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* लौकिकपरिभाषाघटितमृषात्वम्
मोसत्ति ।" (प्र. भा. प. सू. १६२) अत्र च यद्यपि केवलसूत्रमाज्ञाप्येन कार्याकरणे मृषात्वाशंकया प्रश्नकरणात्, विनीतविषयत्वान्न मृषात्वमन्यथा त्वविनिताज्ञापनस्य स्व-परपीडानिबन्धनत्वात् पारिभाषिकं मृषात्वमेव । तदुक्तं अविणीयमाणवतो, किलिस्सइ भाषा मृषेति?" । अत्र प्रज्ञापनीति नासत्यामृषाभेदान्तः परिगणिता किन्तु प्ररूपणीयेत्यर्थः । जातिमधिकृत्य स्त्र्याज्ञापनी भाषा किं प्ररूपणीया? इति प्रश्नतात्पर्यम्। 'जा य इत्थि आणमणी' इति । अत्र मलयगिरिचरणरेवं व्याख्यातं - "या च स्त्र्याज्ञापनी, आज्ञाप्यते आज्ञासम्पादने प्रयुज्यतेऽनया सा आज्ञापनी, स्त्रिया आज्ञापनी, स्त्र्याज्ञापनी स्त्रिया आदेशदायिनीत्यर्थः।" व्यतिरेकमुखेन सत्यत्वं निश्चाययति - 'ण एसा भासा मोसत्ति' इति । इदं चाऽत्र ध्येयं यदुत वर्तमानोपलब्धप्रज्ञापनाप्रतौ पूर्वं केवलसूत्रं ततो जातिसूत्रं निर्दिष्टं वर्तते ।
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'यद्यपी'त्यनेन सूत्रं समर्थयति । केवलसूत्रमिति । "अह भंते! जा य इत्थिआणमणी" इत्यादिसूत्रम् । आज्ञाप्यमानस्स्त्र्यादिस्तथा कुर्यान्न वेति संदेहात् स्त्र्याद्याज्ञापनीभाषायां मृषात्वाशङ्कया 'किमियं भाषा प्ररूपणीया ? किमियमसत्या नेति प्रश्नकरणादित्यर्थः । अस्य च समर्थितमित्यनेनान्वयः । केवलसूत्रप्रश्नांशसमर्थनानन्तरं केवलसूत्रोत्तरांशसमर्थने हेतुमाह - 'विनीतविषयत्वादिति । या स्वपरानुग्रहबुद्ध्या शाठ्यमन्तरेण आमुष्मिकफलसाधनाय प्रतिपन्नैहिकालम्बनप्रयोजना विवक्षितकार्यप्रसाधनसामर्थ्ययुक्ता विनीतस्त्र्यादिविनेयजनविषया । सा परलोकाबाधिनी, एषैव च साधूनां प्ररूपणीया, परलोकाऽबाधनात् । इतरा त्वितरविषया, सा च स्वपरसङ्क्लेशजननान्मृषेत्यप्ररूपणीया साधुवर्गस्येति भावः। इदं च मलयगिरिवृत्तौ स्पष्टम् । 'पारिभाषिक'मिति । शास्त्रीयपरिभाषाघटितं मृषात्वं, न तु लौकिकपरिभाषाघटितम् ।
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आज्ञापनी भाषा, जाति नपुंसक आज्ञापनी भाषा क्या प्ररूपणा करने योग्य हैं ? क्या ये असत्यभाषाएँ तो नहीं हैं न?" महावीर प्रभु इसका समाधान देते हैं कि - "हे गौतम! जाति स्त्री आज्ञापनी, जाति पुरुष आज्ञापनी, जाति नपुंसक आज्ञापनी भाषा प्रतिपादन करने योग्य हैं। ये असत्यभाषाएँ नहीं हैं। वापस गौतमस्वामीजी द्वारा किये गये "हे भगवंत! जो भाषा स्त्री आज्ञापनी है, जो भाषा पुरुष आज्ञापनी है, जो भाषा नपुंसक आज्ञापनी है ये भाषाएँ क्या कथन करने योग्य हैं ? क्या ये भाषा मृषाभाषा तो नहीं हैं न?" - इस प्रश्न का समाधान देते हुए महावीरस्वामीजी कहते हैं कि "हे गौतम! जो भाषा स्त्रीप्रज्ञापनी है जो पुरुषप्रज्ञापनी है, जो भाषा नपुंसक प्रज्ञापनी है, कथन करने योग्य हैं। ये भाषाएँ मृषा भाषा नहीं हैं "
* प्रज्ञापनासूत्र का समर्थन *
'अत्र च.' इति । अब यहाँ विवरणकार पूर्वोक्त प्रज्ञापना सूत्र का संक्षेप से समर्थन करते हैं। हम यहाँ मलयगिरिसूरिजी की प्रज्ञापनावृत्ति के अनुसार विवरणकार के संक्षिप्त कथन को स्पष्ट करते हैं। यहाँ एक सूचन करना आवश्यक है कि प्रज्ञापना सूत्र में केवलसूत्र के बाद में जातिसूत्र का ग्रहण किया गया है, फिर भी विवरणकार ने केवलसूत्र का संक्षिप्त समर्थन करने के बाद जातिसूत्र का संक्षेप से समर्थन किया है। स्त्रीआज्ञापनी भाषा का अर्थ है स्त्री को आज्ञा देनेवाली भाषा । इस तरह पुरुष को आज्ञा करनेवाली भाषा पुरुषआज्ञापनी भाषा और नपुंसक को आज्ञा देनेवाली भाषा नपुंसकआज्ञापनी भाषा । जब स्त्री आदि, जिसको आज्ञा दी जा रही है, आज्ञा के अनुसार कार्य को नहीं करती हैं तब संशय होता है कि- "स्त्री आदि आज्ञापनी भाषा मृषाभाषा तो नहीं है न?" इस संशय से गौतमस्वामीजी भगवंत को प्रश्न करते हैं । भगवंत भी इस समस्या को हल करते हैं। इसका तात्पर्य यह है कि - जब आज्ञा देनेवाला, अपने और दूसरों के अनुग्रह की उपकार की दृष्टि से, माया के बिना अपने परलोकसंबंधी फल को सिद्ध करने के लिए अर्थात् जिस वचन से अपना परलोक बूरा न हो इस प्रयोजन से, इस लोक के कार्य की सिद्धि के निमित्त से अपने अभीष्ट कार्य का संपादन करने में समर्थ ऐसी आज्ञा विनययुक्त स्त्री आदि को करता है, तब वह भाषा विनीतविषयक होने से मृषाभाषा नहीं है। जब कि - "मैं जिसको आज्ञा दे रहा हूँ वह विनयी है या नहीं?" यह सोचे बिना ही अविनीत को आज्ञा देने पर तो वक्ता और श्रोता दोनों को संक्लेश = पीडा होती है। इसलिए वैसी अविनीतविषयक आज्ञापनी भाषा में तो पारिभाषिक मृषात्व ही है। जिससे दोनों को संक्लेश हो उस भाषा में सच्चाई कैसे रहेगी ? कहा गया भी है कि - " अविनीत को आज्ञा देने पर क्लेश ही होता है और वह भाषा झूठी ही होती है। जो जानता है कि "यह घंट बनाने का अत्यंत कठिन लोहा