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* न्यायसिद्धान्तदीपनिर्वाणम * भासज्जायाइं भासमाणे किं आराहए विराहए? गोयमा! इच्चेयाइं चत्तारि भासज्जाताई आउत्तं भासमाणे आराहए, णो विराहएत्ति ।। (प्र. भा. प. सू. १७४) प्रज्ञापनासूत्रे सर्वा अपि भाषा आयुक्तं भाषमाणस्याराधकत्वोपदेशात क्रियाद्वयस्य समानकालीनसम्प्रतिपन्नवदिति प्रयोगः क्रियते।
ननु सर्वा अपि भाषा आयुक्तं भाषामाणस्याराधकत्वोपदेशादिति कुतः सिद्धं? इत्याह-क्रियाद्वयस्येति। आयुक्तभाषणक्रियाऽऽराधनाक्रिययोः समानकालीनत्वलाभादौत्सर्गिकहेतु-हेतुमद्भावसिद्धिः। अयं भावः, यथा"ऽनुपयुक्तं गच्छन् स्खलति" अत्राऽनुपयुक्तगमनक्रियास्खलनक्रिययोर्हेतुहेतुमद्भावसिद्धिस्तथा "आयुक्तं भाषमाण आराधक" इत्यत्राऽपि आयुक्तभाषणाराधनयोः कार्यकारणभावसिद्धिः।
ननु कार्यात्कारणानुमानं 'वह्निमान् धूमादि'त्यादौ दृष्टं, न तु कारणात्कार्यानुमानमत आयुक्तभाषणक्रियारूपकारणात् कथमाराधनाकार्यानुमानमिति चेत्? न; कारणादपि कार्यानुमानोपगमात् । न हि सुपरिक्षितं कारणं कार्य व्यभिचरति। तदुक्तं सिद्धर्षिगणिनोपमितिभवप्रपञ्चाकथायां - "न ह्युपाय उपेयव्यभिचारी। उपायश्चाऽप्रतिहतशक्तिकः" (उप.पृ. २६) इति।
ननु समानकालीनत्वे कुतो हेतुहेतुमद्भावसिद्धिरिति चेत्? न; उत्सर्गतो निश्चयनयेन समानकालीनयोरेव कार्यकारणभावोगमात् समानकालीनत्वे सति आयुक्तभाषणे कारणत्वस्य युक्तत्वात् । - यत्तु न्यायसिद्धान्तदीपे "कार्यनियतपूर्ववर्तिजातीयत्वमेव कारणत्वम्। न चाकाशादेरपि कारणत्वम्, सामान्यत इष्टत्वादित्युक्तं, तन्मन्दम् एवं सति दण्डत्वादेरपि कारणत्वं प्रसज्येत। न च कार्यगतजातेः कारणगतजातिप्रयुक्तत्वनियमादिष्टापत्तिरिति वाच्यम्, अनभ्युपगमात्, तन्नियमस्वीकर्तृमतेऽपि कार्यगतजातेनिमित्तकारणगतजातिप्रयुक्तत्वास्वीकाराच्च । एतेन सहकारिविरहप्रयुक्तकार्याभाववत्त्वं कारणत्वमित्यपास्तम् सहकारित्वनिर्वचने आत्माश्रयप्रसङ्गात्।
है कि- 'अन्य भाषा का सत्यभाषा में समावेश कैसे होगा?' इसका कारण यह है कि सर्व भाषाओं का सत्यभाषा में अंतर्भाव हो . तभी चार भाषाओं में आराधकत्व घटेगा, अन्यथा नहीं। यदि सब भाषाओं का परमार्थ से सत्यभाषा में अंतर्भाव न हो और मृषाभाषा, मिश्रभाषा आदि रूप से स्वतंत्र अस्तित्व हो, तब तो सब भाषा में आराधकत्व ही दुर्घट हो जायेगा। एक ओर से मृषा भाषा, मिश्र भाषा इत्यादि कहना और दूसरी ओर उसे आराधक कहना यह कैसे समीचीन होगा? अतः सर्वभाषा का सत्यभाषा में अंतर्भाव होता है - यह मानना ही होगा।
शंका :- सर्व भाषा में आराधकत्व है - यह प्रतिपादन आप किस आधार पर कर रहे हैं? क्या इसमें प्रत्यक्ष, अनुमान या आगम प्रमाण है?
* अपेक्षा से सर्व भाषा सत्यभाषा है - निश्चयनय * समाधान :- 'अयं भावः' इति । हमने जो बताया है कि - 'सर्व भाषा में आराधकत्व है' वह हमारी मन मानी कल्पना नहीं है या शेखचल्ली का तरंग नहीं है, मगर इस विषय में आगम ही बलवान् प्रमाण है। प्रज्ञापना नामक उपांग में जो कहा है उसको कान खोल कर सुनिये। यह रहा वह प्रज्ञापनाशास्त्रवचन का अर्थ-"गौतमस्वामीजी के इस प्रश्न को कि - "हे भगवंत! इन चार भाषाओं को बोलनेवाला क्या आराधक होता है या विराधक?" - हल करते हुए महावीर प्रभु ने कहा कि - "हे गौतम! इन चार भाषाओं को आयुक्त परिणामपूर्वक बोलता हुआ जीव आराधक होता है, विराधक नहीं"। प्रज्ञापना सूत्र के उक्त वचन से यह साफ साफ स्पष्ट हो जाता है कि भाषा चाहे सत्य हो, चाहे मृषा हो, चाहे सत्यामृषा हो, चाहे असत्यामृषा हो मगर आयुक्त परिणाम से बोलता हुआ जीव आराधक ही होता है। जैसे - वह आँखें मूंद कर चलता हुआ किसीसे टकराता है - इस वाक्य में आँखें मूंद कर चलने की और किसीसे टकराने की दो समानकालीन क्रिया में कार्य-कारणभाव का ज्ञान होता है। अर्थात् आँखें मूंद कर चलना यह टकराने का कारण है और टकराना यह आँखें मूंद कर चलने का कार्य है, वैसे ही यहाँ भी 'आयुक्त परिणाम से बोलता हुआ