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* प्रज्ञापनालापकप्रदर्शनम् * . चाराधकत्वानाराधकत्वाभ्यामपि सत्यासत्ये द्वे एव भाषे निश्चयतः पर्यवसन्ने इति ।।१९।। = मिथ्यादुष्कृतदान-प्रायश्चित्तप्रतिपत्त्यादिना न नाशितं अतीतं तथा न प्रत्याख्यातं = भूयोऽकरणतया निषिद्धमनागतं पापकर्म येनासावप्रतिहताऽप्रत्याख्यातपापकर्मा।" पूर्वं निश्चयतस्त्वित्यादिनोपक्रान्त'इत्थं चेत्यादिनोपसंहरति । व्यक्तमेवेति ने विवियते।।।१९।। ___ 'सा न इति। युक्तेति शेषः। व्यवहारनयाभिमतभाषाचतुर्विधत्वं तुच्छं वासनामात्रसमुत्थप्ररूपणविषयत्वात् 'एष वन्ध्यापुत्रो याती'त्यादिप्ररूपणविषयवदिति मतिर्न युक्तेत्याशयः। अत्र हेतुमाह 'यत' इति। अत्र प्रयोगस्त्वेवं - 'व्यवहारनयाभिमतभाषाचतुर्विधत्वं न तुच्छं श्रुतप्रमाणसिद्धत्वात्; भाषाद्वैविध्यवत्" । ननु श्रुतप्रमाणसिद्धत्वमपि कुतः? "भाषाचतुर्विधत्वं श्रुतप्रमाणसिद्धं व्यवहारनयाभिमतत्वादित्यनेन गृहाण । श्रुतप्रमाणस्य व्यवहारनिश्चयोभयघटितत्वेन
ताव्यापकत्वात्ततस्तत्सिद्धिरित्याशयः। खट्वेति। अष्टकाष्ठादिनिर्मितशयनसाधनं खट्वा । खट्वादिष्ववयवशो निभालनेऽपि योनिमृदुत्वादीनां स्त्र्यादिलक्षणानामसत्त्वेन तत्र स्त्रीत्वादीनि तुच्छानीत्याशङकां निरस्यति 'न तच्छानीति। न कल्पितानीत्यर्थः। अत्र हेतुमाह 'लिङगेति। अत्र प्रयोगस्त्वेवं - "खटवादिनिष्ठस्त्रीत्वादीनी न तुच्छानि लिङ्गानुशासननियन्त्रितसङ्केतविशेषविषयकशब्दाभिधेयत्वात्।
ननु तादृशशब्दाभिधेयत्वेऽपि योनिमृदुत्वादिस्त्र्यादिलक्षणानामसत्त्वेन कथं वास्तवत्वमित्यारेकायामाहस्त्र्यादिपादानां = स्त्रीत्वादिवाचकपदानां; नानार्थकत्वात् = विभिन्नार्थकत्वात् । अत्र खट्वादिषु 'स्त्रीत्वादिवाचकखटवादिपदानां न योन्यादिमत्त्वोपलक्षितप्रधानस्य॒यादिवेदमोहनीयविपाकोदयरूपस्त्रीत्वाद्यर्थकत्वं किन्तु लिङगानुशासननियन्त्रितसङ्केतविशेषविषयकशब्दाभिधेयत्वरूपस्त्रीत्वाद्यर्थकत्वं, तादृशशब्दाभिधेयत्वरूपस्त्रीत्वादीनामपि वास्तवत्वात् वस्तुनस्तत्तच्छब्दाभिधेयरूपतया परिणमनभावात । अर्थाभिधानप्रत्ययाः तुल्यनामधेयाः ( ) इति वचनात । होने से सत्य हैं और अनायुक्त परिणाम से बोली जानेवाली सर्व भाषाएँ विराधक होने से असत्य हैं। इस तरह आराधकत्व और विराधकत्व की अपेक्षा से क्रमशः भाषा के दो भेद सत्य और असत्य ही सिद्ध होते हैं। स्वतंत्र मिश्र या अनुभय (असत्यामृषा) भाषा परमार्थ से है ही नहीं। अतः परमार्थ से भाषा के दो भेद-प्रकार ही हैं यह जो पीछे १७वीं गाथा में निश्चयनय के अभिप्राय से कहा गया था वह आगमसंगत एवं युक्तिसंगत ही है।।१९।।
यहाँ यह शंला कि - "यदि परमार्थ से भाषा के दो ही भेद हैं, तब तो भाषा के चार भेद, जो व्यवहारनय से प्रदर्शित हैं, कल्पित ही होने चाहिए" - होने पर उसका समाधान प्रकरणकार २०वीं गाथा से करते हैं।
गाथार्थ :- "ऐसा होने पर चार भेद कल्पित हो जायेंगे" - यह बुद्धि हो तो वह ठीक नहीं है, क्योंकि व्यवहारानुगत वस्तु भी आगम सिद्ध है।२०।
* व्यवहारनय का विषय भी वास्तविक है * विवरणार्थ :- यहाँ यह शंका हो सकती है कि - "यदि निश्चयनय ही पारमार्थिक सत्य है, तब तो निश्चयनय के अभिमत भाषा के दो भेद ही वास्तविक बनेंगे, किन्तु व्यवहारनय को अभिमत भाषा के चार भेद नहीं। व्यवहारनय को मान्य भाषा के भेद काल्पनिक यानी तुच्छ ही होंगे, क्योंकि व्यवहारनय की मिथ्या वासना से उत्पन्न प्ररूपणा का वह विषय है। जो जो मिथ्या वासना कल्पना से उत्पन्न प्ररूपणा का विषय होता है, वह तुच्छ होता है, यह नियम 'वंध्यापुत्र जाता है' इत्यादि स्थल में देखा गया है। अतः भाषा के चार भेद तुच्छ ही है" - किन्तु यह ठीक नहीं है, क्योंकि व्यवहारनय की अभिमत वस्तु भी आगम में प्रसिद्ध है। आगम निश्चय और व्यवहार दो नयों से घटित है। जो वस्तु व्यवहारनय को मान्य होती है, वह वस्तु आगमप्रमाण से सिद्ध होने से वास्तविक होती है। इस विषय की सिद्धि करने के लिए एक द्रष्टांत बताते हैं।
तथाहि.' इति । देखिए - खट्वा यानी खाट आठ लकडी से निर्मित शयनसाधनरूप पदार्थ में स्त्रीपना, जो कि योनि आदि स्त्री के लक्षण से व्यक्त होता है, नहीं है तथा घट पदार्थ में पुरुषपना = पुरुषत्व नहीं है तथा कुड्य यानी दीवार में नपुंसकत्व