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८६ भाषारहस्यप्रकरणे - स्त.१. गा. १९
० आयुक्तत्वे सति आराधकत्वम ० "निच्छयओ सकयं चिय" (अध्या. प. गा. ४८) इत्यादिना महता प्रबन्धेन 'स्वोपज्ञाध्यात्ममतपरीक्षायामिति नेह प्रतन्यते। ___ अत्रैव हेतुमाह - 'सत्यान्तर्भाव एव यद् = यस्मात् कारणात्, चतसृणां भाषाणामाराधकत्वम् । अयं भावः "'इच्चेयाइं भंते! चत्तारि हेतुत्वेन विराधकत्वस्याऽव्याहतत्वात्; अशुभाध्यवसायरूपेऽशुभसङ्कल्पे विराधकत्वाभिधानं युक्तमेव । अनायुक्तपरिणामेनैवाऽवश्यक्लृप्तेनाऽशुभकर्मबन्धसम्भवेऽशुभकर्मबन्धं प्रति भाषाया अन्यथासिद्धत्वस्य स्फुटत्वेनाऽशुभकर्मबन्धहेतुत्वरूपविराधकत्वप्रतिपादनस्याश्रद्धेयत्वादिति। ___ 'निच्छयओ' इति। अध्यात्ममतपरीक्षायामियं गाथा-"निच्छयओ सकयं चिय सव्वं, णो परकयं हवे वत्थु । परिणामावंझत्ता, ण य वंझं दाणहरणाइ।।" इत्येवं वर्तते । तत्र चानेनैव विवरणकारेण - "निश्चयतः सव सुखदुःखादिकं पुण्यपापरूपस्वपरिणामकृतमेव न तु परकृतं, शुभाशुभपरिणामप्रसूतसुख-दुःखहेतु-पुण्यपापविपाककालेऽवर्जनीयसन्निधितया स्थितानां बाह्यनिमित्तानामुपचारमात्रेणैव हेतुत्वादि'त्यादिकं व्याख्यातम् । अधिकं ततोऽवसेयम् ।
अत्रैव = 'निश्चयत आराधकत्वानाराधकत्वाभ्यां च द्विविधैव भाषे'त्यत्रैव । आराधकत्वमिति। एतच्च विराधकत्वस्योपलक्षणम, उपपद्यत इति शेषः । अत्र निश्चयनयेनैवमापादनं क्रियते - यदि चतसणां भाषाणां सत्यान्तर्भावो न स्यात्तर्हि तासामाराधकत्वं न स्यादिति। अत्र विवादास्पदीभूता सर्वभाषा सत्यान्तर्भूता आराधकत्वादि'त्येवं प्रयोगो द्रष्टव्यः। 'अयं भाव' 'इत्ययमुपक्रमः, अस्य चोपसंहारः 'इति पर्यवसितमि'त्यत्र द्रष्टव्यः । ननु चतसृणां भाषाणामाराधकत्वं कुतः सिद्धमित्यारेकायां प्रज्ञापनासूत्रस्य 'इच्चेयाई' इति पाठं प्रदर्शयति । अत्रानुमानप्रयोगः "प्रकृताः सर्वा भाषा आराधन्य आराधकवक्तृजन्यत्वात्" एवं द्रष्टव्यः। ननु सर्वभाषाया वक्तर्याराधकत्वमपि कुतः? इत्याह - "आयुक्तमिति। क्रियाविशेषणञ्चैतत्। अत्र च प्रयोग एवं बोध्यः, सर्वभाषाया विवक्षितो वक्ता आराधक आयुक्तं भाषमाणत्वात् आराधकत्वेनोपदिष्टत्वाद्वेति।।
वस्तुतस्तु मृषात्वादि सत्यत्वसमानाधिकरणं न वा? इति विप्रतिपत्तिः । अत्र विधिकोटिः निश्चयनयस्य निषेधकोटिश्च व्यवहारनयस्य । निश्चयनयेन विवादास्पदीभूतमृषात्वादि सत्यत्वसमानाधिकरणं, आराधकभाषावृत्तित्त्वात्, क्या बोलना चाहिए" इत्यादि उपयोग से शून्य होकर बोलता है, तब उसका अनायुक्त परिणाम अर्थात् अनुपयोग ही अशुभकर्मबंध का निमित्त होता है। उसकी भाषा चाहे संवादी हो या विसंवादी, मगर अनुपयोग से बोलने से उसको पापकर्म का बंध ही होगा। पाप कर्म का बंध कराने से अनुपयोग ही विराधक है। इसलिए वहाँ भी पापकर्मबंध में भाषा कारण नहीं है, मगर अनायुक्त परिणामरूप अध्यवसाय, जो संकल्प शब्द से अभिप्रेत है, ही पापकर्मबंध का हेतु है। अनायुक्त परिणाम से ही अशुभकर्मबंधरूप कार्य की उत्पत्ति होने से अशुभकर्मबंधरूप कार्य के प्रति भाषा उपक्षीण = असमर्थ हो जायेगी। अतः पूर्व में हमने जो कहा था कि 'भाषा के जनक संकल्प में ही परमार्थ से आराधकत्व या विराधकत्व है' वह ठीक ही है। परमार्थ से संकल्प जन्य भाषा में आराधकत्व आदि की कल्पना करना अयुक्त है। हो गया दूध का दूध, पानी का पानी। इस विषय का 'निच्छयओ सकयं' इत्यादि गाथा से, इस ग्रंथ के रचयिता उपाध्याय श्रीयशोविजयजी महाराज ने ही अध्यात्ममतपरीक्षा नाम के स्वरचित ग्रंथ में विस्तार से निरूपण किया है। इसलिए यहाँ निश्चयनय के मन्तव्य की विस्तार से प्ररूपणा ग्रंथकार ने नहीं की है। इस तरह अर्थतः जिज्ञासुवर्ग को अध्यात्ममतपरीक्षा ग्रंथ देखने की सूचना ग्रंथकार करते हैं।
*निश्चयनय से भाषा के केवल दो भेद है * 'अत्रैव' इति । पूर्व में जो बताया गया है कि निश्चयनय के अभिप्राय से आराधकत्व और अनाराधकत्व की दृष्टि से भाषा के दो ही भेद हैं। इस बात की सिद्धि के लिए प्रकरणकार गाथा के पश्चार्द्ध से हेतु का प्रतिपादन करते हैं। निश्चय से भाषा के दो ही भेद हैं अर्थात् अन्य भाषाओं का सत्य या असत्यभाषा में समावेश हो जाता है। यहाँ यह शंका करने की कोई आवश्यकता नहीं
१ इत्येनानि चत्वारि भाषाजातानि भाषमाणः किमाराधकः विराधकः? गौतम ! इत्येतानि चत्वारि भाषाजातानि आयुक्तं भाषमाणः आराधकः, नो विराधकः ।