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* घटे खण्डपर्यायोत्पादा *
३९ न च 'वाच्यमेवं भिद्यमानानां भाषाद्रव्याणामेव नाशापत्तिरवयवविभागाद्रव्याऽसमवायिकारणीभूत-विजातीयवयवसंयोगनाशादिति
नैयायिकमतं खण्डयितुमुपक्रमते 'न चेति' | 'असमवायिकारणीभूते' ति। अत्र समवायिकारणसमवेतत्वे सति कार्यजनकत्वम असमवायिकारणत्वम। "विजातीयावयवसंयोगनाशादि"ति। अवयवसंयोगे वैजात्यं च कार्यजनिनियामकत्वे सति कार्यस्थितिनियामकत्वं बोध्यम् । इयमत्र नैयायिकानां प्रक्रिया - अवयवेषु क्रियोत्पत्त्यनन्तरमवयवेषु विभागोत्पादः; तदनन्तरमसमवायिकारणीभूतविजातीयावयवसंयोगनाशः, ततः कार्यद्रव्यविनाशः। न चेष्टापत्तिः स्याद्वादिभिः कर्तुं शक्यते; तथा सति भाषाद्रव्याणां सतां चतुःसमयेषु लोकव्यापित्वाभ्युपगमभङ्गप्रसङ्गादिति नैयायिकाशयः। यद्यपि समवायसम्बन्धस्यैवाऽसत्त्वात् समवायेन समवायिकारणवृत्तित्वे सति कार्यजनकत्वरूपस्याऽसमवायिकारणत्वस्य विजातीयावयवसंयागेऽप्रसिद्ध्या असमवायिकारणनाशस्याऽप्रसिद्धप्रतियोगिकत्वेनाऽप्रसिद्धत्वं दूषणं तथापि स्फुटत्वात्तदुपेक्ष्य स्याद्वादी परिहारान्तरमाह 'घट' इत्यादिना । छिद्रघटे 'स एवायं घट' इति प्रत्यभिज्ञानान्न पूर्वघटनाशः न वा छिद्रघटोत्पादः किन्तु धर्मिकल्पनातो धर्मकल्पना लघीयसीतिन्यायेन पूर्वघटे छिद्रपर्यायोत्पादः कल्प्यते। अत्र द्रव्यान्तरोत्पादानभ्युपगमेऽयमेवाशयः स्याद्वादिनाम् । यत्तु घटत्वावाच्छिन्ने कृतित्वेन हेतुत्वेऽपि खण्डघटाद्युत्पत्तिकाले कुलालादिकृतेरसत्त्वादीश्वरसिद्धिरिति दीधितिकृतोक्तं तन्न सम्यक्, अस्माभिस्तत्र घटे खण्डत्वपर्यायस्यैवाऽभ्युपगमात्। युक्तञ्चैतत्; प्रत्यभिज्ञोपपत्तेः। अत एव पाकेनाऽपि नान्यघटोत्पत्तिः; विशिष्टसामग्रीवशाद् विशिष्टवर्णस्य घटादेव्यस्य कथञ्चिदविनाशेऽप्युत्पत्तिसंभवादिति व्यक्तं सम्मतिटीकायाम् । एतेन प्रत्यभिज्ञानं च ज्वालादिवत् सामान्यविषयं (प्र.भा. २६४) इति न्यायकन्दलीकारवचनं परास्तम् तत्र सादृश्यादिदोषेण भ्रमत्वकल्पने गौरवात। "विशिष्टध्वंसप्रयोजकत्वेनेति। विशिष्टस्य ध्वंसः प्रयोजको यस्य सः, तदभावस्तत्त्वं तेनेत्यर्थः । अयमाशयो नैयायिकानां, 'छिद्रघट उत्पन्न' इति व्यवहारात छिद्रघटोत्पादस्य सिद्धिः। निश्छिद्रघटध्वंसस्य छिद्रघटप्रयोजकत्वेन निश्छिद्रघटध्वंसं विना छिद्रघटोत्पादस्यानुपपन्नत्वात् निश्छिद्रघटध्वंसः सिध्यति । एवमेव तार्किकमतेन भाषाद्रव्यध्वंसः सेत्स्यति। तन्निराकरोति "अविशिष्ट" इत्यादिना । वस्तुतोऽविशिष्टस्य तादात्म्येन विशिष्टव्यापकत्वान्न विरोधगंधोऽपि। स्याद्वादिनामयमाशयः विशिष्टोत्पादस्य विशिष्टान्तरपरिपन्थित्वेऽपि कि किसी भी कार्य का नाश कार्य के असमवायिकारण के नाश से होता है। जो कार्य के समवायि कारण में रहता हो और कार्य का जनक हो वह असमवायि कारण कहा जाता है जैसे कि कपालद्वयसंयोग। जब घट पर दंडादि प्रहार होता है तब कपालद्वय में कर्म = क्रिया उत्पन्न होती है बाद में कपालद्वय में विभाग होता है बाद में कपालद्वयसंयोग का, जो कि घट का असमवायि कारण है, नाश होता है। इसके बाद घट का नाश होता है। इसी तरह भाषाद्रव्यों के अवयवों में कर्म = क्रिया उत्पन्न होने के बाद, अवयवविभाग उत्पन्न होगा, जो कि आपको खंडादि भेद रूप से इष्ट है। उसके बाद भाषाद्रव्य के असमवायिकारणरूप भाषा द्रव्यों के अवयवों का विजातीय संयोग नष्ट होगा। कार्य की स्थिति असमवायि कारण के अधीन होने से असमवायिकारणात्मक विजातीय अवयवसंयोग के नाश से भाषा द्रव्य का ही नाश हो जायेगा। इसका इष्टापत्तिरूप से स्वीकार करना भी स्याद्वादी के लिए मुनासिब नहीं है, क्योंकि ऐसा स्वीकार करने पर भाषाद्रव्यों की चार समय में लोकव्यापिता की उपपत्ति नहीं हो सकेगी। अतः भाषाद्रव्यों के भेद का ऐसा निरूपण करना ठीक नहीं है।
* भेद पर्याय स्वीकार पक्ष में भाषाद्रव्य का नाश नहीं है * स्याद्वादी :- जनाब! हीरे की परख तो जौहरी ही कर सकता है, कुम्हार नहीं। वैसे ही जगत् के स्वरूप का सच्चा ख्याल स्याद्वादी को ही हो सकता है, एकांतवादी को नहीं। "असमवायि कारण के नाश से कार्यद्रव्य का नाश होता है" ऐसी आपकी मान्यता भ्रान्त है। जैसे घट की एक कंकड घट में से निकल जाती है तब पूर्व घट में छिद्रपर्याय उत्पन्न होता है, न कि नवीन छिद्रघटात्मक द्रव्य । ठीक वैसे ही पूर्व भाषाद्रव्यों में भी भेदपर्याय उत्पन्न होता है, न कि नवीन भिन्न भाषाद्रव्य । अतः भिद्यमान = भिन्न होते हुए भाषाद्रव्यों के विनाश का आपादन करना समीचीन नहीं है।
१ प्रथमं 'वाच्यं' अधिकं भाति। कप्रतौ पूर्वं पश्चाच्च 'वाच्यं' पदमस्ति, मुद्रितप्रतौ च पश्चात् 'वाच्यं' पदं नास्ति।