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८८ भाषारहस्यप्रकरणे - स्त.१. गा. १९
० समकालीनकार्यकारणभावोपपादनम् ० त्वलाभादौत्सर्गिक'-हेतु-हेतुमद्भावसिद्धिः। अत्र चाऽऽयुक्तमिति पदं सम्यक्प्रवचनमालिन्यादिरक्षणपरतयेत्यर्थकम्।
यदपि अन्यथासिद्धिशून्यत्वे सति कार्याव्यवहितप्राकक्षणनियतवृत्तिजातीयत्वं कारणत्वम् । तेनाऽरण्यस्थदण्डेऽपि कारणत्वोपपत्तिरिति नैयायिकमतं, तन्न सम्यक्, गौरवाद्, व्यभिचाराच्च । अस्माभिस्तत्र निश्चयनयमाश्रित्य लाघवात् "अनन्यथासिद्धत्वे सति कार्यक्षणनियतवृत्तित्वस्यैवाभ्युपगमात्, तेन समानकालभाविनोः प्रदीपप्रकाशयोर्न हेतुहेतुमद्भावासिद्धिरिति। न च प्रदीपप्रकाशयोरपि पूर्वोत्तरभाव एवाभ्युपगम्यते न समानकालीनत्वमिति वाच्यम् मानाभावात्, प्रदीपप्रकाशयोः समानकालीनत्वस्याऽऽगमप्रमाणसिद्धत्वाच्च। तदुक्तमावश्यकनिर्युक्तौ-'कारणकज्जविभागो दीवपगासाण जुगवं जम्मेवित्ति। (आ.नि. ११५६) न च प्रागभावेऽव्याप्तिरिति वाच्यम् निश्चयनयमतेन प्रागभावे मानाभावात्, सामान्यलक्षणायां दीधितिकारेणाऽपि विस्तरतो निरस्तत्वाच्च। किञ्च प्रतियोगिप्रत्यक्षोत्पत्तिदशायामेव तदभावप्रत्यक्षं दुर्वारम्, तत्पूर्वक्षणे प्रतिबन्धकविरहरूपकारणस्य सत्त्वात्, प्रतियोग्युपलम्भकसामग्र्या अपि दोषत्वोपगमे गौरवात्, मानाभावाच्चेति दिक्। .
. .. 'आयुक्तं भाषमाण आराधक' इत्यत्रानश्प्रत्ययेनाऽनयोस्समानकालीनत्वं लभ्यते। ततस्तयोः कार्यकारणभावसिद्धिरिति भावः। औत्सर्गिकहेतुहेतुमद्भावसिद्धिः = व्यापककार्यकारणभावनिश्चय इत्यर्थः अव्यभिचारिकार्यकारणभाव इति यावत्, न तु बलवद्बाधकापोद्यहेतुहेतुमद्भावसिद्धिः नैश्चयिकहेतुहेतुमद्भावस्यानपोद्यत्वात्। _ अत्रापीदं ध्येयम्, "सविशेषणौ हि विधिनिषेधौ विशेषणमुपसंक्रामतः सति विशेष्यबाध' इतिन्यायेन शुद्धनिश्चयनयस्त्वायुक्तपरिणामाराधनक्रिययोरेव हेतुहेतुमद्भावमङ्गीकरोति न त्वायुक्तभाषणाराधनाक्रिययोर्व्यभिचारात्, भाषणं विनाऽपि आयुक्तपरिणामेनैवाराधनाभ्युपगमात्। तदुक्तं प्रकृतप्रकरणकारेणैव सामाचारीप्रकरणे-" विशिष्टविधेर्विशेष्ये बाधकावतारे विशेषणमात्र एव पर्यवसानमिति निश्चयनयतात्पर्याद्विशेषणहेतुत्वाऽऽवश्यकत्वेनैवोपपत्तौ विशिष्टहेतुत्वकल्पनाऽनौचित्यादिति" (सा.प्र.गा.५७वृत्तौ)। तथाप्यत्र चतसृणां भाषाणां सत्यान्तर्भावसाधनार्थं व्यवहारोपगृहीतनिश्चयनयस्य समानकालीनायुक्तभाषणाराधनाक्रिययोरौत्सर्गिकहेतुहेतुमद्भावप्रतिपादनमिति न दोषः कश्चिदिति विभावनीयं सुधीभिः ।
नन्वेवं सत्युपयोगपूर्वकं क्रोधादिना मृषाभाषणेऽप्याराधकत्वं प्रसज्येतेत्याशङ्कायामाह- 'अत्र चेति। 'सम्यक्आराधक है', इस वाक्य से आयुक्त परिणाम से बोलना और आराधना - इन समकालीन दो क्रियाओं में औत्सर्गिक कार्यकारणभाव का निश्चय होता है। अर्थात् आयुक्त परिणाम से बोलना यह आराधना का कारण है और आराधना आयुक्तपरिणाम से बोलने का कार्य है। भाषा सत्य हो या असत्य हो, इसके साथ आराधना का कोई संबंध नहीं है। आराधना का संबंध है आयुक्त परिणाम से बोलने के साथ। इन दोनों के बीच जो कार्य-कारणभाव है, वह औत्सर्गिक है, व्यापक है, अव्यभिचारी है - आपवादिक नहीं है या कादाचित्क नहीं है या व्यभिचारी भी नहीं है। निश्चयनय से कार्य-कारणभाव समकालीन ही होता है, पूर्वोत्तरभाव से नहीं। इस बात की विस्तृत चर्चा विशेषावश्यक भाष्य के निह्नववाद प्रकरण में द्रष्टव्य है।
शंका :- यदि आप कहें कि आयुक्त परिणाम से सब भाषा बोलने पर वक्ता आराधक ही होगा, तब तो क्रोध, लोभ आदि के उपयोगपूर्वक जब वक्ता मृषा भाषा बोलेगा तब भी - 'वह आराधक है' - यह स्वीकार करने की आपत्ति होगी। इसलिए आयुक्त परिणाम से बोलना ही आराधकत्व का प्रयोजक नहीं है किन्तु सत्य बोलना, अविसंवादी बोलना यही आराधकत्व का प्रयोजक है।
* आयुक्त परिणाम का अर्थ * समाधान :- 'अत्र च.' इति । जनाब! हमने इतने साल धूप में बाल पकाए नहीं है। आयुक्त परिणाम का अर्थ सिर्फ उपयोगपूर्वक बोलना यह नहीं है, मगर सम्यक रूप से यानी शास्त्रविहितपद्धति से प्रवचन = जिनशासन की अपभ्राजना, मालिन्य को दूर करने के प्रयोजन से बोलना यह अर्थ है। अर्थात् शासनरक्षा, आत्मरक्षा, संयमरक्षा, संयमपालन आदि निमित्त से शास्त्रोक्त विधि के
१ अत्र मुद्रितप्रतौ "...र्गिकहेतुमद्भावसिद्धिः" इति अशुद्धः पाठः ।