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७४ भाषारहस्यप्रकरणे - स्त.१. गा. १७
० परिभाषास्वरूपाऽऽकलनम् ० यत्तु तदा श्रुतोर्तीणमुच्यते 'अस्ति जीव एकान्तनित्य' इत्यादि तदसत्यं विराधकत्वात् । यच्च धवादिवृक्षसमूहेऽप्यशोकबाहुल्या'दशोकवनमेवेदमित्युच्यते तन्मिभं, यच्च वस्तुमात्रपर्यालोचनपरं 'हे देवदत्त! घटमानये'त्यादि तदनुभयस्वभावमिति। अत्र च परिभाषैव शरणं परिभाषा च व्यवहार एवेति द्रष्टव्यम्। व्यवहारनयपरिभाषा। 'अशोकवनमेवेद'मिति। वनस्य वृक्षसमुदायरूपत्वात् 'अशोकवृक्षसमूह एवायमि'त्यर्थः । वृक्षसमूहे अशोकवृक्षांशे संवादात् सत्यत्वमितरांशे धवादिवृक्षव्यवच्छेदस्यैवकारार्थस्य विसंवादादसत्यत्वमित्यतः परिस्थूलव्यवहारनयमतेनाऽऽराधकविराधकत्वान्मिश्रत्वं भावनीयम्। अनुभयस्वभावमिति। अत्र आराधकत्वविराधकत्व-तदुभयविरहादिति शेषः। परिभाषेति। अत्र प्रसङ्गात्किञ्चिदुच्यते। पदं यौगिक-रूढ-योगरूढयौगिकरूढभेदाच्चतुर्विधं भवति। तत्र रूढपदं नैमित्तिकपारिभाषिकौपाधिकभेदात् त्रिविधम् । तत्र पारिभाषिकमपि लौकिकशास्त्रीयभेदाद् द्विविधं भवति। गदाधरमते आधुनिकसंज्ञा परिभाषा। तदुक्तं शक्तिवादे 'आधुनिकसकेतः परिभाषा, तया चार्थबोधकं पदं पारिभाषिकं यथा शास्त्रकारादि सङ्केतितनदीवृद्ध्यादिपदम्। जगदीशोऽपि शब्दशक्तिप्रकाशिकायां - 'उभयाऽवृत्तिधर्मेण संज्ञा स्यात् पारिभाषिकी' [श.श. २२] इत्युक्तवान् । अन्ये कृत्रिमसञ्ज्ञा परिभाषेत्याहुः। अपरे तूभयवृत्तिधर्मावच्छिन्नसंकेतवती संज्ञा परिभाषेति व्याचक्षते। केचित्तु लक्ष्यधर्मिकसाधुत्वप्रकारकबोधोपयोगिबोधजनकसञ्ज्ञा परिभाषेति वदन्ति। बलिरामशक्लमत तु परिवर्तनीयसङ्केतः परिभाषा। वादिदेवसूरयस्तु" यस्याः सञ्ज्ञाया विना निमित्तेन श्रुङ्गग्राहिकया सङ्केतः सा पारिभाषिकी सञ्ज्ञा" (स्या. रत्ना. ५/ ८) इति न्यायकन्दलीकारानुवादरूपेण स्याद्वादरत्नाकरे प्राहुः । वस्तुतस्तु शास्त्रकारकृतासाधारणसञ्ज्ञा परिभाषेति ध्येयम् । अनेनैवाभिप्रायेण प्रकृतप्रकरणकृता तत्त्वार्थवृत्तौ "नामकरणसंस्काराधीनसङ्केतशालिनी परिभाषा" (तत्त्वा. १/३५ यशो. वृत्ति) इत्युक्तम्।
यत्तु पारिभाषिकं पदं पारिभाषिकमेव न तु वाचकमिति नैयायिकमतं तन्न मनोरमं वाचकादिव पारिभाषिकपदादपि जायमाने बोधे विशेषाभावात्, तत्र शक्तिभ्रमकल्पने मानाभावात्, विनिगमनाविरहात्। किञ्चैकत्र वाचकमपि पदमन्यत्र पारिभाषिकमपि भवति। एकत्र तस्य शक्तत्वेऽन्यत्र चाऽशक्तत्वे स्याद्वादप्रवेशादिति दिक्। विवरणे 'एव'
* मिश्रभाषा का लक्षण, व्यवहारनय से * 'यच्च' इति । व्यवहारनय की दृष्टि से भाषा का तीसरा भेद है, मिश्र भाषा । अर्थात् जो भाषा अंश में सत्य हो और अंश में असत्य हो वह भाषा मिश्रभाषा है, क्योंकि यह आराधक-विराधक भाषा है। जैसे कि वृक्षों के समुदाय में, जिसमें अशोकवृक्ष की संख्या अधिक हैं और धव आदि वृक्ष की संख्या अल्प हैं, "यह अशोक वन ही है" यह वचन मिश्रभाषा है। यह भाषा वृक्षसमुदाय के एक अंशरूप अशोकवृक्ष अंश में सत्य है और अन्य धवादि वृक्ष अंश में असत्य है। अतः आराधक-विराधक है। अतएव मिश्रभाषा स्वरूप है।
* अनुभय भाषा का लक्षण, व्यवहारनय से * 'वस्तुमात्र' इति। व्यवहारनय के अभिप्राय से भाषा का अंतिम भेद है, अनुभय भाषा। जो भाषा सिर्फ वस्तु का निरीक्षण ही कराती है, वह अनुभयभाषारूप है। जब वक्ता वस्तु के स्वरूप को प्रतिष्ठित करने की इच्छा से नहीं मगर वस्तु का सिर्फ प्रतिपादन करने की इच्छा से बोलता है, तब वह भाषा सत्यभाषा नहीं है तथा असत्यरूप या मिश्रभाषारूप भी नहीं है-यह तो स्पष्ट है। अतः पूर्वाक्त तीन भाषाओं से विलक्षण अनुभय भाषा है। यह बात द्रष्टांत से स्वयं विवरणकार स्पष्ट करते हैं। जैसे कि - हे देवदत्त! घट को ले आ" इत्यादि वचन। यह भाषा न है आराधक और न है विराधक। जो भाषा आराधक भी न हो और विराधक भी न हो वह अनुभयभाषा है - यह व्यवहारनय की परिभाषा है। यह बात प्रज्ञापना आगम की टीका में; जो श्रीमलयगिरि महाराज ने बनाई हुई है, स्पष्ट है। __ शंका :- व्यवहारनय की दृष्टि से भाषा के भेद चार ही क्यों हैं? सत्यभाषा के लक्षण में आगमानुसारिता आदि का प्रवेश क्यों किया गया है?