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८२ भाषारहस्यप्रकरणे - स्त. १. गा. १८
० स्त्र्यादिलक्षणप्रतिपादनम् ० व्यवहारानुगतं स्त्र्यादिलक्षणमादाय तस्या असत्यत्वेऽपि वेदानुगतं तदादाय सत्यत्वस्य युक्तत्वाच्च प्रागुक्तमेव युक्तमित्यपि द्रष्टव्यम् ।।१८।। एवं व्यतिरेकमुखेन प्रतीतिदाढार्थं सत्यत्वाभिधानादित्यर्थः । ___ ननु स्त्रीप्रज्ञापनी नाम स्त्रीलक्षणप्रतिपादिका यथा, "योनिर्मृदुत्वमस्थैय मुग्धता क्लीबता स्तनौ। पुंस्कामितेति लिङ्गानि सप्त स्त्रीत्वे प्रचक्षते ।" या च पुम्प्रज्ञापनी = पुरुषलक्षणप्रतिपादिका - 'मेहनं खरता दाढ्य, शौण्डीर्य श्मश्रु धृष्टता। स्त्रीकामितेति लिङ्गानि सप्त पुंस्त्वे प्रचक्षते।।' इत्यादिरूपा, या च नपुंसकप्रज्ञापनी = नपुंसकलक्षणप्रतिपादिका यथोक्तं निशीथभाष्य - "महिलासहावो सरवण्णभेओ, मिढं महंतं मउया य वाणी। ससद्दयं मुत्तमफेणयं च एआणि छप्पंडगलक्खणाणि || (नि. भा. ३५६७) तथा "न मूत्रं फेनिलं यस्य विष्टा चाप्सु निमज्जति। मेद्रं चोन्मादशुक्राभ्यां हीनः क्लीबः स उच्यते।।" इत्यादिरूपा। स्त्रीप्रभृतिलिङ्गरूपाः खट्वाघटकुड्यादयः शब्दास्तु शाब्दव्यवहारबलादन्यत्रापि खट्वादिष्वर्थेषु प्रवर्तन्ते, न च तत्र यथोक्तानि स्त्र्यादिलक्षणानि सन्ति। अतोऽव्यापकत्वात्तस्याः स्त्र्यादिप्रज्ञापन्या असत्यत्वात्कथं नाम तत्र सत्यत्वप्रतिपादनं सङ्गच्छते? इत्याशङ्कायामाह 'शाब्दे'ति । 'अपि'शब्दोऽभ्युपगमपूव कोट्यन्तरप्रतिपादनार्थः। 'वेदानुगतमिति 'योनिमृदुत्वमस्थैर्यमि'त्यादिरूपायाः स्त्र्यादिप्रज्ञापन्या वेदानुगतस्त्र्यादिलक्षणप्रतिपादकत्वेन यथावस्थितार्थाभिधानाद् वेदानुगतं तल्लक्षणमादाय सत्यत्वस्य युक्तत्वादिति भावः । स्वेष्टसाधनार्थमाह- 'प्रागुक्तमिति' । "निश्चयनयेन चरमभाषाद्वयं पूर्वभाषाद्वयेऽन्तर्भावितमि"ति प्रागुक्तम् । 'एव'शब्देन चरमभाषाद्वयस्य सत्यासत्यान्यतरत्वविप्रतिपत्तिर्व्यवच्छिन्नेति ध्येयम् ।।१८।। है। प्रज्ञापना सूत्र में ही भाषापद में "जा य इत्थि पण्णवणी' इत्यादिरूप से 'प्रज्ञापनी भाषा मृषा नहीं है किन्तु सत्य भाषा है' यह प्रतिपादन किया गया है। अतः प्रज्ञापनी भाषा भी उपलक्षण से ग्राह्य है। आशय यह है कि 'स्त्री आदि आज्ञापनी भाषा के ग्रहण से उपलक्षण से स्त्रीआदिप्रज्ञापनीभाषा भी सत्यभाषा में समाविष्ट होती है' यह सिद्ध होता है, क्योंकि असत्यामृषाभाषा के भेद में प्रविष्ट होने पर भी प्रज्ञापनी भाषा में सत्यत्व का प्रतिपादन प्रज्ञापना सूत्र में विस्तार से किया गया है।
शंका :- स्त्रीप्रज्ञापनी, पुरुषप्रज्ञापनी, नपुंसकप्रज्ञापनी - इन भाषाओं को सत्य भाषा कहना कैसे उचित होगा? क्योंकि शाब्द व्यवहार अनुगत स्त्रीत्वादि के लक्षण का ग्रहण करने पर यह भाषा असत्य ही है। आशय यह है कि स्त्रीप्रज्ञापनी भाषा का अर्थ है स्त्री के लक्षण का प्रतिपादन करनेवाली भाषा जैसे कि - 'योनि, मृदुता, अस्थैर्य आदि स्त्री के लक्षण हैं'। पुरुषप्रज्ञापनी अर्थात् पुरुषके लक्षण का प्रतिपादन करनेवाली भाषा जैसे कि - 'दाढी, मुछ, द्रढता ये सब पुरुष के चिह्न हैं'। नपुंसकप्रज्ञापनी भाषा वह होती है जो नपुंसक के लक्षण का प्रतिपादन करती हो जैसे कि - "जिसके पेसाब में बुदबुदे नहीं होते हैं और जिसकी विष्ठा पानी में डूब जाती है इत्यादि नपुंसक के लक्षण हैं"। मगर स्त्रीलिंग का प्रयोग तो जिसमें 'योनि, मृदुता "आदि चिह्न नहीं होते हैं उसमें भी होता है। जैसे कि पाठशाला आदि शब्द, जो स्त्रीलिंगरूप होते हैं, योनि-मृदुता आदि स्त्री चिह्न जिसमें नहीं हैं ऐसी पाठशाला में शाब्द व्यवहार के बल से प्रवर्तमान होते हैं। स्त्रीलिंगवाले शब्द के विषय होने पर भी पाठशाला आदि में स्त्री के लिंग नहीं हैं, तब तो स्त्री के लक्षण का प्रतिपादन करनेवाली पूर्वोक्त स्त्रीप्रज्ञापनीभाषा असत्य ही होगी न कि सत्य। वैसे पुरुषप्रज्ञापनी, नपुंसकप्रज्ञापनी भाषा (शब्द) भी सत्य नहीं हैं, क्योंकि जिसमें पुल्लिंग-नपुंसक लिंग शब्द का प्रयोग होता है उन सबमें पुरुषप्रज्ञापनी आदि भाषा से कथित पुरुष आदि के लक्षण नहीं होते हैं। अतः अव्यापकरूप से = संकुचितरूप से स्त्री आदि के लक्षण का प्रतिपादन करनेवाली स्त्रीप्रज्ञापनी आदि भाषा सत्य नहीं है, किन्तु मृषा ही है।
* वेदानुगतलक्षणप्ररूपण की अपेक्षा स्त्री प्रज्ञापनी आदि भाषा सत्य है * समाधान :- 'शाब्दव्यवहार.' इति । स्त्रीलिंगवाले शब्दों की प्रवृत्ति व्यवहार जिसमें स्त्री आदि के लक्षण नहीं होते हैं उसमें भी होने से स्त्री आदि के लक्षण की प्रतिपादक = स्त्रीप्रज्ञापनी भाषा को सर्वथा मृषाभाषा कहना ठीक नहीं है क्योंकि वेदानुगत लक्षण की अपेक्षा से ये सत्य ही हैं। तात्पर्य यह है कि "योनि, मृदुता आदि स्त्री के लक्षण है" इत्यादिरूप से स्त्री के लक्षण की प्रतिपादक भाषा यदि - 'जहाँ जहाँ स्त्रीलिंगवाले शब्द का प्रयोग होता है वहाँ वहाँ ये लक्षण होते हैं' - इस अभिप्राय से बोली जाय, तब तो