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८४ भाषारहस्यप्रकरणे
स्त. १. गा. १९
● भाषायाः कर्मबन्धादिकं प्रत्यन्यथासिद्धत्वम् ०
वस्तुतो भाषानिमित्तयोः शुभाशुभसङ्कल्पयोरेवाराधकत्वं विराधकत्वं वा न तु भाषायाः । विराधकत्वानाम्। 'परिभाषैवे 'ति । शरणमितिशेषः । प्रतिबन्द्या समाधत्ते 'निश्चयत' इति । आराधकत्वानाराधकत्वाभ्यां=आराधकत्वविराधकत्वाभ्याम् । नञो विरोधार्थकत्वात् । तदुक्तं - सादृश्यं तदभावश्च तदन्यत्वं तदल्पता । अप्राशस्त्यं विरोधश्च नञर्थाः षट् प्रकीर्तिता ।। अयमाशयो यथा आराधकत्वादिभिश्चतुर्भिरुपाधिभिर्व्यवहारनयेन भाषायाश्चतुर्द्धा विभागः क्रियते तथैकाखण्डामिश्रितवस्तुग्राहिणा निश्चयनयेनाऽऽराधकत्वानाराधकत्वोपाधिभ्यां द्विधा विभागः क्रियते, तन्मते भाषात्वसाक्षाद्व्याप्यधर्मत्वस्य तयोरेव वृत्तित्वात् ।
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नन्वेवं सत्यसत्यामृषाया असत्यत्वमेव स्यात्, तस्या अनाराधकविराधकत्वेनाऽऽराधकत्वव्यतिरेकनिश्चयादनाराधकत्वस्यैव सत्त्वादित्याशङ्कायामाह - 'वस्तुत' इति । अथवा भाषाया भाषावर्गणापुद्गलद्रव्यनिष्पन्नत्वेन जडत्वात्कथमाराधकत्वादिकमित्याशङ्कायामाह 'वस्तुत' इति । अथवा निश्चयनयेन प्रतिबन्धाऽपि परिभाषासमाश्रयणं कथं युक्तं ? इत्यत आह 'वस्तुत' इति । अथवा देशाराधकविराधकत्वानाराधकविराधकत्वयोः कथमस्वीकारो निश्चयनयमते? इत्याशङ्कायामाह 'वस्तुत' इति । वेति । वाकारो व्यवस्थायाम् । निश्चयनयः "तद्धेतोरस्तु किं तेने 'तिन्यायेन भाषाहेतौ शुभसङ्कल्पे आराधकत्वं पुण्यबंध - निर्जराहेतुत्वमशुभसङ्कल्पे च विराधकत्वमशुभकर्मबन्धहेतुत्वं मन्यते, निश्चयनयेन सङ्कल्पस्यैव प्रमाणत्वान्न तु भाषायाः । अत एव "अन्नत्थ निवडिए वंजणंमि, जो खलु मणोगओ भावो । तं खलु पच्चक्खाणं, न पमाणं वंजणच्छलणा ।। ( आ.नि. १५९२ ) इत्यावश्यकनिर्युक्तावुक्तं सङ्गच्छते । व्यवहारनयस्तु कार्ये कारणोपचाराद् भाषायामाराधकत्वादिकं प्रधानं मन्यते । निश्चयनयस्तु गौणं मन्यत इति विवेकः । अतो नासत्यामृषायाः सत्यत्वमेवासत्यत्वमेव वा किन्तु तत्प्रयोजकसङ्कल्पानुसारेण निश्चयनयेन तत्र गौणं सत्यत्वआराधकत्व, विराधकत्व आदि की अपेक्षा से ही भाषा का चतुर्धा विभाग करते हैं न? आखिर तो आपके लिए भी आराधकत्व आदि की अपेक्षा करनेवाली परिभाषा ही शरण है न ? इस तरह तो हमारी = निश्चयनय की दृष्टि से भी भाषा के दो विभाग का समर्थन हो सकता है। देखिये, जैसे आप कहते हो कि "जिस भाषा में आराधकत्व होगा वह भाषा सत्य कहलायेगी, जिसमें विराधकत्व होगा वह असत्य भाषा कहलायेगी, जिस भाषा में देश से आराधकत्व और देश अंश से विराधकत्व होगा वह मिश्र भाषा कहलायेगी और जिस भाषा में न तो आराधकत्व है और न तो विराधकत्व है वह भाषा अनुभय= असत्यामृषा भाषा कहलायेगी" -वैसे हम = निश्चयनयवादी यह कहेंगे कि - "जिस भाषा में आराधकत्व होगा वह सत्य भाषा कहलायेगी और जिस भाषा में विराधकत्व होगा वह भाषा असत्य भाषा कहलायेगी। इस तरह से भाषा के दो ही भेद = प्रकार हैं।" यहाँ यह शंका कि - "तब मिश्र भाषा का समावेश सत्य या असत्य में नहीं हो सकेगा - " करना आवश्यक नहीं है, क्योंकि निश्चयनय की दृष्टि से भाषा में अंशतः भी विराधकत्व हो तब वह भाषा आराधक नहीं कहलायेगी। अतः उस भाषा में असत्य भाषा का व्यवहार होगा।
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* भाषा के निमित्त संकल्प में ही आराधकत्व या विराधकत्व है - निश्चयनय
'वस्तुतः' इति। अभी तक जो बात बताई थी वह तो अभ्युपगमवाद से बताई थी। मगर वास्तविकता तो यह है कि भाषा में आराधकत्व या विराधकत्व है ही नहीं, क्योंकि भाषा तो भाषावर्गणा के पुद्गलद्रव्यों से निष्पन्न होने से जडरूप ही है। अतः उसमें आराधकत्व या विराधकत्व की संभावना ही कैसे हो सकती है? मगर भाषा का निमित्तभूत जो संकल्प है, वही आराधक या विराधक है, भाषा नहीं। जब भाषा का हेतुभूत संकल्प शुभ होगा तब वही शुभ संकल्प आराधक होगा और जब भाषा का हेतुभूत संकल्प अशुभ होगा तब वह अशुभ संकल्प विराधक होगा। हाँ, उपचार से भाषा को आराधक या विराधक कहना हो तो कह सकते हैं। अर्थात् जिस भाषा का निमित शुभ संकल्प होगा वह भाषा उपचार से आराधक है, अतएव सत्य है और जिस भाषा का निमित्त अशुभ संकल्प होगा वह भाषा उपचार से विराधनी है, अतएव असत्य है । भाषा का निमित्तभूत एक ही संकल्प शुभाशुभ नहीं हो सकता है, अतः संकल्प में देश आराधकत्व और देश विराधकत्व नहीं है। इसी सबब भाषा में उपचार से भी मिश्रत्व नहीं है। वैसे भाषा का निमित्त संकल्प शुभ न हो और अशुभ भी न हो ऐसा भी नहीं हो सकता है। इसलिए संकल्प में नो- आराधकत्व और नोविराधकत्व नहीं है। अतएव भाषा में उपचार से भी अनुभयत्व = असत्यामृषात्व नहीं है।