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* पञ्चसङ्ग्रहपङ्क्तिप्रदर्शनम् *
यदा त्वशोकप्रधानं वनमिति विवक्षया प्रयोगस्तदा श्रमणसङ्घ इत्यादिवद् व्यवहारसत्यताऽपि न विरुध्यत इत्याभाति । असत्यामृषाऽपि विप्रलिप्सादिपूर्विकाऽसत्य एव, अन्या च सत्य एवान्तर्भवति। तदुक्तं पञ्चसंग्रहटीकायामेव - "इदमपि
स्वाभिप्रायं व्यनक्ति 'यदे'ति। श्रमणसङ्घ इति सङ्घस्य श्रमण-श्रमणी-श्रावक-श्राविकासमूहरूपत्वेऽपि 'श्रमणप्रधानः सङ्घ' इति तात्पर्येण 'श्रमणसङ्घ' इति प्रयोगो यथा व्यवहारसत्यः तदंशे प्राधान्यार्पणस्य तत्पर्यवसानरूपत्वात् तथा वनस्य वृक्षसमूहरूपत्वेऽपि 'अशोकप्रधानं वनमिति तात्पर्येण 'अशोकवन मिति प्रयोगो व्यवहारसत्यस्तत एवेति विवरणकारस्याऽऽशयः। तदुक्तं प्रतिमाशतके-' तत्तदंशप्राधान्ये शुभाशुभान्यतरस्यैव पर्यवसानाद, निश्चयाङ्गव्यवहारेणाऽपि तथैव व्यवहरणात् । अत एवाशोकप्रधानं वनमशोकवनमिति विवक्षया न मिश्रभाषापत्तिः (प्र.श. ७९ वृ.) इति। इति न विरोधगन्धोऽपि । ___ यद्यपि बन्धहेतुभङ्गप्रकरणे प्रकृतप्रकरणकारेणैव - "अशोकप्राधान्यविवक्षया भावसत्यमेवेति" (बंहे. भं. पृ. ३) प्रतिपादयितुं, अत्र च तदा व्यवहारसत्यत्वमुक्तमिति आपाततो विरोधस्तथापि सूक्ष्मदृष्ट्या नास्ति विरोधः। तथाहि बन्धहेतुभङगप्रकरणे अशोकप्राधान्यविवक्षया द्रव्यविषयकभावभाषात्वसाक्षाद्व्याप्यभावसत्यत्वमुक्तम्, अत्र च तदा द्रव्यविषयकभावभाषात्वव्याप्यभावसत्यत्वव्याप्यव्यवहारसत्यत्वमुक्तमिति न विरोधः। न हि पूर्व सामान्यतो 'घटोऽयमि'त्युक्त्वा पश्चाद विशेषदृष्ट्या 'नीलघटोऽयमिति प्रतिपादने विरोध प्रतियन्ति विद्वांसः तथैव तत्र तदा सामान्यतो भावसत्यमुक्तमत्र च तस्य विशेषदृष्ट्या भावसत्यावान्तरभेदरूपव्यवहारसत्येऽन्तर्भावःकृतः।
ननु निश्चयनयमते सत्यमृषाभाषाया असत्यान्तर्गतत्वं ज्ञातं किन्तु व्यवहारनयसम्मताया अनुभयभाषायाः कुत्रान्तर्भाव इत्याशङ्कायामाह - असत्यमृषाऽपीति। किम्पुनः सत्यामृषेत्यपिशब्दार्थः। विप्रलिप्सादिपूर्विकाया असत्याविशेष्यरूप से ज्ञात होता है, एक देश में अन्वय व्युत्पन्न नहीं होता है। विशेषणविशेष्यवाचक पदों के सान्निध्य रूप समभिव्याहार का ज्ञान होने पर जो बोध होता है वह बोध संपूर्ण विशेष्य में विशेषण के तादात्म्य को अपना विषय बनाता है, न कि विशेष्य के एक देश में विशेषण के तादात्म्य को। जैसे कि 'नीलघटा' इस वाक्य से नीलपदार्थरूप विशेषण का घटपदार्थरूप संपूर्ण विशेष्य में' तादात्म्य सम्बन्ध से बोध होता है, न कि घटपदार्थरूप विशेष्य के एक अंश में। अन्यथा नील और पीत कपाल से आरब्ध घट में 'नीलोऽयं घटा' वाक्य भी प्रमाण=सत्य हो जायेगा। अतः यहाँ विशेष्य के एक देश में विशेषण के तादात्म्य का तात्पर्य मान कर 'अशोकवनं' प्रयोग का सत्यभाषा में समावेश करना ठीक नहीं है, अभियुक्त पुरुषों को मान्य नहीं है।
* प्राधान्यप्रतिपादन की अपेक्षा मिश्रभाषा भी व्यवहारसत्य बनती है * यदा तु.' इति । यहाँ इस बात पर ध्यान देना आवश्यक है कि जब वक्ता 'अशोकप्रधानं वनं' अर्थात् 'जिसमें अशोकनाम के वृक्षों की प्रधानता है ऐसा यह वन है' इस तात्पर्य से 'अशोकवनं' शब्द का प्रयोग करे तब तो यह भाषा 'श्रमणसंघ' इत्यादि प्रयोग की तरह व्यवहारसत्यरूप से ज्ञात होती है। आशय यह है कि - संघ तो साधु, साध्वी, श्रावक और श्राविका के समूहरूप ही है, सिर्फ साधुसमुदायरूप संघ नहीं है। फिर भी 'श्रमणसंघ' ऐसा जो वाक्य प्रयोग होता है वह "संघ श्रमणप्रधान होता है" अर्थात् 'जिसमें श्रमणों की प्रधानता है ऐसा संघ है' इस तात्पर्य से प्रयुक्त होने से जैसे व्यवहारसत्य है वैसे ही वन वृक्षसमुदायरूप होते हुए भी "अशोकवृक्षों की जिसमें प्रधानता है ऐसा यह वन है" इस विवक्षा = तात्पर्य से जो वाक्यप्रयोग होता है उसका व्यवहारसत्यरूप से स्वीकार करने में कोई विरोध नहीं आता है - यह विवरणकार का अभिप्राय है।
शंका :- सत्यामृषाभाषा का निश्चयनय की दृष्टि से असत्यभाषा में अंतर्भाव होता है - यह तो ज्ञात हुआ, मगर असत्यामृषाभाषा का समावेश किस भाषा में करेंगे?
* असत्यामृषा भाषा स्वतंत्र नही है - निश्चयनय * समाधान :- 'असत्यामृषापि'. इति । असत्यामृषा भाषा के दो प्रकार होते हैं। एक विप्रलिप्सा अर्थात् दूसरों को ठगने की इच्छा आदि से प्रयुक्त होती है और अन्य असत्यामृषाभाषा विप्रलिप्सा आदि से प्रयुक्त नहीं होती है। जो असत्यामृषा भाषा विप्रलिप्सा आदि