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* व्यवहारनयेन भावभाषाभेदप्ररूपणम् * अथ प्रागुक्तमेव भाषाविभागं निश्चयव्यवहाराभ्यां विवेचयति ।
भासा चउविहत्ति य ववहारणया सुअम्मि पन्नाणं।
___ सच्चा मुसत्ति भासा, दुविह च्चिय हंदि णिच्छयओ ||१७।। भाषा चतुर्विधेति च व्यवहारनयात् श्रुते प्रज्ञानम्। इह खलु विप्रतिपत्तौ वस्तुप्रतितिष्ठासया यथाश्रुतं यदुच्यते अस्ति जीवः सदसद्रूपः इति तदेव सत्यं परिभाष्यते आराधकत्वात्।।
भासा इति मूलस्थम्। इयं गाथा प्रतिमाशतकधर्मसङ्ग्रहयोरुद्धृता वर्तते। व्यवहारनयात् = व्यवहारनयमवलम्ब्येत्यर्थः। विप्रतिपत्ताविति। विरुद्धा प्रतिपत्तिः विप्रतिपत्तिः तस्यां सत्यां; वस्तुप्रतितिष्ठासया = वस्तुप्रतिष्ठाशया। एतेन विप्रतिपत्त्यभावे वस्तुनिर्देशमात्रेच्छया प्रयुक्तायां भाषायां न सत्यत्वमित्यावेदितं भवति, तस्या यथायथं प्रज्ञापन्यादौ निवेशात्। यथाश्रुतमिति। श्रुतानुसारेणेत्यर्थः। अत्र श्रुतपदं सर्वज्ञभाषितागमपरं न च पयःप्रभृत्यर्थे पिच्चादिपदस्य सर्वज्ञोपदर्शितागमाप्रतिपादितत्वात्सत्यत्वं न स्यादिति वाच्यम्, जनपदसत्यत्वेन रूपेण तस्य सर्वज्ञागमानुसारितया सत्यत्वाव्याहतेः सर्वव्यवहाराणां द्वादशाङ्गीमूलकत्वादिति दिग्।
'परिभाष्यते' इत्यनेन पारिभाषिकं सत्यत्वमुक्तं, व्यवहारनयवक्तव्यत्वात्। पारिभाषिकसत्यत्वे हेतुमाहआराधकत्वात् । या भाषा आराधनी सा सत्येति व्यवहारनयपरिभाषा।
द्वितीयभेदं प्रदर्शयति- 'यत्त' इति । 'तदा' = विप्रतिपत्तौ सत्यां । इदं च स्वरूप-परिचायकं न त्वसत्यभाषाया लक्षणे प्रविष्टं श्रुतोत्तीर्णत्वस्यैवासत्यलक्षणत्वात। तेन विप्रतिपत्तिं विनैव स्वमनः-कल्पितवस्तुप्रतिष्ठाशया 'सप्त द्रव्याणी'त्यादे ऽसङग्रह इति ध्येयम्। असत्यत्वे हेतुमाह 'विराधकत्वात' या भाषा विराधनी साऽसत्ये'तीयं
गाथार्थ :- 'आगम में व्यवहारनय से 'भाषा के चार भेद है' और निश्चयनय से 'भाषा के सत्य और मृषा ये दो ही भेद है'यह प्रसिद्ध ही है।।१७।।
* सत्यभाषालक्षण, व्यवहारनय से * विवरणार्थ :- व्यवहारनय का अवलंबन कर के आगम में भाषा के चार भेद प्रसिद्ध हैं - सत्यभाषा, असत्यभाषा, मिश्रभाषा और अनुभयभाषा । जब किसी वस्तु के स्वरूप में विवाद हो तब वस्तु के मूल स्वरूप को स्थापित करने की इच्छा से आगम के अनुसार जो बोला जाय वह सत्यभाषा है - यह व्यवहारनय की परिभाषा है। जैसे की नैयायिक और नास्तिक जीव के विषय में विवाद करते हैं। नैयायिक कहता है कि 'जीव एकांत सद्रूप है' जब कि उसके विरुद्ध नास्तिक कहता है कि "जीव एकांत असद्रूप है" अर्थात् 'जीव है ही नहीं। ऐसा विवाद=विरुद्ध अभिप्राय या वक्तव्य उपस्थित होने पर वस्तु के मूल स्वरूप की प्रतिष्ठा करने की इच्छा से 'जीव सद् और असद्रूप है' इस तरह आगम के अनुसार जो भाषा बोली जाती है वह भाषा व्यवहारनय से सत्यरूप से परिभाषित है, क्योंकि यह भाषा आराधनी है। जो भाषा आराधनी होती है वह सत्य है - यह व्यवहारनय की परिभाषा है।
* असत्यभाषा का लक्षण, व्यवहारनय से * 'यत्तु' इति। जब वादी और प्रतिवादी के अभिप्राय परस्पर विरुद्ध हो तब आगम से विपरीत जो कथन किया जाय वह असत्यभाषा है, क्योंकि वह भाषा विराधनी है। व्यवहारनय की यह परिभाषा है कि-जो भाषा विराधनी होती है, वह असत्य होती है। जैसे कि 'जीव नित्य है या अनित्य?' इस तरह जीव के विषय में विरुद्ध अभिप्राय उपस्थित होने पर आगम से विरुद्ध - "जीव एकांत नित्य है" अर्थात् "जीव सर्वथा नित्य है" यह प्रतिपादन किया जाय तब वह भाषा व्यवहारनय की दृष्टि में विराधनी भाषा होने से मृषा-असत्यभाषा स्वरूप है। 'जीव एकान्तनित्य है' यह वचन आगमविरुद्ध इसलिए है कि - आगम में "जीव नित्यानित्यरूप है" ऐसा तर्कसंगत यथार्थ प्रतिपादन किया गया है।
१ अत्र कप्रतौ 'हदि' इति पाठः। २ भाषा चतुविधुति च व्यवहारनयात् श्रुते प्रज्ञानम् । सत्या मृषेति भाषा द्विविधैव हन्दि निश्चयतः।।१७।।