________________
६८ भाषारहस्यप्रकरणे - स्त.१. गा. १४
० सम्भावनात्वस्य कार्यतावच्छेदकत्वे प्रतिबध्यतावच्छेदकगौरवम ० ___'इदमित्थमेवे'त्यवधारणस्य, 'न सन्देहि किन्तु निश्चिनोमी'त्याद्यनुव्यवसायस्य चानुपपत्तेरित्यन्यत्र विस्तरः । तावच्छेदकधर्मलाघवं तृतीयभेदावान्तरप्रकाररूपं बोध्यम्।
ननु सम्भावनायाः तज्जन्यत्वाऽभ्युपगमे आगतं प्रतिबध्यतावच्छेदकगौरवं कथं दूषणमिति चेत? श्रुणु, प्रतिबध्यतावच्छेदकं प्रतिबन्धकाभावकार्यतावच्छेदकं भवति। प्रतिबन्धकाभावनिष्ठकारणता च कार्याऽव्यवहितप्राक्षणावच्छेदेन कार्याधिकरणवृत्त्यभावप्रतियोगिप्रतियोगिकत्वरूपा। तत्र च प्रतिबध्यतावच्छेदककोटौ गुरुतरप्रतिबध्यतावच्छेदकरूपकार्यतावच्छेदकप्रवेशे कारणताशरीरे गौरवात कार्यकारणभावे गौरवं भवति । अतः प्रतिबध्यतावच्छेदकगौरवस्य दूषणत्वमिति निपुणतरं निभालनीयमिति दिक् ।
अनुमितौ निश्चयत्वमुपपाद्य शाब्दबोधेऽपि तत्संगमयति 'इदमित्यादिना । आप्तोपदेशादपि सम्भावनोत्पादाभ्युपगमे इदमित्थमेवेत्यवधारणमनुपपन्नं स्यात्। सर्वतो बलवती ह्यन्यथानुपपत्तिः। अनुव्यवसायस्य व्यवसायस्वरूप
* नास्तिकमत में प्रसिद्ध अवधारण की अनुपपत्ति * 'इदमित्थ.' इत्यादि। इससे अतिरिक्त दूसरी बात यह है कि जैसे व्याप्तिज्ञान आदि से निश्चयात्मक अनुमिति होती है, वैसे आप्तोपदेश से भी निश्चयात्मक ज्ञान की ही उत्पत्ति होती है, क्योंकि आप्तपुरुषों के उपदेश को सुनने के पश्चात् 'यह ऐसा ही है' ऐसा निश्चय होता है, "शायद यह ऐसा होगा।" इत्याकारक संशयविशेष संभावना नहीं। यदि शब्द से संभावना की उत्पत्ति मानेंगे तब यह अवधारण=निश्चय, जो अनुभव सिद्ध है, कैसे उत्पन्न होगा? शब्द से संभावना की उत्पत्ति मानने में अवधारण=निश्चय की अनुपपत्ति हो जायेगी। इसका समाधान तभी हो सकेगा जब शब्द से आप्तपुरुष के उपदेश से निश्चयात्मक शाब्दबोध की उत्पत्ति का स्वीकार किया जाय। ___ 'न सन्देह्मि.' इत्यादि। इसके अलावा अन्य भी अनेक प्रमाण है जिससे यह सिद्ध हो सकता है कि व्याप्तिज्ञान आदि से निश्चयात्मक ज्ञानविशेष की ही उत्पत्ति होती है। देखिये, कोई भी व्यवसाय ज्ञान- "संशयरूप है या निश्चयात्मक है? प्रत्यक्षरूप है या अनुमितिरूप है? स्मरणरूप है या अनुभवरूप है?" - इसका निर्णय उस व्यवसायज्ञान के उत्तर काल में होनेवाले अनुव्यवसाय ज्ञान से होता है। व्यवसायज्ञान का स्वरूप व्यवसायज्ञान की विषयता आदि का व्यवस्थापक नियामक तदुत्तरकालवर्ती अनुव्यवसायात्मक ज्ञान होता है, क्योंकि अनुव्यवसाय ज्ञान व्यवसायज्ञान के अव्यवहित उत्तरकाल में उत्पन्न होने से व्यवसायज्ञान विषयक होता है। हाँ, व्यवसाय ज्ञान भ्रांत भी हो सकता है, संशयरूप भी हो सकता है, मगर अनुव्यवसाय ज्ञान कभी भी भ्रान्त या संशयात्मक नहीं होता है। वह सर्वदा सर्वत्र निश्चयात्मक ही होता है और प्रमाज्ञानरूप ही होता है। अतः यहाँ व्याप्तिज्ञानादि से जन्य ज्ञान (=अनुमिति) निश्चयरूप है या विध्यंश में उत्कटकोटिक संशयात्मक संभावनास्वरूप है? इस समस्या को हल करने के लिए मध्यस्थ अनुव्यवसाय को ही न्यायधीश बनाना होगा, जिसका निर्णय हमारे लिए और आपके लिए अवश्य स्वीकर्तव्य बना रहेगा। अब चलिये, अनुव्यवसाय के पास।
* चार्वाक के मत में अनुव्यवसाय की अनुपपत्ति * पर्वत में धूम देख कर व्याप्तिस्मरण होने पर 'पर्वत अग्निवाला है' ऐसा व्यवसाय ज्ञान होने के पश्चात्(१) "पर्वत अग्निवाला है-ऐसा मैं निश्चय करता हूँ; न की संशय" ऐसा अनुव्यवसाय होता है या(२) "पर्वत अग्निवाला है-यह मैंने निश्चित किया है, संदिग्ध नहीं-" ऐसा अनुव्यवसाय होता है या(३) 'मैं "पर्वत अग्निवाला है" इत्याकारक निश्चयवाला हूँ; "पर्वत वह्निवाला है या नहीं?" इत्याकारक संदेहवाला या "पर्वत अग्निवाला होगा" इत्याकारक संभावनावाला नहीं हूँ' ऐसा अनुव्यवसाय होता है। उपर्युक्त तीन प्रकार के अनुव्यवसाय से यही सिद्ध होता है कि - व्याप्तिज्ञानादि के पश्चात् काल में निश्चयात्मक ज्ञान ही उत्पन्न होता है, संशयात्मक या संभावनात्मक ज्ञान नहीं। यह अनुव्यवसाय का चुकादा आपको इच्छा न होने पर भी अवश्य मान्य करना होगा। इस तरह शब्दस्थल में भी आकांक्षादियुक्त पदों को सुनने के बाद व्यवसायरूप शाब्दबोध के बाद में 'पद के अर्थ का निश्चय करता हूँ, संशय नही' इत्याकारक अनुव्यवसाय भी यही फैसला देता है कि "आकांक्षा आदि से युक्त शब्द से जन्य शाब्द बोध भी निश्चयात्मक ही है, संशयरूप नही"। अतः व्याप्तिज्ञान, पदज्ञान आदि के उत्तरकाल में निश्चयात्मक अनुमिति और शाब्दबोध उत्पन्न होता है - यह सिद्ध हुआ। इस विषय का विस्तार अन्य ग्रंथ में किया है - ऐसा कह कर अन्य ग्रंथों को देखने की विस्तार