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* आराधकत्वविमर्शः *
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एषा च श्रुते आराधनी परिभाषिता परिभाषितत्वानुधावने च परिभाषिकाराधकत्वेन लक्षणत्वोपदर्शनार्थम् अन्यथा णिच्छएण ण स णिच्छिओ समये ।। (स.त. १.३५) अस्माभिस्तत्र द्रव्यार्थादेशेन 'स्यादात्मा नित्य एव' इत्येवमुच्यते । अतो न सत्यत्वव्याहतिः । सङ्ख्याशब्दानां पर्याप्त्याऽन्वयबोध एवं साकाङ्क्षत्वादुत्पन्नमिश्रादिवचने नातिव्याप्तिरित्यादि सूचनार्थमूह्यमित्युक्तम् ।
आराधनी परिभाषितेति लक्षणान्तरञ्चेदम्, अष्टात्रिंशत्तमगाथायां वक्ष्यमाणाऽसत्याभाषालक्षणद्वैविध्यवत्। यथा वक्ष्यमाणपारिभाषिकविराधकत्वं सद्भृतप्रतिषेधत्वादिना तथाऽत्र पारिभाषिकाराधकत्वं असभूतप्रतिषेधत्वादिनेति नानुपपत्तिरिति दिक् ।
विपक्षे बाधमाह अन्यथेति । परिभाषितत्वेनाऽऽराधकत्वानभ्युपगमे किं विहितत्वेनाऽऽराधकत्वं ? किं वा सम्यगुपयोगपूर्वकत्वेनाऽऽराधकत्वं? किं वा प्रातिस्विकरूपेणाऽऽराधकत्वं ? इति विकल्पत्रयी त्रिपथगाप्रवाहत्रयीव जगत्त्रयी से शून्य शंख में पीतवर्ण का प्रकार रूप से जहाँ भान होता है ऐसे शाब्दबोध का जनक होता है। पीतवर्णशून्य शंख में पीतवर्ण की विशेषणतावगाही शाब्द बोध का जनक होने से 'पीता शंख' यह वाक्य असत्य ही है, सत्य नहीं।
शंका : जैनधर्म के सिद्धांत के अनुसार प्रत्येक वस्तु में अनन्त धर्म रहते हैं। प्रत्येक वस्तु अनन्तधर्मात्मक होती है जैसे कि जीव में नित्यता भी है और अनित्यता भी है, सद्बपता भी है और असद्रूपता भी है, वाच्यता भी है और अवाच्यता भी है। अब देखिये, एकान्त नित्यवादी नैयायिकादि जब कहेगा कि - "आत्मा नित्य ही है" तब वह वचन भी सत्य हो जायेगा क्योंकि सत्यभाषा का उपर्युक्त लक्षण वहाँ जाता है। आत्मा में नित्यत्व है ही । अतः नित्यत्वविशिष्ट आत्मा में नित्यत्व प्रकारक शाब्दबोध का जनक शब्द, जो कि अवधारण अभिप्राय से प्रयुक्त होने से 'आत्मा नित्य ही है' इत्यादि नैयायिक-सांख्य- वेदान्ती आदि के वचन भी सत्य हो जायेंगे। इस तरह सब एकान्तवादी, जो कि परमार्थ से भ्रान्त है, सत्य वक्ता हो जायेंगे। उनके सब वचन सत्य हो जायेंगे ।
* अवधारण बाधित होने से एकान्तवादी का वचन सत्य नहीं है *
समाधान :- अनेकान्तवादी के नाम पर धब्बा लगाने का आपका यह प्रयास साहनीय नहीं है। एकान्तवादी के वचन में सत्यता की सिद्धि कभी भी नहीं हो सकती है। विष स्वर्ण के बर्तन में रखने से अमृत नहीं होता है। इसका कारण यह है कि एकान्तवादी 'एव' शब्द का जो प्रयोग अवधारण के अभिप्राय से करते हैं; वह बाधित हो जाता है। जैसे कि आत्मा नित्य ही है' यह वचन आत्मा में अनित्यता आदि धर्म के निषेध के अभिप्राय से प्रयुक्त होने से बाधित होता है। आत्मा में पर्यायनय की अपेक्षा अनित्यत्वादि धर्म है ही । अतः सर्वथा निरपेक्ष हो कर अवधारण के अभिप्राय से एवकारादि के प्रयोग, जो एकान्तवादी से किये जाते हैं, वे कथमपि सत्य नहीं हो सकते हैं। इस विषय में गंभीरता से अनेक विषय विमर्श करने योग्य हैं। इस बात की सूचना देने के लिए 'इत्यादि ऊह्यम्' ऐसा शब्द प्रयोग विवरणकार ने किया है।
* पारिभाषिकआराधकत्व
सत्यभाषा का द्वितीय लक्षण *
'एषा च.' इति । यह सत्य भाषा आगम में सत्य भाषा रूप से परिभाषित है। मतलब आगम की परिभाषा से आराधनी भाषा सत्यभाषा है। अतः पारिभाषिक आराधकत्व ही सत्यभाषा का द्वितीय लक्षण है। मतलब यह है कि आगममूलक व्यवहारनय के अभिप्राय से निर्मित परिभाषा से जो भाषा आराधक होती है वह भाषा सत्य है यहाँ प्रकरणकार ने मूल में 'आराहणी परिभासिआ ' ऐसा जो कहा है, वह पारिभाषिकआराधकत्वरूप से द्वितीय लक्षण बताने के अभिप्राय से कहा है।
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शंका प्रकरणकार ने मूल में 'आराहणी विहिआ' न कह कर 'आराहणी परिभासिआ ऐसा क्यों कहा है? मतलब यह है कि विहितत्वरूप से आराधकत्व को सत्य भाषा का लक्षण मानने में क्यों आपके दांत खट्टे हो रहे हैं? पारिभाषिकरूप से आराधकत्व कहने से आराधकत्व सीमित हो जायेगा। अतः अप्रामाणिक संकोच करने की आवश्यकता क्या है ?
* विहितत्वेन आराधकत्व को मानने में असंभव दोष *
समाधान :- 'अन्यथा.' इति। आपकी दृष्टि कूपमंडूक की तरह संकुचित है। इसी सबब आपको 'परिभाषिक आराधकत्व में संकुचितता के दर्शन होता है। ठीक ही कहा गया है जैसी दृष्टि वैसी सृष्टि मगर वास्तविकता का दर्शन करना ही होगा। देखिये,