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* इतिनपदार्थप्रदर्शनम * अथाऽऽराधकत्व - विराघकत्व-देशाराघकविराधकत्वानाराधकविराधकत्वोपाधिभिश्चतुर्द्धव विभागो युक्तो न तु द्विधेत्यत आह - आराहणं पडुच्च वि परिभासा चेव चउविहविभागे। सच्चंतब्भावे च्चिय, चउण्ह आराहगत्तं जं ।।१९।। आराधनां प्रतीत्याऽपि चतुर्विधविभागे परिभाषैव । निश्चयतस्त्वाराधकत्वानाराधकत्वाभ्यां च द्विविधैव भाषा।
'अथेति। ननु भाषाविभाजकोपाधयश्चत्वारः, अतो भाषायाश्चतुर्की विभागो युक्तः, विभागस्य विभाजकोपाध्यधीनत्वात्। द्विधा विभागकरणे तु भाषाविभाजकोपाध्यव्यापकत्वान्न्यूनता दोष इत्याक्षेपो व्यवहारनयस्य निश्चयनयं प्रति । द्वेधेति । अत्र इतिशब्दः पदार्थविपर्यासे। तदुक्तममरचंद्रेण शब्दानुशासनबृहदवृत्त्यवचूर्णी - "इति-एवमर्थे १, आद्येऽर्थे २, हेत्वर्थे ३, प्रकारार्थे ४, शब्दप्रादुर्भावे ५, ग्रन्थसमाप्तौ ६ पदार्थविपर्यासादौ" (श.बृ.अ. १।१।३१) इति । अतः = "द्विधा भाषाविभागो न युक्त" इतिपदार्थविपर्यासाद्धेतोः ।
आराधनां = भाषानिष्ठाराधकत्वमित्यर्थः। एतच्चोपलक्षणं भाषावृत्तिविराधकत्व-देशाराधकविराधकत्वानाराधकपाठशाला आदि में, जिसमें यथोक्त स्त्री के लक्षण नहीं होते हैं, स्त्रीलिंगवाले "पाठशाला" आदि शब्दों का प्रयोग होने से अव्याप्ति आने से स्त्रीप्रज्ञापनी भाषा मृषा हो सकती है। वैसे ही पुरुष प्रज्ञापनी, नपुंसक प्रज्ञापनी भाषा में भी समझना चाहिए। मगर 'योनि, मृदुता' इत्यादिरूप से जो स्त्री के लक्षण का प्रतिपादन किया गया है वह पूर्वोक्त विवक्षा से नहीं किया गया है किन्तु वेदानुगत लक्षण की अपेक्षा से किया गया है। अर्थात् "योनि, मृदुता 'आदि लक्षण वहाँ होते हैं जहाँ स्त्रीवेद का प्रधानरूप से उदय होता है। इस विवक्षा से स्त्रीप्रज्ञापनी = स्त्रीलक्षण की प्रतिपादक भाषा मृषा नहीं है, किन्तु सत्य ही है, क्योंकि स्त्रीवेद का प्रधानरूप से जहाँ उदय होता है, वहाँ यथोक्त स्त्री लक्षण होते हैं। इस तरह पुरुषप्रज्ञापनी, नपुंसकप्रज्ञापनी भाषा में भी वेदानुगत पुरुषादि के लक्षण के प्रतिपादन करने का तात्पर्य होने से सत्यत्व अव्याहत है। जिस तरह आज्ञापनी, प्रज्ञापनी भाषा में, जो असत्यामृषा भाषाओं में परिगणित हैं, सत्यत्व रहता है, इस तरह सब असत्यामृषाभाषा में सत्यत्व भी रह सकता है और मिश्रभाषा में असत्यत्व रह सकता है, इसमें कोई विरोध नहीं है। अतः - "निश्चयनय से मिश्रभाषा और असत्यामृषा भाषा का प्रथम दो भाषा में समावेश होता है" - ऐसा जो हमने पूर्व में कहा था वह युक्तियुक्त और आगमसंगत भी है-यह जानना चाहिए।।१८।।
* भाषा के भेद चार है - व्यवहारनय * शंका :- आप मिश्र भाषा और अनुभय भाषा = असत्यामृषा भाषा का प्रथम दो भाषाओं में समावेश कर के भाषा के दो प्रकार मानते हैं, वह मुनासिब नहीं है, क्योंकि विभाग की नियामक उपाधि होती है। जिन चीजों का विभाग करना अभिप्रेत होता है उन चीजों में रहे हुए अनुगत और परस्पर असंकीर्ण विलक्षणधर्म को विभाजक धर्म यानी विभागकउपाधि कहते हैं। जैसे कि जीवत्वअजीवत्व आदि पदार्थविभाजकउपाधि के ९ प्रकार होने से पदार्थ तत्त्व के नौ भेद होते हैं। प्रस्तुत में भी भाषाविभाजक धर्म के चार भेद हैं आराधकत्व, विराधकत्व, देशाराधकविराधकत्व और अनाराधकविराधकत्व । भाषाविभाजक उपाधि के चार भेद होने से भाषा का चार प्रकार = भेद सत्य, असत्य, मिश्र और अनुभय (असत्यामृषा) मानने ही तर्कसंगत हैं। भाषा के सत्य और असत्य दो ही भेद मानने में मिश्र भाषा और अनुभयभाषा का समावेश न होने से न्यूनता नाम का दोष आयेगा। अतः भाषा का द्विधा विभाग माननेवाला निश्चयनय भ्रान्त है।
इस प्रकार व्यवहारनय जब निश्चय का खंडन करने के लिए कमर कसता है, तब निश्चयनय का वक्तव्य क्या है? यह १९वीं गाथा से प्रकरणकार बताते हैं।
गाथार्थ :- आराधना का अवलंबन कर के भाषा के चार भेद मानने में भी परिभाषा ही नियामक है। अतएव भाषा के चार भेदों का आराधकत्व की अपेक्षा से सत्यभाषा में अंतर्भाव ही किया है।१९।
भाषा के दो भेद है - निश्चयनय विवरणार्थ :- वाह! अपनी गली में कुत्ता भी शेर! हे व्यवहारनय के शागिर्द! आप भी भाषा के चार भेद को बताते हैं, तब १ आराधनां प्रतीत्यापि परिभाषा चैव चतुर्विधविभागे। सत्याऽन्तर्भाव एव चतसृणामाराधकत्वं यत् ।।१७।।