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६४ भाषारहस्यप्रकरणे - स्त.१. गा. १४
० सम्भवाभिधानप्रमाणनिरास: ० धूमादिदर्शनानन्तरमग्न्यादिव्यवहारस्याऽपि सम्भावनयैवोपपत्तेरिति । तत्राहसम्भावना च निर्णयहेत्वसाध्येति द्रष्टव्यम् । सम्भावना हि संशयरूपैव । सा च न परामर्शादिनिश्चयहेतुसाध्या, निश्चय-सामग्र्यां सत्यां संशयानुत्पादात्, अन्यथा वक्रकोटरादिज्ञाने सत्यपि स्थाणी पुरुषत्वसंशयोत्पादप्रसङ्गात् । लोकायतम् । तदभ्युपैतीति लौकायतिकः नास्तिक इति यावत्। 'ऋतुक्थादिसूत्रान्ताट्ठक्' (पाणि. ४/२/६०) इति सूत्रेणोक्थादिगणान्तर्गतत्वाकप्रत्ययः। लोकायतमधीते वेद वेति लौकायतिकः। 'न प्रमाणं' इति व्यभिचारिसाधारण्यादिति शेषः क्वचित संवादस्त्वजाकृपाणीयन्यायेनेति नास्तिकाशयः। 'कुतस्तरां शब्दा?' व्यभिचारित्वपरोक्षत्वाद्यविशेषादिति भावः ।
ननु परोक्षाग्न्यानयनादिव्यवहारः कथं स्यात्? इत्याह 'धूमादी'ति। यद्यपि अगृहीताऽसंसर्गकज्वलनादिस्मृतिरूपायां सम्भावनायामसद्विषयिण्यां परमार्थसद्विषयविषयकत्वरूपसंवादोऽपि न सम्भवति दृष्टसाधर्येण चानुमानाऽप्रामाण्यसाधनमनुमानप्रामाण्याऽनभ्युपगमेऽनुपपन्नं तथापि स्फुटत्वात्तदुपेक्ष्य दोषान्तरमाह-'सम्भावना चेति । सम्भावना चोत्कटैकतरकोटिज्ञानं तच्चौत्कट्याऽऽपन्नसंशय एवेत्याह 'संशयरूपैवेति संशयविशेषरूपैवेत्यर्थः । एवकारेण निश्चयव्यवच्छेदः कृतः। अनेन भूयःसहचारदर्शनजन्यं संभवाख्यमतिरिक्तं प्रमाणं निरस्तम् अनिश्चयरूपत्वात् निश्चयरूपत्वेऽनुमानमेव स्यात्, खार्या द्रोणाढकप्रस्थादिनिश्चयस्य द्रोणाद्यविनाभूतखारीत्वज्ञानजन्यत्वादित्यधिकं स्याद्वादरत्नाकरादौ ।
सा उ संशयात्मिका सम्भावना च न परामर्शादिनिश्चयहेतुसाध्येति 'वह्निव्याप्यधूमवान् पर्वत' इत्याद्याकारकपरामर्शादिना निश्चयहेतुना साध्या नेत्यर्थः। निश्चयसामग्र्याः संशयसामग्रीतो बलवत्त्वान्न संशयोत्पादः। विपक्षे
* अनुमान भी प्रमाण नही है - नास्तिक * नास्तिक :- प्रमाण तो सिर्फ प्रत्यक्ष ही है। जो परोक्ष होता है वह प्रमाण कैसे? अनुमान भी परोक्ष होने से प्रमाण नहीं है तब आत्मा आदि अतीन्द्रिय पदार्थ का निरूपक शब्द आगम कैसे प्रमाण होगा? अनुमान में विसंवाद=व्यभिचार पया जाता है वैसे ही शब्द में भी विसंवाद-व्यभिचार पाया जाता है, तब उन दोनों को प्रमाण कैसे कहा जाय? दूसरी बात यह है कि अतीन्द्रिय चीज का सूचक कोई संवाद उपलब्ध नहीं होता है। ___ शंका :- यदि अनुमान को प्रमाण न माना जायगा तब धूम से वह्नि का अस्तित्व प्रमाणित नही होगा और फिर उस दशा में कोई वह्नि को प्राप्त करने की आशा से उस स्थान में, जहाँ उसे धूम दिखाई दिया है, जाने का प्रयत्न नहीं करेगा। मगर वस्तुस्थिति यह है कि मनुष्य जिस स्थान में धूम को देखता है, उस स्थान में अग्नि के अस्तित्व को प्रामाणिक मान कर अग्नि पाने की आशा से उस स्थान तक पहुँचने का प्रयत्न करता है। अतः मानना होगा की अनुमान प्रमाण ही है, अप्रमाण नहीं।
* संभावना से प्रवृत्ति की उपपत्ति - चार्वाक * नास्तिक का समाधान :- आपने यह कहाँ से पढ़ लिया कि - "निश्चय ज्ञान ही प्रवृत्ति का जनक है?" व्यवहार निश्चयात्मक ज्ञान से ही साध्य है, यह आपकी भ्रान्ति है। संभावना से भी प्रवृत्ति घट जायेगी। देखिये, जिस स्थान में धूम दीख पडता है, उस स्थान में वह्नि के अस्तित्व को प्रामाणिक मान कर मनुष्य उस स्थान तक पहुँचने का प्रयत्न नहीं करता, किन्तु उस स्थान में वह्नि के अस्तित्व को संभवित मान कर वहाँ जाने का प्रयत्न करता है। कहने का आशय यह है कि कई स्थानों में धूम को वह्नि के साथ देख कर मनुष्य जब किसी नये स्थान में दूर से केवल धूम को देखता है किन्तु वह्नि को नहीं देखता तब उस स्थान में धूम के होने से वह्नि के होने की केवल संभावना ही होती है, न कि उसे यह निश्चय होता है कि उस स्थान में वह्नि अवश्य है, क्योंकि इस प्रकार के निश्चय के लिए उसके पास कोई निश्चित प्रमाण नहीं है। फलतः धूम को देखने से मनुष्य को वह्नि की जो सम्भावना होती है उसीसे वह अग्नि पाने की आशा से उस स्थान में, जहाँ उसे धूम दीख पडा है, जाने का प्रयास करता है।
* अनुमान भी निश्चयात्मक होने से प्रमाण है - जैन * स्याद्वादी :- 'संभावना च' इति । वाह! तीन लोक से मथुरा न्यारी! सब दार्शनिक अनुमान को प्रमाण मानते हैं मगर आप