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* मिथ्यात्वकल्पनापेक्षया सत्यत्वकल्पने लाघवोपदर्शनम् *
तदप्रामाण्यम् तद्विसंवादस्यैवासिद्धेः क्वचिद्विहितकर्मणाः फलाभावस्याङ्गवैकल्याद्यधीनत्वादिति दिग्
अथाऽस्तु शब्दप्रामाण्यं तथाऽपि न स्वतन्त्रतया किन्तु अनुमानविधया । न च शब्दस्याऽर्थाऽव्याप्यत्वात्कथं ततस्तदनुमानमिति ननु 'इक्कोवि नमुक्कारो' इत्यादेर्विसंवादः किं पाणिपिहित? इत्यत आह 'क्वचिदिति। तत्र संसारनिस्तारणफलाभावस्य तादृशभावनाद्यङ्गवैकल्यप्रयुक्तत्वात् । न ह्येकस्माद्धेतोरेव कार्योत्पत्तिर्द्रष्टेति भावः । न च तादृशभावनादेस्तत्राऽङ्गत्वमसिद्धम्, तदुक्तं धर्मसङ्ग्रहे- "सति सम्यग्दर्शने परया भावनया क्रियमाण एकोऽपि नमस्कारस्तथाभूतस्याऽध्यवसायस्य हेतुर्भवति यथाभूतात् श्रेणिमवाप्य निस्तरति भवोदधिमिति (धर्म सं. भाग २ / पृ. १११ ) ।
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किञ्च सर्वथा वचनस्य प्रामाण्यमनभ्युपगम्याऽपि बौद्धाः किल सम्बन्धाद्यभिधानपूर्वकमेव ग्रन्थादौ प्रवृत्ता इति शब्दप्रामाण्यप्रतिक्षेपस्तेषां कथमर्हति ? न च सांवृतसत्यत्वाभ्युपगमान्न दोष इति वाच्यम् मिथ्यात्वसंवलितत्वे सति व्यवहारौपयिकसत्यत्वाऽभ्युपगमाऽपेक्षया सत्यत्वाऽभ्युपगम एव श्रेयान् लाघवात्; व्यवहारानपलापाच्च किञ्च तन्मते वस्तुनो निरंशत्वात्कथमेकत्र मिथ्यात्वं सत्यत्वं चेति चिन्त्यम |
सर्ववैनाशिकं निराकृत्य वैनाशिकत्वसाम्यादर्धवैनाशिकं वैशेषिकं पूर्वपक्षयति-अथेति । अत्रेदमवधेयं वैशेषिकअर्थों का प्रतिपादन करता है उन अर्थों के विषय में अनेकशः विसंवाद उपलब्ध होते हैं। मगर आपके लिए उन शास्त्रवचनों को 'विसंवादी होने से वे अप्रमाण है' यह कहना शक्य नहीं है। लेकिन हमें तो विसंवादि होने से उन शास्त्रों और उन शास्त्रों के वचनों को अप्रमाण कहने में कुछ हिचकिचाहट नहीं होती है और यह युक्त भी है।
स्याद्वादी :- 'शास्त्र विसंवादि है' ऐसा आप कहते हैं तो क्या 'बौद्ध शास्त्र अप्रमाण है' ऐसा भी आप कहते हैं? यह तो हमें भी इष्ट ही है। बौद्ध पिटकों को अप्रमाण कहने में हमें भी कोई हिचकिचाहट नहीं होती है, क्योंकि उनमें अनेक विसंवाद उपलब्ध होते ही हैं। यदि आप जैनागमों को विसंवादी होने से अप्रमाण कहने का प्रयास करते हैं तो वह ठीक नहीं है, क्योंकि जैनागमो में विसंवाद ही असिद्ध है ।
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बौद्ध :- जैनशास्त्रों में भी विसंवाद उपलब्ध है, देखिये, "इक्कोवि नमुक्कारो..." इत्यादि जो कहा गया है वह वचन विसंवादी है, क्योंकि उस सूत्र का अर्थ है - "श्रीमहावीरस्वामीजी को किया गया एक भी नमस्कार नर या नारी को संसारसागर से पार लगाता है। आपने अनेक बार महावीरस्वामी को नमस्कार किया है, फिर भी आपका संसारसागर से निस्तार नहीं हुआ है। इस विसंवाद के बल पर ही हम कहते हैं कि जैनशास्त्र प्रमाण नहीं है।
* सामग्री कार्यजनक है *
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स्याद्वादी :- क्व इति । उस्ताद ! आप दूर की नहीं सोचते। आप सूत्र के तात्पर्य संपूर्ण अर्थ को सोचे बिना मात्र शब्दार्थ को ही पकड़ते हैं। इसी सबब आपको विसंवाद लगता है। सम्यग्दर्शन विशिष्टभावोल्लास-श्रद्धा-अध्यवसायविशुद्धिसहित एक बार श्री वर्धमानस्वामी को किया गया सामर्थ्ययोग का नमस्कार चरमशरीरी को भवितव्यता का परिपाक करा के क्षपक श्रेणियोग्य अध्यवसाय की प्राप्ति कराता है और कैवल्यलक्ष्मी की भेट दे कर संसारसागर से पार उतारता है। वैसी श्रद्धा भक्ति आदि कारणों की उपस्थिति न हो तब उस नमस्कार से कैसे संसारसागर से निस्तार होगा। अता कभी कभी शास्त्रों के अर्थों में जो विसंवाद दिखाई देता है वह शेष कारणों के अभाव से प्रयुक्त है, न कि शास्त्रों के अप्रामाण्य से । अतः शेष कारणों के अभाव से प्रयुक्त नमस्कार से प्रस्तुत फल की अप्राप्ति को देख कर शास्त्र में अप्रामाण्य की घोषणा करना यह मूर्खता की ही निशानी है। समझे?
बौद्ध को हक्का-बक्का करने के बाद अब विवरणकार वैशेषिक को अपने सामने लाते हैं।
* शब्द स्वतंत्र प्रमाण नहीं है वैशेषिक *
वैशेषिक :- 'अथ' इति। शब्द प्रमाण है ऐसा तो हम मानने के लिये तैयार है मगर आप शब्द को अनुमान से स्वतंत्ररूप से प्रमाण मानते हैं वह ठीक नहीं है, क्योंकि शब्द अनुमान प्रमाण में ही अन्तर्भूत हो जाता है। अनुमान में अंतर्भाव होने पर भी शब्द को स्वतंत्र प्रमाण मानने में गौरव होता है। अनुमानरूप मानने में लाघव है। अतः शब्द अनुमान प्रमाण ही है यह सिद्ध होता है। 'नच शब्दस्य' इति । शब्द अनुमान प्रमाण है- यह आपका मनोरथ तब सिद्ध होता, यदि शब्द अर्थ का व्याप्य होता ।
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शंका :