________________
* आयुक्तत्वनिर्वचनम *
८९ तथा चाऽऽयुक्तं भाष्यमाणाः सर्वा अपि सत्या एवेति पर्यवसितम्। ___अत एव ""दो न भासिज्ज सव्वसो (द. अ. ७/गा. १) इत्यस्यापि न विरोधः; अपवादतस्तद्भाषणेऽप्युत्सर्गानपायात्। 'द्वे' प्रवचनमालिन्यादिरक्षणपरतया सम्यकप्रवचनमालिन्यादिरक्षणेच्छयोच्चरिततयेत्यर्थः। आदिपदात संयमादिग्रहः । अयं भावः प्रवचनोड्डाहरक्षणादिनिमित्तं शास्त्रोपदर्शितदिशा गुरुलाघवपर्यालोचनेन मृषाऽपि भाषमाणः साधुराराधक एवेति। तदुक्तं निशीथचूर्णी जिनदासगणिमहत्तरैः - "जइ केइ लुद्धगादी पुच्छंति" कतो एत्थ भगवं! दिट्ठा मिगादी?" 'आदि'-सद्दातो सुअराती ताहे दिढेसु वि वत्तव्यं - 'ण वि पासे'त्ति' ण दिट्ठ' त्ति वुत्तं भवति । 'अहवा तुसिणीओ अच्छति' । भणति वा 'ण सुणेमि'ति।" एवं प्रासङ्गिकमुक्त्वा प्रकृतमुपसंहरति - 'तथा चेति । सुगममिति न तन्यते।
ननु चतसृणां भाषाणां सत्यान्तर्भावे 'दो न भासिज्ज सव्वसो' इति दशवैकालिकवचनं विरुध्येतेत्याशङ्कायामाह अत एवेति । आयुक्तभाषणाराधकत्वयोरौत्सर्गिकहेतुहेतुमद्भावनिश्चयादित्यर्थः । 'दो न भासिज्ज सव्वसो' इति । द्वे = असत्या-सत्यामृषे न भाषेत = वदेत्; सर्वशः = सर्वैः प्रकारैरित्यस्यार्थः । अत्र व्यवहारनयेनोत्सर्गतो मृषामिश्रयोर्भाषणं निषिद्धम् तथापि न विरोधः। कथमित्यत्र हेतुमाह 'अपवादत' इति। सम्यक्प्रवचनमालिन्यादिरक्षणनिमित्तमाश्रित्येत्यर्थः । तद्भाषणेऽपि = तयोर्मुषामिश्रयोर्भाषणेऽपि। उत्सर्गानपायात् = पूर्वोक्तनिश्चयनयाभिप्रेतौत्सर्गिकहेतुअनुसार बोलना यह आयुक्त पद का अर्थ है जो आराधकत्व का कारण है। जैसे कि अपनी बाइँ ओर जाते हुए हिरन को देखने के बाद भी, साधु जब शिकारी से पूछा जाय कि - "आपने हिरन को देखा है? वह किस दिशा में गया है?" - तब साधु मौन रहे या - "हिरन दाइँ ओर गया है या "मैंने देखा नहीं है" इत्यादि प्रत्युत्तर संयमरक्षा के उपयोग से कहे तब भी वह साधु आराधक ही है, विराधक नहीं।
तथा च.' इति । प्रासंगिकरूप से आयुक्त पद के अर्थ को बताने के बाद विवरणकार मूल विषय का उपसंहार करते हुए बताते हैं कि - आयुक्तपरिणामपूर्वक चारों भाषाओं को बोलने पर भी वक्ता आराधक ही है। इससे सिद्ध होता है कि 'आयुक्त होकर सब भाषा बोलने पर भी परमार्थ से वे सब भाषा सत्य ही हैं। यदि उन भाषाओं में सत्यत्व नहीं होगा, तब उसमें आगमकथित आराधकत्व अनुपपन्न हो जायेगा, क्योंकि उन भाषाओं का असत्य आदि रूप से स्वीकार करने पर भी उनको आराधक कहना यह 'मेरी माता वंध्या है' इस वाक्य की तरह विरुद्ध होगा।
व्यवहारनय :- आप सब भाषा को आयुक्त होकर बोलने पर आराधक कह कर सब भाषा का सत्य भाषा में समावेश करते हैं, वह मुनासिब नहीं है। इसका कारण यह है कि दशवैकालिक सूत्र में साधु के लिए 'दो न भासिज्ज सव्वसो' अर्थात् "साधु को सर्व प्रकार से मृषा और सत्यामृषा भाषा नहीं बोलनी चाहिए" इस तरह से मृषा और सत्यामृषा भाषा बोलने का स्पष्ट निषेध किया गया है। आपकी दृष्टि से तो सत्य भाषण या मृषा भाषण को आराधकत्व के साथ कोई संबंध ही नहीं है। आराधकत्व का जहाँ तक कारणरूप से संबंध है, वह आयुक्त हो कर बोलने में है। अतः आपके अभिप्राय से मृषा या मिश्र भाषा भी आयुक्त होकर बोले तब भी इसमें आराधकत्व ही रहता है, तो मृषा भाषा और मिश्र भाषा बोलने का निषेध क्यों किया गया है? मृषा और मिश्र भाषा आराधक हो तो उनको बोलने का निषेध कैसे हो सकता है? इसीसे सिद्ध होता है कि आराधकत्व सत्य या अनुभय = असत्यामृषा भाषा में रहता है और विराधकत्व मृषा और सत्यामृषा भाषा में रहता है। इन दोनों का आयुक्त परिणाम या अनायुक्तपरिणाम के साथ कोई सम्बन्ध नहीं है। ऐसा मानने पर ही मृषा और मिश्र भाषा बोलने का किया हुआ निषेध उपपन्न होगा।
* 'दो न भासिज्ज' वचन का विरोध नहीं है . निश्चयनय * निश्चयनय :- अत एव. इति। आपकी यह बात ठीक नहीं है। आपकी (व्यवहारनय की) दृष्टि से मृषा और मिश्रभाषा उत्सर्ग से भले निषिद्ध हो मगर अपवाद से यानी शासनमालिन्य निवारण, रक्षा आदि निमित्त से शास्त्रोक्त विधि से मृषा और मिश्र भाषा बोलने पर भी हमने जो औत्सर्गिक कार्यकारणभाव आयुक्त भाषण और आराधकत्व के बीच बताया है, वह अबाधित रहता है, क्योंकि अपवाद से मृषा या मिश्र भाषा आयुक्त परिणाम से बोलने पर मृषा और मिश्र भाषा में आराधकत्व रहने से वे भाषाएँ परमार्थ
१ वे न भाषेत सर्वशः। २ चउण्हं खलु भासाणं, परिसंखाय पन्नवं । दुण्हं तु विणयं सिक्ख । इति शेषः पूर्वभागः।