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* निश्चयत्वापेक्षया सम्भावनात्वस्य कार्यतावच्छेदकत्वे लाघवम् *
सम्भावनायास्तज्जन्यत्वे तद्घटितनिश्चयसामग्रीप्रतिबध्यतावच्छेदककोटावनुत्कटकोटिकत्वादिप्रवेशे गौरवात् । त्वात् । आदिपदेन परामर्शज्ञानस्य ग्रहणम् । संशयव्यावृत्तेति विशेषणं च परिचायकम् । परिचायकं नाम तदघटकत्वे सत्यर्थविशेषज्ञापकम्। तेन संशयभिन्ना याऽनुमितिस्तद्वृत्त्यनुमितित्वं व्याप्तिज्ञानादिकार्यतावच्छेदकमित्यर्थः । धूमदर्शनादेरग्न्यादिसम्भावनाहेतुत्वे गौरवं दृढयति सम्भावनायाः, तज्जन्यत्वे व्याप्तिज्ञानादिजन्यत्वे तद्घटितनिश्चयसामग्रीप्रतिबध्यतावच्छेदककोटाविति । व्याप्तिज्ञानघटिता या परामर्शज्ञानरूपा निश्चयसामग्री । घटितत्वं चात्र व्याप्तिज्ञानविषयिताव्याप्यविषयिताकत्वरूपं बोध्यं परामर्शज्ञाने व्याप्तिज्ञानीयविषयितायाः सत्त्वात्, तस्याः प्रतिबध्यतावच्छेदककोटावित्यर्थः । सम्भावनाया विध्यंशे उत्कटकोटिकसंशयरूपत्वेन परामर्शदशायां अनुत्कटकोटिकसंशयोत्पादवारणाय विध्यंशेऽनुत्कटकोटिकसंशयत्वस्य तादृशनिश्चयसामग्रीप्रतिबध्यतावच्छेदकत्वकल्पनमावश्यकम्। मत्पक्षे तु संशयत्वस्यैव तादृशनिश्चयसामग्रीप्रतिबध्यतावच्छेदकत्वाल्लाघवम् ।
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लाघवञ्च त्रिविधं भवति, सम्बन्धकृतं, उपस्थितिकृतं, शरीरकृतञ्च । तत्राद्यं दण्डत्वाद्यपेक्षया दण्डादेर्घटकारणत्वे सम्बन्धकृतं लाघवम्। द्वितीयं गन्धं प्रति गन्धप्रागभावस्य हेतुता शीघ्रोपस्थितिकत्वात् न तु रूपप्रागभावस्येति । अनेकद्रव्यत्वं विहाय महत्त्वत्वजातेः प्रत्यक्षकारणतावच्छेदकत्वाङ्गीकारे शरीरकृतं तृतीयं लाघवम् । शरीरकृतं लाघवञ्च कारणतावच्छेदकलाघवं, कार्यतावच्छेदकलाघवं विधेयतावच्छेदकलाघवं उद्देश्यतावच्छेदकलाघवं, साध्यतावच्छेदकलाघवं हेतुतावच्छेदकलाघवं प्रतिबध्यतावच्छेदकलाघवं प्रतिबन्धकतावच्छेदकलाघवं, शक्यतावच्छेदकलाघवमित्यादिकं नानाविधं भवति । केचित्तु कल्पनालाघवं चतुर्थमिति वदन्ति । प्रकृते तु स्याद्वादिमते प्रतिबध्यअनुमिति की ही उत्पत्ति होती है, संभावनात्मक अनुमिति की नहीं यह सिद्ध होता है। कार्य की उत्पत्ति का निर्णय आपके वचन से नहीं होता है, मगर अन्वयव्यतिरेक से होता है। अतः व्याप्तिज्ञान आदिरूप निश्चयात्मक अनुमिति की सामग्री से तो संशय से भिन्न अनुमिति ही उत्पन्न होती है। यह सिद्ध होने से व्याप्तिज्ञानादि का कार्यतावच्छेदक संशयभिन्नअनुमितित्व ही होगा अर्थात् संशयज्ञान से भिन्न अनुमिति में रहा हुआ अनुमितित्व नाम का धर्म कार्यता का नियामक होगा। आशय यह है कि व्याप्तिज्ञान आदि से जन्य ज्ञान में अनुमितित्वरूप धर्म होगा जो संशयज्ञान में नही रहता है।
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नास्तिक :- हमने पहले ही बता दिया है कि धूमदर्शन से अग्नि की संभावना की उत्पत्ति मानने की अपेक्षा अग्नि की निश्चयात्मक अनुमिति मानने में कार्यतावच्छेदक धर्म में गौरव होगा फिर भी आप गौरव दोष की उपेक्षा कर के अग्नि की निश्चयात्मक अनुमिति की उत्पत्ति होने की कल्पना क्यों कर रहे हैं ?
स्याद्वादी :- संभावनायास्तज्ज. इत्यादि । वाह ! मियाँ अपने मुँह मिट्ट बनता है! आप संभावना की उत्पत्ति मानने में लाघव की प्रसंसा कर रहे हो, मगर धूमदर्शन से अग्नि की संभावना की संभावना भी कथमपि संभव नहीं है। इसका कारण यह है कि अग्नि की निश्चयात्मक अनुमिति को छोड़ कर संभावना की उत्पत्ति मानने में ही गौरव है। देखिये, आपके अभिप्राय के अनुसार संभावना भावांश में उत्कटकोटिक संशयरूप ही है। अतः धूमदर्शन से अग्नि के अनुत्कटकोटिक संशय की उत्पत्ति का निवारण करने के लिये आपको अग्नि अंश में अनुत्कटकोटिक संशय को प्रतिबध्य मानना होगा। अतः धूमदर्शन-व्याप्तिज्ञान आदि का प्रतिबध्यतावच्छेदक=प्रतिबध्यता का नियामक धर्म भावांश में अनुत्कटकोटिकसंशयत्व को मानना होगा जब कि हमारे पक्ष में व्याप्तिज्ञानादि का प्रतिबध्यतावच्छेदक संशयत्व ही होगा। यहाँ भावांश में अनुत्कटकोटिकत्व को संशयत्व का विशेषण बनाना आवश्यक नहीं है। अतः आपके मत में संभावना की उत्पत्ति मानने में प्रतिबध्यतावच्छेक गौरव होता है। गुरुतर धर्म में प्रतिबध्यतावच्छेदकत्व की कल्पना दूषणरूप है, क्योंकि जो प्रतिबध्यतावच्छेदक होता है वह प्रतिबन्धकाभाव का कार्यतावच्छेदक होता है। अतः प्रतिबन्धकाभावनिष्ठ कारणता, जो कार्याऽव्यवहितप्राक्क्षणावच्छेदेन कार्याधिकरणवृत्तिअभाव - प्रतियोगिप्रतियोगिकत्वरूप है, उसकी प्रतिबध्यतावच्छेदक कोटि में गुरुतर प्रतिबध्यतावच्छेदकरूप कार्यतावच्छेदक का प्रवेश करने से कारणता के शरीर में गौरव होने से कार्यकरणभाव में गौरव होगा। यह तो सुविदित है कि लघुरूप से कार्यकारणभाव की संभावना हो तब गुरुरूप से कार्य-कारणभाव मान्य नहीं होता है। अतः धूमदर्शन से अग्नि की संभावना सिर्फ संभावनारूप = कल्पनारूप ही रहेगी, वास्तविक नहीं ।