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* न्यायकन्दलीकारन्यायलीलावतीकारोक्तिकर्तनम् *
प्रमाणान्तरसिद्धिरप्रत्यूहैव, व्याप्त्यादिज्ञानं विनाऽपि शब्दादाहत्यार्थप्रतीतेश्च न तस्यानुमानत्वमिति दिग् ।
लोकायतिकस्वाह- अनुमानमपि न प्रमाणं कुतस्तरां शब्दः ?
ज्ञाता । अनुमाने च लिङ्गं न स्वरूपसद्धेतुः किन्तु ज्ञातं सदिति विशेषः । तादृशसंसर्गस्य प्रत्यक्षादिना सिद्धाविच्छां विना शाब्दबोधानुदयः स्यात् पक्षताया अभावादित्यादिदोषापत्तिर्दुर्निवारा वैशेषिकमते तथापि स्फुटत्वात्तदुपेक्ष्य दोषान्तरमाह श्रुतादिति । शब्दादित्यर्थः । 'व्यवहारादिति' । 'गम्ययपः कर्माधारे' (सि.हे. २/२/७४) इत्यतो व्यवहारमाश्रित्येत्यर्थः, निश्चियत इति शेषः । ननु व्यवहारः कथं निश्चायक इति चेत् ? व्यवहारशब्दस्य यौगिकत्वादिति गृहाण। तदुक्तं, "वि नानार्थेऽव सन्देहे हरणं हार उच्यते । नानासन्देहहरणाद् व्यवहार इति स्मृतः ।। " यथाहि अनुमिनोमीति धिया = अनुव्यवसायेन प्रत्यक्षविषयतातो विलक्षणविषयतासिद्धेरनुमितौ प्रत्यक्षविलक्षणप्रमात्वसिद्धिः, ततः कार्यवैजात्यात्करणवैजात्यसिद्ध्याऽनुमानात्मकप्रमाणान्तरसिद्धिर्वैशेषिकेनेष्यते तथैव शब्दात्प्रत्येमीति धिया अनुव्यवसायेनाऽनुमितिविषयतातो विलक्षणविषयतासिद्धेस्शाब्दबोधेऽनुमितिभिन्नप्रमात्वसिद्धिस्ततः शब्दात्मकप्रमाणान्तरसिद्धिः प्रमाभेदे प्रमाणभेदनियमादित्याशयः ।
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एतेन पदानि स्मारितार्थसंसर्गविज्ञप्तिपूर्वकाणि, योग्यतासत्तिमत्वे सति संसृष्टार्थपरत्वादिति न्यायलीलावती - कारोक्तं निरस्तं, कालात्ययापदिष्टत्वात्, 'नानुमिनोमि किन्तु शाब्दयामी' त्यनुभवविरोधाच्च । न हि अनुभवोऽपि व्याख्याय कथ्यते । द्वितीयहेतुमाह - 'व्याप्त्यादिज्ञानं' इति । आदिशब्दात्परामर्शज्ञानं गृह्यते । अत्रैवं प्रयोगः शब्दो नानुमानं व्याप्त्यादिज्ञानासध्रीचीनत्वे सत्यर्थनिश्चायकत्वादिन्द्रियवत् । अनेन शब्दोऽनुमानं व्याप्तिबलेनाऽर्थप्रतिपादकत्वादिति न्यायकन्दलीकारोक्तमपहस्तितं मन्तव्यम्, अभिनवकविविरचितस्य वाक्यस्याऽदृष्टपूर्वस्याननुभूतचरवाक्यार्थबोधकत्वानुपपत्तेश्च ।
लोकायतिकः इति । लोके आयतं = विस्तीर्णं = प्रसिद्धं यत्प्रत्यक्षं प्रमाणं तल्लोकायतम् । तत्प्रतिपादकं शास्त्रमपि अनिवार्य है। तथा प्रमा भिन्न होने पर प्रमाण भी भिन्न ही होता है, अभिन्न नहीं, अन्यथा अनुमान प्रमाण भी प्रत्यक्षप्रमाण से गतार्थ हो जायेगा । अतः अनुमितिरूप प्रमिति के करणभूत व्याप्तिज्ञान से विलक्षण पदज्ञानरूप करण की प्रमाण की सिद्धि होती है । पदज्ञान का विषय होने से पद को = शब्द को भी प्रमाण कहा जाता है। इस तरह शब्द अनुमान से अतिरिक्त = स्वतंत्र प्रमाण है, यह सिद्ध होता है।
* व्यतिरेक व्यभिचार से भी शब्द अनुमानरूप नहीं है *
व्याप्त्यादिज्ञानं' इति । शब्द अनुमानरूप नहीं है, किन्तु स्वतंत्र प्रमाण ही है इसकी सिद्धि के लिए विवरणकार दूसरे हेतु को बताते हैं। देखिये, जहाँ अनुमिति होती है वहाँ अनुमिति के अव्यवहित पूर्व क्षण में व्याप्तिज्ञान रहता है, क्योंकि व्याप्तिज्ञान अनुमिति का करण है। यह एक नियम है कि कार्य की उत्पति के पूर्व क्षण में कारण अवश्य उपस्थित रहता है। यदि शब्द को अनुमानरूप माना जाय तब तो शब्द को सुनने के बाद शब्द से अर्थबोध होने के पूर्व में व्याप्तिज्ञान होना आवश्यक है। मगर ऐसा नहीं होता है। आबालगोपाल प्रतीति यही है कि शब्द से तुरंत ही व्याप्ति ज्ञान के सिवा ही अर्थ का बोध होता है। अभिमत कारण के सिवा ही कार्य का होना यह तो व्यतिरेकव्यभिचार ही है। इससे सिद्ध होता है कि शब्द से जो अर्थबोध होता है वह अपनी उत्पत्ति में व्याप्तिज्ञान की अपेक्षा नहीं रखता है। तब व्याप्तिज्ञानरूप करण से जन्य न होने पर भी उस अर्थबोध को अनुमिति कहना यह तो मूर्खता की ही निशानी है। इसी सबब सिद्ध होता है कि शब्द स्वतंत्र प्रमाण है। शब्द को सर्वथा अप्रमाण माननेवाले बौद्ध तथा शब्द को अनुमानान्तर्गत माननेवाले वैशेषिक दोनों भ्रान्त हैं, क्योंकि शब्द प्रमाण है और अनुमान से भिन्न प्रमाणरूप है। इस विषय में अधिक विचारणा की जा सकती है। इसकी सूचना देने के लिए विवरणकार ने दिग् शब्द का निर्देश किया है। बौद्ध और वैशेषिक के होश उड़ा कर अब विवरणकार लौकायतिक यानी नास्तिक को अपने सामने लाते हैं। नास्तिक का मत क्या है ? वह पहले देखिये
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