________________
८० भाषारहस्यप्रकरणे - स्त.१. गा. १८
० जातिकेवलसूत्रसमर्थनम् ० भासइ मुसं चेव। घंटालोहं नाउं, को कडकरणे पवत्तिज्जा।।( ) इत्यभिप्रायेण प्रतिवचनौचित्याच्च समर्थितम् । जातिसूत्रमप्येवमेव, नवरं सर्वत्राज्ञापनयोग्यत्वासंभवेऽपि सम्भवाभिप्रायग्रहणान्नासंभव इति, तथापि सत्यासत्यान्यतर-त्वेऽविवाद एवान्यथाऽसत्यामृषात्वे-नैव सत्यत्वव्यतिरेकनिश्चयात्प्रश्ननिबन्धनसत्यत्वसन्देहस्यैवानुपपत्तेः।
'एवे'ति । अनेन पारिभाषिकसत्यत्वस्य व्यवच्छेदः कृतः। 'अविणीयमिति। अस्या गाथाया अभिप्रायः "क्रिया हि द्रव्यं विनमयति नाऽद्रव्यमि"त्येवं मलयगिरिचरणैः प्रदर्शितः। 'जातिसूत्रमिति। 'अह भंते! जातीति इत्थिआणमणी' इत्यादि सूत्रम्। ननु स्त्रीत्वादिसामानाधिकरण्येनाऽऽज्ञापनयोग्यत्वमस्तु स्त्रीत्वाद्यवच्छिन्ने कथमाज्ञापनयोग्यत्वं? इत्याशङ्कायामाह - 'नवरमिति। सम्भवाभिप्रायग्रहणादिति। स्त्रीत्वादिकं यत्राऽस्ति तत्राऽऽज्ञापनयोग्यत्वसम्भवाभिप्रायग्रहणादित्यर्थः। ततो नासम्भव इति भावः।। __ननु निश्चयनयेन चरमभाषाद्वयस्य पूर्वभाषाद्वयेऽन्तर्भावसमर्थनार्थमिदं सूत्रमवलम्बितं किन्तु भवद्भिस्सूत्रमेव समर्थितं न तु स्वेष्टमिति 'विनायकं प्रकुर्वाणो रचयामास वानरमि'ति न्यायापात इत्याशङ्कायामाह 'तथापी'ति। अविवाद एवेति| परमार्थतोऽसत्यामृषाभाषायाः सत्यासत्यान्यतरत्वे विप्रतिपत्तिर्नास्त्येवेत्यर्थः । विपक्षे बाधकतर्कमाह - 'अन्यथेति। आज्ञापनीभाषाया असत्यामृषाभाषाभेदान्तःपरिगणितायाः सत्यासत्यान्यतरत्वविप्रतिपत्तावित्यर्थः। 'सत्यत्वव्यतिरेके ति । यद्यपि आज्ञापन्यामसत्यामृषात्वप्रकारकज्ञानेन सत्यत्व-मृषात्व-मिश्रत्वाभावनिश्चयो जायेत, असत्यामृषात्वस्य तन्मते तस्य सत्यत्वाद्यसामानाधिकरण्येन सत्यत्वाद्यभावव्याप्यत्वात् तथापि सत्यत्वसन्देहानुपपत्तावप्रयोजकत्वान्मृषात्व-मिश्रत्वे उपेक्ष्य सत्यत्वव्यतिरेकनिश्चयादित्युक्तम्। अनुपपत्तेरिति। तदभाववत्तानिश्चयस्य तद्वत्ताबुद्धिप्रतिबन्धकत्वनियमात् आज्ञापन्यामसत्यामृषात्वप्रकारकज्ञानप्रयुक्तसत्यत्वाभावनिश्चये सति बुद्धिविशेषरूपहै" वह क्या उसे मोड देकर बनाई जाती जाली आदि नाजुक चीज बनाने के लिए प्रयास करेगा? यानी नहीं करेगा। तात्पर्य यह है कि अग्निताप आदि क्रिया भी योग्य लोहा आदि द्रव्य को नम्र-नाजुक बनाती है, अयोग्य द्रव्य को नहीं। जो लोहा गढ पीढ कर बनाया हुआ नहीं है, मगर परती है यानी घंट के योग्य (कास्टिंग) है, उससे नाजुक चीज बनाने का प्रयास करनेवाला सिर्फ क्लेश-दुःख का अनुभव करता है वैसे अविनीत अयोग्य को आज्ञा देनेवाला सिर्फ क्लेश का अनुभव करता है - यह तात्पर्य है। इस तरह केवलसूत्र यानी व्यक्तिविषयक आज्ञा की प्रतिपादक स्त्री आदि आज्ञापनी भाषा के सूत्र के प्रश्नांश का और समाधानांश का समर्थन किया गया है। जातिसूत्र का भी इस तरह समर्थन किया गया है।
शंका :- जाति सूत्र का अर्थ है जाति का पुरस्कार करनेवाला सूत्र । अतः जाति स्त्री आज्ञापनी सूत्र का अर्थ होगा जो भाषा जाति का आलंबन ले कर स्त्री को आज्ञा दे रही है वह भाषा | मगर स्त्रीजाति जिनमें है, उन सब स्त्रियों को आज्ञा करना संभव ही नहीं है, फिर जातिस्त्री आज्ञापनी भाषा का संभव ही कैसे होगा? तथा उसका समर्थन भी कैसे होगा? अर्थात् जब जातिस्त्री आज्ञापनी भाषा ही नहीं है, तब उसका समर्थन भी वन्ध्यापुत्रनामोत्कीर्तनतुल्य होगा। इस तरह जाति पुरुषआज्ञापनी आदि में भी होगा।
* संभावनाअभिप्राय से जातिसूत्र की उपपत्ति * समाधान :- 'नवरं' इति । आपकी यह बात ठीक है कि सर्वत्र यानी स्त्रीमात्र को, पुरुषमात्र को और नपुंसकमात्र को आज्ञा करना संभव नहीं है, मगर हम यह तो कहते ही नहीं है कि - जाति स्त्री आदि आज्ञापनी भाषा सब स्त्रियों आदि को आज्ञा देनेवाली भाषा है। हमारा तो तात्पर्य यह है कि स्त्रीत्व आदि जिसमें है उसमें "यह आज्ञा देने योग्य है" इस तरह आज्ञा देने की योग्यता की संभावना कर के ही यह जाति आज्ञापनी आदि भाषा प्रवृत्त होती है। अब तो असंभव दोष की कोई संभावना ही नहीं है। अतः जातिसूत्र का समर्थन भी ठीक ही है। __ शंका :- आपने तो पूर्व में - निश्चयनय के अभिप्राय से अंतिम दो भाषाओं का प्रथम दो भाषाओं में समावेश होता है - ऐसा निरूपण किया था और इसका समर्थन करने के लिए आपने प्रज्ञापना सूत्र के उपर्युक्त पाठ का उपादान ग्रहण किया है मगर यहाँ तक के आपके प्रयत्न से सिर्फ इतना ही सिद्ध हुआ है कि - 'जातिसूत्र और केवलसूत्र का समर्थन कैसे किया जाय?' मगर इससे