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* अन्यथानुपपत्तेः सर्वतो बलिष्ठता *
इदमुपलक्षणं प्रज्ञापन्या अपि "जा य इत्थिपण्णवणी" (प्र. भा. पद. सू. १६२ ) इत्यादिप्रबन्धेन सत्यत्वाभिधानाच्छाब्दसत्यत्वसन्देहस्य "किमियं स्त्र्याद्याज्ञापनी सत्या?" इत्यर्थकप्रश्ननिबन्धनस्य अनुपपत्तेः स्त्र्याद्याज्ञापन्याः सत्यासत्यान्यतरत्वान्तर्भावसिद्धिः । तदुक्तं चिन्तामणी 'सर्वतो बलवती ह्यन्यथानुपपत्तिः " (त. चिं. प्रत्य. खं. पृ. ४८६ )
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'उपलक्षण' मिति । स्वार्थबोधकत्वे सति स्वेतरार्थबोधकत्वमुपलक्षणत्वम् । 'जा य इत्थिपण्णवणी'ति अत्रेदं सूत्रं (ग्रन्थाग्रम् - १५००) द्रष्टव्यम्, "अह भंते! जा य इत्थिपण्णवणी, जा य पुमपण्णवणी, जा य नपुंसगपण्णवणी, पण्णवणी णं एसा भासा ? ण एसा भासा मोसा? हंता गोयमा! जा य इत्थिपण्णवणी, जा य पुमपण्णवणी, जा य नपुंसगपण्णवणी, पण्णवणी णं एसा भासा, ण एसा भासा मोसत्ति ।" सत्यत्वाभिधानादिति । "ण एसा भासा मोसत्ति" यह तो सिद्ध नहीं हुआ कि 'अंतिम दो भाषा का सत्य या असत्य भाषा में समावेश होता है वह ठीक है'। रोटी बनाने का प्रयास करने पर लडकी ने भारत का नकशा बना दिया हो वैसा हो गया!
* आज्ञापनी भाषा में सत्यासत्यान्यतरत्व निश्चित है
समाधान :- तथापि इति । जनाब! हम सात घाट का पानी पी चुके हैं। हमारी हजामत करना इतना आसान नहीं है। केवल सूत्र और जातिसूत्र का समर्थन जैसे हुआ हो वैसे हो, लेकिन इतना तो निश्चित ही है कि स्त्री आज्ञापनी आदि भाषाओं का या तो सत्यभाषा में या तो असत्य भाषा में समावेश होता ही है। इस विषय में कोई विवाद नहीं है। यदि चरम दो भाषाओं का स्त्री आदि आज्ञापनी भाषा का सत्य या असत्य भाषा में समावेश न किया जाय तब तो स्त्री आज्ञापनी आदि भाषा में सत्यत्व का संदेह हो ही नहीं सकता है। देखिये, स्त्री आज्ञापनी आदि भाषा तो असत्यामृषा के भेद में परिगणित है। अतः उन भाषाओं में असत्यमृषात्व है ही आज्ञापनी भाषा का सत्य या असत्य भाषा में समावेश न होने से आपके अभिप्राय से असत्यामृषात्व सत्यत्व के अभाव का व्याप्य होता है। अर्थात् जहाँ असत्यामृषात्व रहता है वहाँ सत्यत्व का अभाव रहता है। इस नियम के अनुसार गौतमस्वामीजी को यह तो ज्ञात ही है कि स्त्री आज्ञापनी आदि भाषा में असत्यमृषात्व होने से उसमें सत्यत्व का अभाव है ही। अर्थात् स्त्रीआज्ञापनी आदि भाषा असत्यामृषा होने से सत्यभाषा नहीं है तब उसको यह संदेह कि 'क्या स्त्री आज्ञापनी आदि भाषा सत्य है या नहीं?" होने का संभव ही नहीं है, क्योंकि गौतमस्वामीजी को स्त्री आज्ञापनी आदि भाषा में सत्यत्व के अभाव का निश्चय हो चुका होगा। यह एक नियम है कि - तदभाववत्ता का निश्चय तद्वत्ता की बुद्धि में प्रतिबंधक है जैसे भूतल में घटाभाववत्ता का निश्चय होने पर भूतल में घटवत्ता की बुद्धि, चाहे वह संशयात्मक हो या निश्चयात्मक हो, नहीं हो सकती है, वैसे स्त्रीआज्ञापनी आदि भाषा में सत्यत्व के अभाव का निश्चय होने से सत्यत्व का संदेह भी नहीं हो सकता है, जो कि बुद्धिरूप है । जब स्त्री आज्ञापनी आदि में सत्यत्व का संशय ही नहीं होता है तब "हे भगवंत! स्त्री आज्ञापनी आदि भाषा सत्य है या नहीं ?" ऐसा प्रश्न भी नहीं हो सकता, क्योंकि उक्त प्रश्न का निमित्त पूर्वोक्त संशय है। यदि स्त्री आज्ञापनी आदि भाषा का सत्य या असत्य भाषा में अन्तर्भाव न किया जाय तब इस संशय की कथमपि उपपत्ति नहीं हो सकती है। अतः इस अनुपपत्ति के बल पर स्त्रीआज्ञापनी आदि भाषा का सत्य या असत्य भाषा में समावेश करना आवश्यक है। आशय यह है कि गौतमस्वामी ने भगवंत से उपर्युक्त प्रश्न तो किया ही है और यह प्रश्न स्त्रीआज्ञापनी आदि भाषा में सत्यत्व के संदेह बिना तो नहीं हो सकता है, क्योंकि वह प्रश्न इस संशय का कार्य है। कार्य से उसके कारण का अनुमान होता है। सत्यत्व के संशय की सत्ता सत्यत्वाभाव के निश्चयरूप प्रतिबन्धक होने पर संभव नहीं है। अतः सत्यत्व के अभाव का निश्चय गौतमस्वामीजी को स्त्रीआज्ञापनी आदि भाषा में नहीं हुआ है यह सिद्ध होता है। स्त्रीआज्ञापनी आदि भाषा में असत्यामृषात्व का ज्ञान होने पर भी सत्यत्व के अभाव का निश्चय नहीं हुआ। इससे ही यह फलित होता है कि सत्यामृषात्व सत्यत्व का विरोधी नहीं है। अर्थात् स्त्रीआज्ञापनी आदि भाषा में असत्यमृषात्व रहते हुए भी सत्यत्व रह सकता है। अतः असत्यमृषाभाषा का सत्यभाषा में अंतर्भाव हो सकता है। इसी तरह असत्यभाषा में भी असत्यामृषा भाषा का समावेश हो सकता है।
* प्रज्ञापनी भाषा भी सत्य भाषा है *
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'इदमुपलक्षणं' इति । स्त्री आदि आज्ञापनी भाषा का सत्य या असत्य भाषा में समावेश होता है यह जो कहा गया है वह प्रज्ञापनी भाषा का उपलक्षण है। अर्थात् आज्ञापनी भाषा की तरह प्रज्ञापनी भाषा का भी सत्य या असत्य भाषा में समावेश होता