप्रमाणं तदन्यतरविषयासत्त्वात्। प्रामाण्यस्य तथाविषयसत्ताधीनत्वादिति आशयः।
तमपाकरोति 'नेति। अन्यथा वस्तुनोऽनन्तधर्मात्मकत्वस्याप्रामाणिकत्वे। एकस्यैव पितृपुत्रादिव्यवस्थानुपपत्तेरिति। एकस्मिन् पितृपुत्रादिप्रामाणिकप्रसिद्धव्यवहारबलेन पितृत्व-पुत्रत्वाद्यनन्तधर्मात्मकत्वसिद्धिरित्याशयः। एतेन पितृत्वपुत्रत्वादयो धर्मा एव तत्तन्निरूपिता भिद्यन्ते धर्मी त्वेकस्वभाव एवेति परास्तम्, 'एतदपेक्षयाऽयं पिता, तदपेक्षया च न पिता' इत्यादिप्रतीत्यनुपपत्तेः; धर्मिभेदप्रतीतेधर्माभावावगाहितायां 'घटो न पट' इत्यादावपि तथात्वापत्त्या भेदकथोच्छेदप्रसङ्गाच्च।
ननु द्वयोः प्रमाणत्वे किमर्थं व्यवहारनयं विहाय निश्चयनयानुसरणं क्रियते इत्याशङ्कायामाह-तत्तद्धर्मगौणदूसरा धर्म नहीं रहेगा। यदि भाषा में द्विविधत्व रहेगा तब चतुर्विधत्व नहीं रहेगा। अतः भाषा के चातुर्विध्य का प्रतिपादक व्यवहारनय अप्रमाण होगा। यदि भाषा में चतुर्विधत्व होगा तो इसका विरोधी होने से द्विविधत्व नहीं रहेगा। अतः भाषा में वैविध्य का प्रतिपादक निश्चयनय अप्रमाण होगा। अतः निश्चयनय या व्यवहारनय में से कोई एक अवश्य ही अप्रमाण होना चाहिए।
* भाषा में द्विविधत्व और चतुर्विधत्व दोनों वास्तविक हैं * समाधान :- न.वस्तु. इति। मिस्टर! आप दूर की नहीं सोचते हैं और विरोध करते हैं। आप न तो इधर के हैं, न उधर के। जैसे धोबी का कुत्ता न घर का न घाट का होता है वैसे आप न तो व्यवहारनय के हैं और न तो निश्चयनय के। मगर एक बात समझ लीजिए कि वस्तु में सिर्फ एक या दो धर्म नहीं रहते है, किन्तु अनंत धर्म रहते हैं। वस्तु अनन्तधर्मात्मक होती है। वस्तु में अनन्तधर्मात्मकता को वास्तविक न मानी जाय, तो एक ही मनुष्य में पिता-पुत्र आदि व्यवहार अनुपपन्न रह जायेगा। आशय यह है कि - जैसे एक व्यक्ति को देख कर लडका बोलता है कि-'यह मेरे पिताजी है' दूसरा आदमी बोलता है कि-'यह मेरा लडका है'। इस प्रसिद्ध लौकिक प्रमाणिक व्यवहार से सिद्ध होता है कि एक ही व्यक्ति एक के प्रति पिता है, तो किसी अन्यकी अपेक्षा पुत्र है, अन्य किसीकी दृष्टि में अध्यापक है और अन्य किसीकी अपेक्षा विद्यार्थी है। एक ही मनुष्य किसीका मामा होता है तो किसीका भानजा भी होता है। जो एक की अपेक्षा से चाचा है वही अन्य किसीकी दृष्टि में भतिजा भी होता है, मगर इसमें कोई विरोध नहीं हैं; क्योंकि अपेक्षाभेद से एक व्यक्ति में ही अनन्त धर्म रहने में कोई विरोध नहीं हैं। हाँ, वह विरोध तब होता यदि जिसकी अपेक्षा से वह पिता हो उसीकी अपेक्षा से "वह पुत्र है" ऐसा कहा जाए। मगर भिन्न भिन्न अपेक्षा से एक ही व्यक्ति में पितृत्वपुत्रत्व होने में कोई विरोध नहीं है। अर्थात् भिन्न अपेक्षा से एक ही मनुष्य को पितारूप-पुत्रस्वरूप, अध्यापकस्वरूप, विद्यार्थीस्वरूप मानने में कोई विरोध नहीं है। इस तरह भाषा में भी भिन्न भिन्न अपेक्षा से वैविध्य और चातुर्विध्य रहने में कोई विरोध नहीं है।
चयनय की अपेक्षा से भाषा में वैविध्य है और व्यवहानय की अपेक्षा से भाषा में चातुर्विध्य है, इसमें कोई विरोध नहीं है। सो बात की एक बात-निश्चयनय से भाषा के दो भेद हैं और व्यवहारनय से भाषा के चार भेद हैं वह सुसंगत ही है। 'निश्चय या व्यवहार में से कोई एक अवश्य अप्रमाण है' - यह कहने से अब क्या? अब पछताये होत क्या जब चिड़ियाँ चुग गई खेत! __ शंका :- यदि भाषा में वैविध्य और चातुर्विध्य पारमार्थिक है, तब पहले आपने भाषा के चार भेदों का प्रतिपादन किया और बाद मे भाषा के दो भेदों का प्रतिपादन किया। पहले व्यवहारनय का आश्रय लिया बाद में निश्चयनय का आश्रय लिया-ऐसा क्यों किया? यह हमारी समझ में नहीं आता है।
* नयविशेष का आश्रयण गौण-मुख्यभाव की सिद्धि के लिए * समाधान :- तत्तद्धर्म. इति। सब वस्तुएँ अनन्तधर्मात्मक होती हैं। मगर एक ही काल में एक व्यक्ति इन सब = अनंत धर्मो का कथन करने में समर्थ नहीं होती है। प्रयोजनवश वस्तु में अमुक धर्म की मुख्यता और अमुक धर्म की गौणता की सिद्धि के लिए