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७६ भाषारहस्यप्रकरणे - स्त. १. गा. १७
● 'अशोकवनं' वचनविमर्शः O अत्र च वने वृक्षसमूहरूपेऽशोकाऽभेदतात्पर्यबाधेन मृषात्वस्य स्पष्टत्वात्। उक्तं च पञ्चसंग्रहटीकायां- "व्यवहारनयमतापेक्षया चैवमुच्यते। परमार्थतः पुनरिदमसत्यमेव यथाविकल्पितार्थाऽयोगादिति ( ) न च समूहदेशे एवाशोकाभेदान्वयान्न बाधः, तथासमभिव्याहारे देशान्वयस्याऽव्युत्पन्नत्वात् ।
अनुपपत्तेरिति । अबाधितार्थकत्वस्य सत्यलक्षणत्वे द्वैविध्यमनुपपन्नं स्यात् धर्माधर्मादौ बाधितार्थकत्वेनाऽसत्यत्वप्रसङ्गात्। इदं चोपलक्षणं, तेनाबाधिततात्पर्यकत्वस्य सत्यत्वाऽनुपगमे "गङ्गायां घोष" इत्यादेः सत्यत्वं दुर्घटं स्यात् बाधितार्थत्वात्।
परमार्थत इति। परमार्थमधिकृत्य निश्चयमधिकृत्येति यावत् । समूहदेशे = वृक्षसमूहघटकाशोकवृक्षे एव, अशोकाभेदान्वयात् = अशोकवृक्षाभेदसम्बन्धात्, एवकारेण समूहेऽशोकतादात्म्यसंसर्गस्य व्यवच्छेदः कृतः । तथा च न बाध इति शङ्काकर्तुराशयः। तस्याऽश्रद्धेयत्वे बीजमाह - तथासमभिव्याहार इति । अशोकवनमित्येवं शेषशेषिवाचकपदयोः सहोच्चारणे सति इत्यर्थः । देशान्वयस्य = विशेष्यीभूतसमूहैकदेशे विशेषणीभूताशोकतादात्म्यसम्बन्धस्य अव्युत्पन्नत्वात् | = तादृशसमभिव्याहारज्ञानात्मकाकाङ्क्षाज्ञानजन्या या प्रतिपत्तिस्तद्विषयत्वाभावात् ।
में प्रामाण्य और अप्रामाण्य की अर्थात् सत्यत्व और असत्यत्व की घटना किसी भी तरह नही हो पाएगी, क्योंकि 'द्रव्यं रूपवत्' वाक्य का अर्थ बाधित है। यदि उपर्युक्त वाक्य में प्रामाण्य और अप्रामाण्य की उपपत्ति करनी हो तो यह स्वीकार करना ही होगा की जिस शब्द का तात्पर्य बाधित नहीं है वह सत्यभाषा और जिस शब्द का तात्पर्य बाधित है वह असत्यभाषा । इस विषय का विस्तृत विवेचन अन्य ग्रंथों में ग्रंथकार ने किया है। इसलिए यहाँ इस प्रासंगिक विषय का विस्तार से विवेचन ग्रंथकार ने किया है । इसलिए यहाँ इस प्रासंगिक विषय का विस्तार से विवेचन ग्रंथकार ने नहीं किया है।
* 'अशोकवनं' - वाक्यविचार *
'अत्र च.' प्रस्तुत में 'यह अशोक वन ही है' यह वाक्य निश्चयनय की दृष्टि से असत्य है, क्योंकि इस वाक्य का तात्पर्य बाधित है। आशय यह है कि वन वृक्षसमुदाय से अतिरिक्त नहीं है, किन्तु वृक्षसमुदायस्वरूप ही है। प्रस्तुत वृक्षसमुदाय में जहाँ अशोक के वृक्ष अनेक होते हुए भी कतिपय धव-आम-नींब आदि अन्य वृक्ष भी हैं, सिर्फ अशोकवृक्ष के अभेद = तादात्म्य का तात्पर्य = अभिप्राय बाधित है। 'अशोकवन एव' यहाँ 'एव' शब्द का निवेश है, उससे यह ज्ञात होता है कि वक्ता का तात्पर्य सिर्फ अशोकवृक्ष के अभेद का बोध कराना ही अभिमत है, जो कि बाधित है। अतः निश्चयनय की दृष्टि से उपर्युक्त वाक्य का असत्यभाषा में समावेश होता है ।
'उक्तं च' इति । विवरणकार यहाँ इस विषय में पंचसंग्रह शास्त्र की टीका का, जो कि महनीय आचार्यदेवेश श्रीमलयगिरि महाराजा द्वारा रची हुई है, हवाला देते हैं जिसका अर्थ है- "व्यवहारनय की अपेक्षा से यह मिश्रभाषा कही जाती है। परमार्थ से तो मिश्रभाषा असत्य ही है, क्योंकि वक्ता ने जैसा अर्थ सोचा है वैसा अर्थ नहीं है।" पंचसंग्रह की टीका में 'परमार्थतः' शब्द का प्रयोग किया गया है उसका अर्थ है परमार्थ की दृष्टि से निश्चयनय की दृष्टि से । स्पष्ट हो गया कि निश्चयनय मिश्रभाषा को तात्पर्य बाधित होने से असत्य कहता है।
शंका :- 'न च' इति। 'अशोकवनमेवेदं' वाक्य बाधित तब होता, जब अशोकपदार्थ का सम्बन्ध वृक्षसमूहरूप वन से किया जाय । मगर हम इस शाब्दबोध का यहाँ स्वीकार नहीं करते हैं। हमारा अभिप्राय है अशोक पदार्थ का तादात्म्य सम्बन्ध से वृक्षसमूह के एक देश में, जहाँ अशोकवृक्षपना है, अन्वय= सम्बन्ध होता है, जो अबाधित ही है। इस तरह से यहाँ वक्ता का तात्पर्य वृक्षसमूह के एक देश में अशोक के तादात्म्य का बोध कराना है, जो अबाधित होने से उसका प्रतिपादक वाक्य भी सत्यभाषा में समाविष्ट होगा, न कि मृषाभाषा में अतः इस वाक्य का मृषाभाषा में अन्तर्भाव करना ठीक नहीं है।
* कर्मधारय समासस्थल में अर्थबोध
समाधान :- आप तो अक्ल के दुश्मन हैं। क्या आप नहीं जानते हैं कि यहाँ 'अशोकवनं' पद में कर्मधारय समास है? कर्मधारय समास के पदार्थ के, जो प्रायः विशेषणरूप से ज्ञात होता है, अभेदसंसर्ग का कर्मधारय समास के उत्तर पदार्थ के, जो प्रायः