________________
९० भाषारहस्यप्रकरणे - स्त.१. गा. १९
० दशवैकालिकवचनविरोधविलयः ० इत्यत्रैव धर्मविरोधित्वं विशेषणमित्यन्ये।
एवमनायुक्तं भाष्यमाणानां सर्वासामपि विराधकत्वेन मृषात्वमेव । तदुक्तं, "तेण परं असंजय-अविरय-अप्पडिहयअपच्चक्खायपावकम्मे सच्चं भासं भासंतो, मोसं वा, सच्चामोसं वा, असच्चामोसं वा भासं भासमाणे णो आराहए विराहए ति" | इत्थं हेतुमद्भावानपायादित्यर्थः । अयं भावः; व्याधादिना मृगादिपृच्छायां आयुक्तं मृषादिभाषणे यथावस्थितवस्तुतत्त्वप्ररूपणरूपाराधकत्वं शुद्धव्यवहारनयाभिप्रेतं नास्ति; शुद्धव्यवहारनयस्य निश्चयनयाऽगर्भितत्वात्, लोकव्यवहारपरत्वात् तथापि निश्चयनयाभिमतनिर्जरादिहेतुत्वरूपाराधकत्वस्याऽप्रत्यूहात्। 'चत्तारि भासज्जाताई आउत्तं भासमाणे आराहए' इति नैश्चयिक उत्सर्गोऽनपोदितो भवतीत्यर्थः ।
अत्राऽन्येषां समाधानप्रकारमाह - द्वे इत्यत्रैव धर्मविरोधित्वं विशेषणमिति। अत्र मूलप्रतौ 'धर्माविरोधित्वमिति पाठः स चाशुद्धो भाति । अन्येषामिदमाकूतं-विराधकत्वेन धर्मविरोधिन्यौ मृषामिश्रभाषे न भाषेत सर्वप्रकारैरिति । तेन सम्यक्प्रवचनमालिन्यादिरक्षणनिमित्तं मृषादिभाषणेऽपि न क्षतिः, धर्मविरोधित्वविशेषणविरहप्रयुक्तस्य विशिष्टाभावस्य निषेध्यकोटिबहिर्भूतत्वात्, विशिष्टे एव निषेधविषयतोपगमादिति। 'अन्ये' इत्यनेनाऽस्वरसः प्रदर्शितः। तद्बीजञ्चेदं सावद्यसत्याया विशेष्याभावप्रयुक्तविशिष्टाभावरूपाया निषेध्यकोटिबहिर्भूतत्वेन विराधकत्वं न स्यात्।
'तेण' इत्यादि । अत्र मलयगिरिसूरिभिरेवं व्याख्यातम् - "ततः = आयुक्तभाषमाणात् परोऽसंयतः = मनोवाक्कायसंयमविकला; अविरतो विरमति स्म विरतः न विरतोऽविरतः सावधव्यापारादनिवृत्तिमना इत्यर्थः । अत एव न प्रतिहतं से सत्य भाषा ही हैं, मृषा या मिश्र भाषारूप नहीं। अतः तब वे निषेध के विषय ही नहीं हैं, तब उनको उस अवस्था में आयुक्त परिणाम से बोलने में क्या विरोध है? कोई नहीं।
* दो न भासिज्ज - सूत्र में अन्य विद्वानों का अभिप्राय * 'दो न भासिज्ज सव्वसो' यह निषेध वचन कैसे उपपन्न हो सकता है? इस सम्बन्ध में विवरणकार अन्य विद्वानों का समाधानप्रकार=अभिप्राय बताते हैं। अन्य विद्वान मनीषियों का यह कहना है कि - 'दो न भासिज्ज' इत्यादि निषिद्ध वचन में 'दो' पद के विशेषणरूप में धर्मविरोधित्व लेना इष्ट है। तब निषेध वचन का अर्थ यह प्राप्त होता है कि - "धर्मविरोधी मृषा और मिश्रभाषा सर्व प्रकार से बोलना नहीं चाहिए"। अतः जब शासनरक्षा आदि के आलंबन से यतनापूर्वक शास्त्रकथित पद्धति के अनुसार साधु भगवंत मृषा और मिश्रभाषा बोलते हैं तब वे मृषा भाषा और मिश्र भाषा धर्मविरोधी नहीं हैं, बल्कि धर्मपोषक हैं-रक्षक हैं। अतः धर्मविरोधित्व विशेषण के अभाव से ही विशिष्ट भाषा का अभाव प्राप्त होने से तब वे मृषादि भाषा निषेध कुक्षि से बहिर्भूत हो जाती हैं, क्योंकि निषेध सिर्फ मृषा या मिश्र भाषा के भाषण में नहीं है, किन्तु धर्मविरुद्ध मृषा या मिश्र भाषा के भाषण में ही है।
* अनायुक्त परिणाम से बोलनेवाला विराधक है - प्रज्ञापनासूत्र * 'एवमनायुक्तं.' इति। जैसे आयुक्त परिणाम से सर्व भाषा को बोलने पर भी वे भाषाएँ आराधक होती हैं। अतएव सत्य होती है, वैसे ही अनायुक्त परिणाम से बोलने पर सर्व भाषाएँ विराधक होती हैं अतएव असत्य होती हैं। इस विषय में विवरणकार प्रज्ञापना सूत्र का ही वचन बताते हैं जिसका अर्थ है "आयुक्त हो कर बोलनेवाले से भिन्न अन्य असंयत, अविरत, अप्रतिहतपापकर्म यानी जिसने पश्चाताप-प्रायश्चित्त आदि से पापकर्म का नाश नहीं किया है और अप्रत्याख्यात पापकर्म अर्थात् जिसने भविष्यकाल में पाप न करने का पच्चक्खाण=नियम नहीं किया है ऐसे जीव चाहे वे सत्य भाषा बोले चाहे मृषा भाषा बोले, चाहे मिश्रभाषा बोले, चाहे असत्यामृषा भाषा बोले तो भी वे जीव आराधक नहीं होते हैं, किन्तु विराधक होते हैं।" प्रज्ञापना सूत्र का पर्यालोचन करने से यह ज्ञात होता है कि अनायुक्त परिणाम से बोलनेवाला विराधक होता है। अतः अनायुक्त परिणाम से बोली जानेवाली सर्व भाषाएँ भी विराधक ही हैं। विराधक होने से उन भाषाओं को असत्य ही कहना होगा न कि सत्य।
इत्थं च' इति । यहाँ तक के विचार-विमर्श से यह सिद्ध हुआ कि आयुक्त परिणाम से बोली जानेवाली सर्व भाषाएँ आराधक १ अत्र कप्रतौ मुद्रितप्रतौ च 'धर्माविरोधित्वमिति पाठः। स चाशुद्धो भाति । २ ततः परोऽसंयताविरतातिहताप्रत्याख्यातपापकर्मा सत्यां भाषां भाषमाणो मृषां वा सत्यामृषां वा भाषमाणो नोआराधकः विराधक इति ।