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९४ भाषारहस्यप्रकरणे - स्त.१. गा.२०
० निश्चयव्यवहारयोर्वास्तविकविषयकत्वम् ० मोसत्ति ।। (प्र. भा. प. सू. १६२) एवं भाषाचातुर्विध्यमपि व्यवहारानुगतं श्रुतमूलकतया नावास्तवमिति भावः। भाषा। एतत् सूत्रं खट्वादिषु योनिमृदुत्वादिस्त्र्यादिलक्षणानुपलम्भे मृषात्वाशङ्कया प्रश्नकरणात्, शाब्दव्यवहारापेक्षया यथावस्थितार्थप्रतिपादनादियं भाषा प्रज्ञापनी = प्ररूपणीयेत्यभिप्रायेण प्रतिवचनौचित्याच्च समर्थितमिति । ततः प्रतीयते शब्दप्रवृत्तिचिन्तायां नेह योनिमृदुत्वादिस्त्र्यादिलक्षणानि स्त्रीलिङ्गादिशब्दाभिधेयानि किन्त्वभिधेयधर्माः 'इयमि'त्यादिशब्दव्यवहारव्यवस्थाहेतवः तात्त्विका आप्तोपदेशादिगम्याः स्त्रीलिङ्गादिशब्दाभिधेयाः; अन्यथा तत्र स्त्र्यादिवाचो मृषात्वनिषेध-प्ररूपणीयत्वोपदेशानुपपत्तेरिति।
द्रष्टान्तमभिधाय दार्टान्तिकार्थमधिकरणसिद्धान्तेन सङ्गमयति 'एवमि'ति। खट्वादिषु 'इयमि'त्यादिव्यवहार- , विषयतायाः श्रुतविषयताव्याप्यतया तत्र स्त्रीत्वादीनां वास्तवत्वमित्यनेन प्रकारेणेत्यर्थः। श्रुतमूलकतया = व्यवहारनिश्चयनयोभयविषयताव्यापकविषयताकश्रुतविषयतयेत्यर्थः। प्रयोगस्त्वत्रैवं-व्यवहारनयाभिमतं भाषाचतुर्विधत्वं न मिथ्या नयद्वयघटितश्रुतविषयत्वात् निश्चयनयाभिमतभाषावैविध्यवदिति। सोऽयमधिकरणसिद्धान्तः तदुक्तं न्यायसूत्रे यत्सिद्धावन्यप्रकरणसिद्धिः सोऽधिकरणसिद्धान्तः। (न्या. सू. १/१/३०) व्यवहारबलात्पारिभाषिकस्त्रीत्वादेर्वास्तवत्वसिद्धौ भाषाचतुर्विधत्वे वास्तवत्वसिद्धिरिति दिक् । करते हुए महावीरस्वामी भगवंत ने यह बताया कि - "हे गौतम! स्त्रीवचन, पुरुषवचन और नपुंसकवचन ये प्रज्ञापनीय = प्ररूपणा करने योग्य भाषा वचन हैं। ये वचन मृषा वचन नहीं हैं"। वास्तव में तो स्त्री आदि के लिंग-चिह्न योनि आदि है, मगर स्त्रीलिंग प्रतिपादक शब्द तो खट्वा खाट आदि पदार्थ में भी प्रवृत्त होता है जहाँ स्त्री के पूर्वोक्त योनि आदि लिंग नहीं होते हैं। अतः खट्वा आदि शब्द, जो कि स्त्रीलिंगप्रतिपादक यानी स्त्रीवचनरूप हैं, वे क्या मृषा नहीं हैं न? - ऐसी शंका से किये गये प्रश्न का भगवंत ने समाधान किया है कि - "स्त्री वचन आदि प्ररूपणा करने योग्य है, मृषा नहीं है" - इससे यह निश्चित होता है कि स्त्रीलिंगप्रतिपादक वचन मृषा नहीं हैं तब तो जरूर अर्थ में - बाह्य वस्तु में स्त्रीपना आदि होना चाहिए, जो पारमार्थिक हो। वैसा स्त्रीपना आदि शब्दविशेषवाच्यता स्वरूप ही हो सकता है, जो खाट आदि बाह्य पदार्थ = वाच्य में रहता है। अतः प्रज्ञापना सूत्र का विमर्श करने पर भी यह सिद्ध होता है कि खट्वा आदि में प्रधानरूप से स्त्रीवेदोदय रूप स्त्रीपना भले ही न हो, मगर शब्दविशेषवाच्यता स्वरूप. स्त्रीत्व आदि अवश्य होते हैं जो पारमार्थिक होते हैं।
* व्यवहार के बल से भाषा में चतुर्विधत्व की सिद्धि* "एवं भाषा.' इति । स्त्रीत्व आदि के द्रष्टांत के बल से विवरणकार दाष्टाँतिक अर्थ की सिद्धि करते हैं। जिस तरह प्रसिद्ध स्त्रीपना बाह्य खाट आदि चीज में न होने पर भी पारिभाषिक स्त्रीपना आदि इनमें रहते हैं जो पारमार्थिक है, क्योंकि बाह्यवस्तु में स्त्रीलिंग आदि प्रतिपादक शब्दों का प्रयोग होता है, वैसे ही व्यवहारनय से जो भाषा के चार भेद दिखाये गये हैं, वे भी पारमार्थिक हैं - वास्तविक है, क्योंकि वे श्रुतमूलक हैं। श्रुत यानी आगम तो व्यवहारनय और निश्चय दोनों से घटित होता है। अतः व्यवहारनय की जहाँ विषयता रहती है वहाँ श्रुत = आगम की विषयता भी रहती है अर्थात् जो व्यवहारनय का विषय होता है वह ' अवश्य श्रुत-शास्त्र आगम का विषय होता है। यह एक नियम है कि जो शास्त्र का विषय होता है वह पारमार्थिक होता है, काल्पनिक नहीं। अतः व्यवहारनयसंमत भाषा के चार भेद भी पारमार्थिक ही हैं - यह सिद्ध हुआ। . शंका :- अथ.' इति । निश्चयनय से भाषा के दो भेद हैं और व्यवहारनय से चार भेद हैं यह अपने जो कहा है वह सर्वथा सत्य नहीं हो सकता है। द्विविधत्व और चतुर्विधत्व परस्पर विरुद्ध धर्म हैं। अतः भाषा में यदि, निश्चयनय अभिमत द्विविधत्व होगा तो चतुर्विधत्व नहीं होगा और यदि भाषा में व्यवहारनय अभिमत चतुर्विधत्व होगा तब द्विविधत्व नहीं होगा। जैसे एक ही अग्नि में शीतस्पर्श और उष्णस्पर्श नहीं रहता है वैसे । अतः भाषा में द्विविधत्व और चतुर्विधत्व में से कोई एक धर्म रहेगा और इसका विरोधी
२ 'कुड्यं' शब्द संस्कृतभाषा में नपुंसकलिंग में आता है। हिन्दी भाषा में उसका अर्थ दिवार होता है जो कि हिन्दी भाषा में स्त्रीलिंग में आता है। फिर भी संस्कृत भाषा में नपुंसकलिंग में होने से यह 'कुड्य' शब्द का नपुंसकलिंग से निर्देश विवरणकार को इष्ट है - यह ध्यातव्य है।