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६६ भाषारहस्यप्रकरणे स्त. १. गा. १४
● चार्वाकमतचर्वणम् ० धूमदर्शनाद्यादरः । न च धूमादेरग्न्यादिसम्भावनाहेतुत्वे गौरवम्, तदभावाप्रकारकत्वघटितनिश्चयत्वाऽपेक्षया तदभावप्रकारकत्वघटितसंशयत्वस्य लघुत्वादिति चेत् ? न संशयव्यावृत्तानुमितित्वस्यैव व्याप्तिज्ञानादिजन्यतावच्छेदकत्वात् ।
'तत्प्रयोजकतये' ति । उत्कटत्वप्रयोजकतयेत्यर्थः । धूमदर्शनस्योत्कटत्वप्रयोजकविधया विध्यंशे उत्कटकोटिकसंशयरूपायां 'पर्वते वह्निना भवितव्यमित्यादिरूपायां सम्भावनायामेवोपयोगादित्यर्थः । धूमादेरिति । विषयवाचिना धूमग्रहणेन विषयिणं प्रत्ययमुपलक्षयति । 'सम्भाव्यमानवह्निसत्ताज्ञापको धूमः' इति यः प्रत्ययः तस्येत्यर्थः । उपलक्षणत्वात् पक्षधर्मताज्ञानमपि उपलक्षितं भवति । ततः सम्भाव्यमानसत्ताज्ञापकत्वपक्षधर्मताज्ञानादेरिति फलितम् । गौरवमिति कार्यतावच्छेदके गौरवमित्यर्थः । सम्भावनायाः कार्यत्वाभ्युपगमे कार्यतावच्छेदकं संशयत्वं स्यात् । तच्च तद्धर्माभावप्रकारकत्वे सति तद्धर्मप्रकारकत्वरूपं निश्चयस्य तु कार्यत्वाभ्युपगमे कार्यतावच्छेदकं निश्चयत्वं स्यात् । तच्च तद्धर्मप्रकारकत्वरूपमितिलाघवम् । धूमदर्शनादेरग्न्यादिसम्भावनाहेतुत्वे तु गौरवमिति शङ्काकर्तुराशयः । चार्वाकस्तन्निराकरोति- 'तदभावाप्रकारकत्वे 'त्यादिना । अवधारणरूपस्य निश्चयस्य तद्धर्माऽभावप्रकारकत्वाऽभावे सति तद्धर्मप्रकारकत्वरूपतया तद्धर्माभावाऽप्रकारकत्वघटितत्वात् सम्भावनारूपस्य संशयस्य च तद्धर्माभावप्रकारकत्वे सति तद्धर्मप्रकारकत्वरूपतया तद्धर्माभावप्रकारकत्वघटितत्वेनाऽभावाप्रवेशात् संशयत्वस्य कार्यतावच्छेदकत्वे लाघवमिति । निश्चये तद्धर्माभावाप्रकारकत्वानिवेशे संशयेऽतिव्याप्तिस्स्यादिति तन्निवेश आवश्यकः । तथा च गौरवमिति लौकायतिकाशयः ।
जैनः समाधत्ते 'ने' त्यादिना । अन्वयव्यतिरेकाभ्यां संशयव्यावृत्तानुमितित्वस्यैव व्याप्तिज्ञानादिजन्यतावच्छेदक
शंका :- न च धूमा. इति । धूम को देखने के बाद अग्नि की संभावना मानने में गौरव है, क्योंकि संभावना भाव अंश में उत्कटकोटिक संशयस्वरूप है और ऐसे संशय को कार्य मानने पर कार्यतावच्छेदक संशयत्व होगा, जो तद्धर्माभावप्रकारकत्वे सति तद्धर्मप्रकारकत्व स्वरूप है। यदि धूमदर्शन से अग्नि का निश्चय माना जाय तब निश्चय कार्य होने से कार्यतावच्छेदक यानी कार्यता का नियामक धर्म निश्चयत्व होगा जो तद्धर्मप्रकारत्वस्वरूप है। निश्चय के स्वरूप में तद्धर्माभावप्रकारकत्व का प्रवेश नहीं है। अतः धूमदर्शन से अग्नि का निश्चय मानने में लाघव है और अग्नि की संभावना मानने में गौरव है। अतः गौरव दोष के कारण धूमदर्शन से अग्नि की संभावना की उत्पत्ति होने का आग्रह कदाग्रह है, अतः त्याज्य है।
* संशय की अपेक्षा निश्चय का स्वरूप गुरूभूत है - चार्वाक *
समाधान :- तदभावा. इति। आप छोटे बच्चे को समझाने की कोशिष कर रहे हैं, ऐसा महसूस होता है, क्योंकि निश्चय के पूर्ण स्वरूप को आप छूपा रहे हो। यदि आप निश्चय के स्वरूप को नहीं पहचानते हैं, तो हम आपको निश्चय का स्वरूप बता रहे हैं। कान खोल कर सुनिये निश्चय का स्वरूप । निश्चयत्व का अर्थ है- एकस्मिन् धर्मिणि तद्धमाणिभावाप्रकारकत्वे सति तद्धर्मप्रकारकत्वम् । अर्थात् एक वस्तु में अमुक धर्म के अभाव का विशेषणविधया भान न हो और उस धर्म का विशेषणविधया भान हो ऐसा ज्ञान निश्चय है। जैसे कि पुरुष में पुरुषत्वरूप धर्म के अभाव का प्रकाररूप से भान न हो और पुरुषत्वरूप धर्म का विशेषणरूप से भान हो ऐसा 'यह पुरुष ही है' इत्याकारक ज्ञान निश्चयात्मक ज्ञान है। जब कि संशय का स्वरूप है- एकस्मिन् धर्मिणि तद्धर्माभावप्रकारकत्वे सति तद्धर्मप्रकारकत्वम् । अर्थात् एक ही वस्तु में अमुक धर्म के अभाव का विशेषणरूप से भान होते हुए उसी धर्म का विशेषणरूप से भान हो ऐसा ज्ञान संशय है। जैसे एक ही पुरुष में पुरुषत्व और पुरुषत्व के अभाव दोनों का विशेषणरुप से भान हो ऐसा "क्या यह पुरुष है या नहीं?" इत्याकारक ज्ञान संशयात्मक है। हम देख सकते हैं कि निश्यय के स्वरूप में विशेषण कुक्षि में तद्धर्माभावाप्रकारकत्व का प्रवेश है, जिसका अर्थ है तद्धर्माभावप्रकारकत्वाभाव, जब कि संशय के स्वरूप में विशेषणकुक्षि में तद्धर्माभावप्रकारकत्व का प्रवेश है। अतः संशय की विशेषणकुक्षि में द्वितीय अभाव का प्रवेश न होने से लाघव ही है। अतः गौरव दोष के कारण धूमदर्शन से वह्नि का निश्चय मानना ठीक नहीं है।
* धूमदर्शन का कार्यतावच्छेदक संभावनात्व नहीं है स्याद्वादी *
स्याद्वादी :- 'न' इति । लानत है आपकी अक्कल को। देखिए, अन्वय और व्यतिरेक से, धूमदर्शन से वह्नि की निश्चयात्मक