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* पद-पदार्थसम्बन्धमीमांसा *
५९ न चैवमनुमानोच्छेदः, तत्रानुभवसिद्धप्रमाविशेषकारणस्य व्याप्त्यादेरबाधाद्, अत्र तु सङ्गतिबाध-स्योक्तत्वादित्यत आह - 'ओहारिणी य एक सुआउ णायं इमंति ववहारा। संभावणा य निण्णयहेउअसज्सत्ति दट्ठव्वं ।।१४।।
एषा च = भाषा, अवधारिणी = निश्चायिका, पदपदार्थयोः सङ्केतरूपसम्बन्धव्यवस्थापनेन हेत्वनुपपत्तिनिरासात् । न स्यादित्यत आह - 'अत्र विति। शब्दे तु तादात्म्यतदुत्पत्त्यन्यतरसम्बन्धबाधस्योक्तत्वादिति सौगताशयं निराकरोति 'ओहारिणी य' इत्यादिना।
विवृणोति समाधानं 'एषे'त्यादिना । अत्रैवमनुमानप्रयोगाः भाषा प्रमाणं निर्णायकत्वात् प्रत्यक्षवत् । तदपि कुत इति चेत्? उच्यते भाषा निर्णायिका प्रतिनियतबोधजनकत्वात् प्रत्यक्षवत् । तदपि कुत इति चेत्? उच्यते, भाषा प्रतिनियतबोधजनिका सङ्केताख्यसम्बन्धेनाऽर्थसम्बद्धत्वात्। एतेन तादात्म्यतदुत्पत्तिविरहेण शब्दार्थयोरसम्बन्धात्प्रतिनियतबोधानुपपत्तिः निरस्ता। पदपदार्थयोः तादात्म्य-तदुत्पत्तिव्यतिरिक्तस्य 'इदं पदमिममर्थं बोधयत्वित्यादिसङ्केतरूपस्य संबन्धस्य व्यवस्थापनात्। एतेन मणिप्रभायां प्रवृत्तस्य यथा मणिप्राप्तिस्तथैवास्माकमप्याकारे प्रवृत्तस्य बाह्यप्राप्तिरिति निरस्तम मणिप्रभायां तत्सन्निधानाविनाभावान्मणिमासादयति न चाकाररूपस्य विकल्पस्य तथासम्भव इति । एतच्चात्म-विवेकदीधितौ शिरोमणिना स्पष्टीकृतमिति अधिकं ततोऽवसेयम् ।
में पारमार्थिक सत्यत्व का निषेध करने से व्यवहार की अनुपपत्ति आदि दोषों को कोई अवकाश नहीं है।
शंका :- यदि शब्द और अर्थ परस्पर असम्बद्ध होने से शब्द प्रमाण नहीं है' - ऐसा आप कहेंगे तब तो शब्द की तरह अनुमान भी अप्रमाण ही हो जायेगा, क्योंकि अनुमानस्थल में भी साध्य और हेतु में तादात्म्य-तदुत्पत्ति संबंध नहीं होता है। इस तरह शब्द में प्रमाणत्व न मानने पर अनुमान में प्रामाण्य दुर्घट हो जाने से अनुमान प्रमाण का ही उच्छेद होने की अनिष्टापत्ति आयेगी।
* अनुमान प्रमाण है - बौद्ध * समाधान :- 'तत्र' इति । आपकी यह बात भी तथ्यहीन है, क्योंकि अनुमानस्थल में तो हेतु में व्याप्ति रहती है, जो कि प्रत्यक्ष से विलक्षण प्रमा का कारण है। अनुमान में प्रामाण्य अनुभवसिद्ध है। धूम होने पर पर्वत में आग अवश्य रहती है। कभी भी ऐसा नहीं देखा है कि धूआँ होने पर भी पर्वत में आग न हो। इसलिए अनुमान में अनुभवसिद्ध प्रामाण्य का अपलाप करना ठीक नहीं है। जब अनुमिति प्रमा विशेष है, तब तो उसका हेतु अवश्य होना चाहिए, वह है व्याप्तिजान । यह व्याप्ति हेतु में रह कर अनुमिति में प्रामाण्य की घोषणा करती है। व्याप्ति अबाधित होने से अनुमान प्रमाण ही है, अप्रमाण नहीं।
शंका :- यदि अनुमान प्रमाण है तब तो शब्द भी प्रमाण ही होगा, क्योंकि वे दोनों परोक्ष प्रमिति को उत्पन्न करते हैं। अतः अनुमान को प्रमाण कहना और शब्द को अप्रमाण कहना यह तो अर्धजरतीय न्याय है।
समाधान :- 'अत्र तु' इति । साँप निकल गया, अब लकीर पीटने से क्या? हमने पहले ही बता दिया है कि - शब्द में अर्थ का न तो तादात्म्य संबन्ध है और न तो तदुत्पत्ति संबंध है फिर शब्द में प्रामाण्य की घोषणा करना यह आपका निरर्थक प्रयास है। पर्वत में आग न होने पर भी 'पर्वत पर आग है' ऐसे अप्रामाणिक शब्द भी हम सुनते हैं
अब प्रकरणकार १४वीं गाथा से बौद्ध के दाँत खट्टे करते हैं। सुनिये, प्रकरणकार का वक्तव्य,
गाथार्थ :- 'यह भाषा अवधारिणी है' | 'मैंने यह श्रुत से जाना है' यह व्यवहार होता है। यह भाषा संभावनारूप नहीं हैं, क्योंकि संभावना निर्णायक हेतु से साध्य नहीं होती है, इस प्रकार समझना चाहिए।।१४।।
विवरणार्थ :- इस श्लोक के प्रथम पाद से बौद्ध मत का निराकरण अभिप्रेत है। द्वितीय पाद से वैशेषिकमत का अपाकरण इष्ट है और पश्चार्द्ध से नास्तिकमत का खंडन अभीष्ट है। यह आगे जा कर स्पष्ट हो जायेगा। बौद्ध मत का निराकरण कैसे किया गया है? यह देखिये;
१ अवधारिणी चैषा श्रुताज्ज्ञातमेतदिति व्यवहारात्। सम्भावना च निर्णयहेत्वसाध्येति द्रष्टव्यम् ।।१४।।