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* अवधारणीयत्वलक्षणविमर्शः * वक्ष्यामः।।१५।।
पढमा दो पज्जत्ता उवरिल्लाओ अ दो अपज्जत्ता। अवहारेउं सक्कइ पज्जत्तण्णा य विवरीआ।।१६।। प्रथमे द्वे = सत्यासत्ये भाषे पर्याप्ते; उपरितने द्वे = सत्यामृषाऽसत्यामृषे, अपर्याप्ते। तत्राऽवधारयितुं शक्यते या सा पर्याप्ता; च = पुनः विपरीता च = अवधारयितुमशक्या च, अन्या = अपर्याप्ता। तदुक्तं वाक्यशुद्धिचूर्णी -
पज्जत्तिगा णाम जा अवहारेउ' सक्कइ जहा एसा सच्चा मोसा वा, एसा पज्जत्तिगा। जा पुण सच्चा वि मोसा वि दुपक्खगा वि सा न सक्कइ विभाविउं जहा एसा सच्चा वा मोसा वा, सा अपज्जत्तिगत्ति।। (द. वै. जि. चू. पृ. २३९)
अवधारणीयत्वं च "सत्यासत्यान्यतरत्वप्रकारकप्रमाविषयत्वम्" अनवधारणीयत्वं च तदभावः। तेन न तदन्यतरभ्रमविषय
ननु भाषानिष्ठमवधारणीयत्वं च यदि सत्यासत्यान्यतरत्वप्रकारकनिश्चयविषयत्वं, अनवधारणीयत्वं च तदभावः तदा मिश्रभाषायामपि कस्यचिच्छ्रोतुः 'इयं सत्ये'तिभ्रमात्मकनिश्चये जातेऽपर्याप्तत्वेनाऽभिमतायां मिश्रभाषायां तादृशान्यतरत्वनिश्चयविषयतायाः सत्त्वात् तत्राऽतिव्याप्तिस्स्यादवधारणीयत्वलक्षणस्य, तदभावाभावेनाऽनवधारणीयत्वलक्षणस्य चाव्याप्तिः स्यात। सत्यभाषायामपि कस्यचिच्छ्रोतुः 'इयं सत्या न वेंति संशये जाते तादृशान्यतरत्वनिश्चयविषयत्वस्याऽभावेनाऽवधारणीयत्वलक्षणस्याऽव्याप्तिस्स्यात् तदभावसत्त्वेनाऽनवधारणीयत्वलक्षणस्याऽतिव्याप्तिः च स्यादित्यत आह - अवधारणीयत्वं चेति। "इयं सत्या" "इयमसत्या" इति सत्यासत्यान्यतरत्वप्रकारिका या प्रमा तस्या विषयत्वं यत्र सा पर्याप्ता भाषा, यत्र तादृशप्रमाविषयत्वाभावः साऽपर्याप्ता भाषेत्यर्थः ।
गाथार्थ :- प्रथम दो भाषा पर्याप्त हैं और अंतिम दो भाषाएँ अपर्याप्त हैं। पर्याप्तभाषा उसको कहते हैं जिसके स्वरूप का अवधारण हो सके। अपर्याप्तभाषा इसके विपरीत है।।१६।।
* पर्याप्त और अपर्याप्तरूप से भाषा द्विविध * विवरणार्थ :- द्रव्यभाषा के चार भेदों में से प्रथम दो भेद यानी सत्य और मृषा भाषा, ये पर्याप्त हैं और अंतिम दो भेद यानी सत्यामृषा = मिश्र और असत्यमृषा = अनुभय भाषा, ये अपर्याप्त हैं। पर्याप्त का अर्थ है जिसके स्वरूप का निश्चय हो सके ऐसी भाषा। तथा इसके विपरीत यानी जिसके स्वरूप का अवधारण=निश्चय करना नामुमकिन है वह भाषा अन्य यानी अपर्याप्त है। यहाँ विवरणकार वाक्यशुद्धि चूर्णि का हवाला देते हैं जिसका अर्थ है - "पर्याप्त भाषा का मतलब है जिसके स्वरूप का अवधारण इस तरह हो सके कि - "यह भाषा सत्य ही है", या "यह भाषा असत्य ही है।" जो भाषा (मिश्र) सत्य भी होती है और मृषा भी होती है, वह उभयपक्ष में जाती है। तथा जो भाषा न सत्य होती है, न मृषा वह एक भी पक्ष में समाविष्ट नहीं होती है। अतएव वहाँ हम यह नहीं सोच सकते कि - "यह भाषा सत्य है या मृषा है। अतः वे भाषा अपर्याप्त भाषा हैं।
शंका :- जिस भाषा में सत्यत्व या असत्यत्व का निश्चय हो सके वह भाषा पर्याप्त भाषा है ऐसा कहने पर पर्याप्तभाषा भी अपर्याप्त बन जायेगी और अपर्याप्तभाषा भी पर्याप्तभाषा बन जायगी। देखिये, मिश्रभाषा या अनुभयभाषा, जो कि अपर्याप्तभाषारूप से इष्ट है, में किसी श्रोता को "यह भाषा सत्य है" ऐसा भ्रमात्मक निश्चय होने पर वह भाषा पर्याप्त हो जायेगी, क्योंकि संत्यरूप से श्रोता को जो निर्णय हुआ है, इसका वह विषय है। सत्य और असत्यभाषा, जो कि आगम की परिभाषा के अनुसार पर्याप्त भाषा है, उनमें अपनी प्रज्ञा की अकुशलता आदि के कारण श्रोता को जब ऐसा संशय होता है कि "यह भाषा सत्य है या मृषा?" तब वह पर्याप्तभाषा भी अपर्याप्तभाषा हो जायेगी, क्योंकि अन्यतरत्व का निश्चय न होने से तादृश निश्चय की विषयता नहीं रहती है। अतः पर्याप्त-अपर्याप्त के विभाग में संकर दोष होने की अनिष्टापत्ति आयेगी।
* अवधारणीयत्व का तात्त्विक अर्थ * समाधान :- 'अवधारणीयत्वं' इति । आपने जो दोष दिखाये हैं उन दोषों का अवकाश तब हो सकता है, यदि हम 'जिस भाषा में सत्यासत्यअन्यतरत्वप्रकारक निश्चय विषयता हो वह भाषा अवधारिणी पर्याप्त है'- ऐसा कथन करे। मगर हमारा अभिप्राय
१ प्रथमे द्वे पर्याप्ते उपरितने च द्वेऽपर्याप्ते। अवधारयितुं शक्यते पर्याप्ताऽन्या च विपरीता ।।१६।। २ पर्याप्तिका नाम याऽवधारयितुं शक्यते यथा सत्या वा मृषा वा एषा पर्याप्तिका । या पुनः सत्याऽपि मृषाऽपि द्विपक्षगाऽपि सा न शक्यते विभावयितुं यथा एषा सत्या वा मृषा वा सा अपर्याप्तिका । ३ अत्र मुद्रितप्रतौ 'अवहारेतुं' इति पाठः। ४ 'अओ सा' इति चूर्णी पाठ उपलभ्यते।