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* निश्चयेन भाषाद्वैविध्यस्थापनम् *
अथ मन्दकुमारादीनां करणाऽपटिष्ठतादिना "अहमेतद्भाषे 'इत्यादिज्ञानशून्यानां या भाषा तन्निबन्धनाशुभसङ्कल्पाभावात्कथं तत्र विकल्पेन भाषोपक्षय इति चेत् ? न, अनायुक्तपरिणामस्यैव कर्मबन्धनहेतुत्वेन विराधकत्वात् तेन तदुपक्षयात् । समर्थितञ्चेदं मसत्यत्वं वा सम्भवति । अत एव 'दुविहच्चिय हंदि णिच्छयओ (भा. रं. गा. १७) इत्यत्र निश्चयनयमतेन - "अबाधिततात्पर्यस्यैब शब्दस्य सत्यत्वादिति" (दृश्यतां ७५ तमे पुटे) ग्रन्थकृता पूर्वमुक्तं सङ्गच्छत इति ध्येयम् ।
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ननु निश्चयनयेन किमिति भाषाया आराधकत्वादिकं मुख्यरीत्या नाभ्युपेयते इति चेत् ? उच्यते आराधकत्वं नाम निर्जरादिहेतुत्वं, निर्जरादिकं प्रति भाषाया अन्वयव्यतिरेकव्यभिचाराभ्यामन्यथासिद्धत्वान्नाराधकत्वम् । शुभसङ्कल्पस्य निर्जरादिकं प्रत्यनन्यथासिद्धत्वादाराधकत्वं, विधिविशुद्धशुभसङ्कल्पात्कारणवशान्मृषाभाषणे सत्याऽभाषणेऽपि वा निर्जरादेर्जायमानत्वात् शुभसङ्कल्पविरहदशायामशुभसङ्कल्पात्सत्यभाषणेऽपि निर्जरादेरभावाच्चेति । अध्यवसायरूपे च सङ्कल्पे शुभाशुभत्वसङ्कीर्णत्वस्य शुभाशुभत्वविर्निमुक्तत्वस्य चाभावेन देशाराधकविराधकत्वाऽनाराधकविराधकत्वयोरसम्भवाद् भाषायामपि गौणं मिश्रत्वमनुभयत्वं वा निश्चयेन नास्तीति । निश्चयनयरहस्यश्रवणाद् या शङ्का जायते ता'मथेत्यादिना प्रदर्शयति । करणापटिष्ठतादिनेति । आदिशब्दत्पूर्वापरानुसन्धानवैकल्यप्रयोजकं वातादिनोपहतचैतन्यकत्वादिकं ग्राह्यम् । विकल्पेनेति । अशुभसङ्कल्पेनेत्यर्थः । भाषोपक्षय इति भाषाया अन्यथा - सिद्धत्वम् । शङ्काकर्तुरयं भावः मंदकुमारादिभाषाया अशुभसङ्कल्पप्रयुक्तत्वाभावेन तत्र स्थलेऽशुभसङ्कल्पस्यैवाभावात्कुत्र विराधकत्वं भवन्मते स्यात् । अतोऽनन्यगत्या भाषायामेव विराधकत्वमाराधकत्वं वा न तु तत्प्रयोजके सङ्कल्पे इत्यभ्युपेयमिति ।
तन्निराकरोति 'ने'त्यादिना । 'अनायुक्तपरिणामस्यैव' इत्यनेन भाषाया व्यवच्छेदः कृतः । कर्मबन्धनहेतुत्वेन अशुभकर्मबन्धनहेतुत्वेन । तेन = अनायुक्तपरिणामेनाऽनुपयोगात्मकाध्यवसायविशेषरूपेण सम्यक्सङ्कल्पविरहलक्षणेन वा । तदुपक्षयात् = भाषाया अन्यथासिद्धत्वात् । अयं भावः अनायुक्तं भाषमाणस्याऽनायुक्तपरिणामस्याशुभकर्मबन्ध
* भाषा में ही आराधकत्व आदि मानना युक्त है व्यवहारनय *
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व्यवहारनय :- 'अथ मंद' इति । यदि भाषा के जनक संकल्प में ही आराधकत्व या विराधकत्व माना जाए तो जो बहुत छोटे बच्चे हैं, जिनकी इंद्रियाँ और मन का विकास नहीं हुआ है इसी सबब अत्यंत मंद क्षयोपशमवाले हैं, "मैं यह बोल रहा हूँ" इत्यादि ज्ञान = संकल्प से शून्य हो कर यत्किंचित् बोलते हैं, वहाँ आप क्या करेंगे? छोटे बच्चे को तो शुभ या अशुभ संकल्प ही नहीं है, तब उसमें आराधकत्व और विराधकत्व का विचार भी कैसे हो सकेगा ? मूलं नास्ति कुतः शाखा ? इसलिए "वक्ता का संकल्प ही शुभ या अशुभ होने पर कर्मनिर्जरा आदि का कारण होने से आराधक और अशुभकर्मबंध आदि का कारण होने पर विराधक है; भाषा नहीं। पापकर्मबन्ध या निर्जरा आदि कार्य तो वक्ता के संकल्प से ही हो जाने से भाषा उपक्षीण = चरितार्थ = असमर्थ हो जायेगी" - इत्यादि कथन युक्तिसंगत नहीं होगा। आशय यह है कि जहाँ संकल्प नहीं है, फिर भी भाषा का प्रादुर्भाव = जन्म हो सकता है। वहाँ तो कर्मबंध आदि के प्रति भाषा ही कारण बनेगी, न कि संकल्प। अतः भाषा को कर्मनिर्जरा या पापकर्मबंध आदि के प्रति कारण 'मानना आवश्यक है। एक स्थल में भाषा कर्मनिर्जरादि की जनक है यह सिद्ध होने पर अन्यत्र भी भाषा में ही आराधकत्व या विराधकत्व मानना उचित होगा, न कि संकल्प में ।
निश्चयनय *
* संकल्प में ही आराधकत्व या विराधकत्व मानना युक्त है निश्चयनय :- 'न' इति। आप आँखों में धूल झोंकने का व्यर्थ प्रयास कर रहे हैं। आपके कथन से आपको आगम का कुछ ज्ञान नहीं है, यह पता चल रहा है। आगम में अनुपयोग को प्रमाद कहा गया है, जो कि कर्मबंध का पाँचवाँ कारण है। मिथ्यात्व, अविरति, कषाय, योग और प्रमाद ये पाँच कर्मबंध के हेतु हैं। जब छोटा बच्चा या अन्य कोई वक्ता - "मैं क्या बोलता हूँ, मुझे १ यह ग्रंथ विद्वान् मुनिराज श्री अभयशेखरविजयजी कृत गुर्जर अनुवाद के साथ 'आदीश्वर जैन टेम्पल ट्रस्ट वालकेश्वर' से प्रकाशित हो चूका है।