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● जातिकेवलसूत्रसंवादः O
७८ भाषारहस्यप्रकरणे - स्त. १. गा. १८ व्यवहारनयमतापेक्षया द्रष्टव्यम्, अन्यथा विप्रतारणादिबुद्धिपूर्वकमसत्येऽन्तर्भवति, अन्यस्तु सत्य इति (पं. सं. ) । ।१७।।
उक्तार्थे सूत्रोपष्टंभमाह
एतो च्चिय आणमणी, जाईए केवला य णिदिट्ठा। पण्णवणी पण्णवणासुत्ते तत्तत्थदंसीहिं । । १८ ।। यतो निश्चयेन चरमभाषाद्वयं पूर्वभाषाद्वयेऽन्तर्भावितम् इत एवाज्ञापनी असत्यामृषाभेदान्तर्गणिताऽपि जात्या सामान्यपुरस्कारेण, केवला = तद्विनिर्मुक्ता च प्रज्ञापनासूत्रे तत्त्वार्थदर्शिभिः श्यामाचार्यैः प्रज्ञापनी निर्दिष्टा । तथाहि
"अह भंते! जातीति इत्थि आणमणी, जातीति पुमआणमणी, जातीति नपुंसग आणमणी, पण्णवणी णं एसा भासा ? ण एसा भासा मोसा? हंता गोयमा! जातीति इत्थिआणमणी जातीति पुमआणमणी जातीति नपुंसगआणमणी, पण्णवणी णं एसा भासा ण एसा भासा मोसत्ति । अह भंते! जा य इत्थिआणमणी, जा य पुमआणमणी, जा य नपुंसगआणमणी पण्णवणी णं एसा भासा ? ण एसा भासा मोसा? हंता गोयमा! जा य इत्यिआणमणी, जा य पुमआणमणि, जा य नपुंसगआणमणी पण्णवणी णं एसा भासा ण एसा भासा मृषायाः सद्भ्योहितत्वस्याऽसत्त्वेन व्युत्पत्त्यर्थविरहान्निश्चयनयमतेऽसत्यायामेवान्तर्भावात् । । १७ ।।
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'जातीति इत्थि आणमणी इति । अत्र मलयगिरिचरणैरेवं व्याख्यातं जातिमधिकृत्य स्त्रिया आज्ञापनी यथा 'अमुका ब्राह्मणी क्षत्रिया वैवं कुर्यादिति एवं जातिमधिकृत्य पुमाज्ञापनी नपुंसकाज्ञापनी प्रज्ञापनी एषा भाषा ? नैषा से प्रयुक्त होती है वह भाषा परमार्थ से निश्चयनय के अभिप्राय से मृषा असत्यभाषा में ही समाविष्ट होती है और अन्य भाषा = अर्थात् विप्रलिप्सादि से अप्रयुक्त असत्यानृषाभाषा सत्यभाषा में अंतर्गत है। पंचसंग्रह की टीका में ही कहा गया है कि "असत्यामृषा भाषा भी मिश्रभाषा की तरह व्यवहारनय की दृष्टि से ही स्वतंत्र भाषारूप से है यानी भाषा का अतिरिक्त एक प्रकार है। अन्यथा निश्चयदृष्टि से= परमार्थ से तो दूसरों को ठगने की बुद्धि से बोली हुई असत्यामृषा भाषा भी असत्यभाषा में ही अन्तर्भूत होती है। अन्य अर्थात् दूसरों को ठगने की इच्छा के सिवा ही प्रयुक्त असत्यामृषाभाषा तो सत्यभाषा में प्रविष्ट होती है।" इस तरह पंचसंग्रह टीका से भी स्पष्ट हो जाता है कि असत्यामृषाभाषा भी यथासंभव सत्य या असत्य भाषा में अंतर्भूत होती है, किन्तु अतिरिक्त नहीं है। दूसरों को ठगने की इच्छा से प्रयुक्तभाषा को असत्यभाषा कहने का तात्पर्य ऐसा प्रतीत होता है कि सत्यपद का अर्थ है 'सद्भ्यो हितं सत्यं' अर्थात् जो भाषा संत को हितकारी हो वह सत्य है यह सत्यभाषा का व्युत्पत्ति अर्थ है। विप्रलिप्सा आदि से प्रयुक्त भाषा संत को हितकारक न होने से सत्य नहीं है, किन्तु असत्यभाषा ही है ।।१७।।
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'निश्चयनय से सत्यमृषाभाषा और असत्यामृषाभाषा का प्रथम दो भाषा में यथासंभव समावेश होता है इस बात को ग्रंथकार १८वीं गाथा से आगम के बल से सिद्ध करते हैं।
गाथार्थ :- अतएव तत्त्वार्थद्रष्टा श्यामाचार्य ने प्रज्ञापनासूत्र में जातिरूप से और जाति के सिवा आज्ञापनी भाषा को प्रज्ञापनी = प्ररूपण करने योग्य बताई है । १८ ।
विवरणार्थ :- निश्चयनय मिश्र भाषा और अनुभय भाषा का, जो कि व्यवहारनय की दृष्टि से भाषा के अंतिम भेदद्वय हैं, यथासंभव सत्य और असत्य भाषा में समावेश करता है। अतएव महनीय पूर्वधर तत्त्वार्थदर्शी श्यामाचार्य ने अपने रचे हुए प्रज्ञापना नाम के उपांग में जाति का पुरस्कार कर के और जाति का पुरस्कार किये बिना आज्ञापनी भाषा का असत्यामृषाभाषा के द्वितीय भेद = प्रकार में समावेश करने पर भी उसे प्रज्ञापनी अर्थात् अर्थप्रतिपादन करने योग्य बताई है। विवरणकार साक्षी के लिए प्रज्ञापना सूत्र के पाठ को बता रहे हैं, जिसका अर्थ निम्नोक्त है ।
* आज्ञापनी भाषा सत्यभाषा भी है प्रज्ञापनासूत्र *
| पुरुष
"अह भंते!" इति । गौतमस्वामीजी वर्धमानस्वामी को प्रश्न करते हैं कि- "हे भगवंत! जाति स्त्री आज्ञापनी भाषा, जाति १ इत एवाज्ञापनी जात्या केवला च निर्दिष्टा । प्रज्ञापनासूत्रे तत्त्वार्थदर्शिभिः । । १८ ।।
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२ अथ भदन्त जातिरिति स्त्र्याज्ञापनी जातिरिति पुमाज्ञापनी जातिरिति नपुंसकाशापनी प्रज्ञापन्येषा भाषा ? नैषा भाषा मृषा ? हन्त गौतम! जातिरिति...! अथ भदन्त या च स्त्र्याज्ञापनी या च पुमाज्ञापनी या च नपुंसकाज्ञापनी प्रज्ञापन्येषा भाषा ? नैया भाषा मृषा ? हन्त गोतमा या च... ३ अविनीतमाज्ञापयन् क्लिश्नाति भाषते मृषामेव। घंटालोहं ज्ञात्वा कः कटकरणे प्रवर्तेत । ।