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६२ भाषारहस्यप्रकरणे - स्त.१. गा. १४
० शब्दस्याऽनुमानान्तर्भावाऽसम्भवसमर्थनम् ० वाच्यम्, एते पदार्था मिथः संसर्गवन्तः, आकाङ्क्षादिमत्पदस्मारितत्वादित्यादिदिशाऽनुमानादिति चेत्? अत्राह - श्रुतात् ज्ञातमेतदिति व्यवहारात्। यथाहि अनुमिनोमीति धिया प्रमाविशेषसिद्धेः प्रमाणान्तरसिद्धि स्तथा शब्दात्प्रत्येमीति धिया प्रमाविशेषसिद्धेः तत्राऽपि दर्शनेऽपि व्योमशिवाचार्येण तु प्रमाणत्रैविध्यमभ्युपगम्य शब्दे स्वतन्त्रतया प्रामाण्यं प्रतिपादितम् । प्रशस्तपादानुसारिन्यायकन्दलीकारेण श्रीधरेण तु शब्दस्य स्वतन्त्रतया प्रामाण्यं दूषितं । 'एते' इत्यादिकं शाब्दस्थलीयानुमानशरीरम्; 'दण्डेन गामभ्याज' इति पदस्मारितपदार्थवदिति च 'इत्यादि'शब्दार्थः ।
अत्र च यद्यपि अनाप्तोक्तपदस्मारिते पदार्थे व्यभिचारः। आप्तोक्तत्वेन हेतुर्विशेषणीय इति चेत? न, आप्तत्वस्य पूर्वं दुर्ग्रहत्वात्। अत एव योग्यताया हेतुप्रवेशेऽपि न निस्तारः, एकपदार्थेऽपरपदार्थवत्त्वरूपायाः तस्याः प्रागनिश्चयात्, निश्चये वा सिद्धसाधनान्ननुमानम् । आकाङ्क्षाऽपि समभिव्याहृतपदस्मारितजिज्ञासारूपा स्वरूपसत्येव हेतुः, न तु जैसे कि अनुमान स्थल में धूमादि हेतु वह्निरूप साध्य को व्याप्त होता है। जहाँ जहाँ धुआँ रहता है वहाँ वहाँ अवश्य वह्नि रहता है। अतः धूम से वह्नि का अनुमान हो सकता है। मगर प्रस्तुत में ऐसा नहीं है। जहाँ जहाँ शब्द होता है, वहाँ वहाँ अर्थ नहीं होता है, क्योंकि घटादि शब्द तो मुँह में उत्पन्न होते हैं और कानों से सुनायी देते हैं, मगर घटादि अर्थ तो भूतलादि में रहते हैं मुँह में या कानों में नहीं। अतः शब्द अर्थ का व्याप्य नहीं है। अर्थ की व्याप्ति = अविनाभाव शब्द में नहीं है तब शब्द को अनुमान कहना कैसे उचित होगा? अतः शब्द अनुमानप्रमाणस्वरूप नहीं हो सकता। __वैशेषिक-समाधान :- आपका यह कथन मुनासिब नहीं है, क्योंकि श्रोता को वाक्य का श्रवण होने पर जब वाक्य के घटक पदों से तत्तत् अर्थ की स्मृति हो जाती है तब उन अर्थों में वक्ता के अभिमत परस्परसम्बन्ध का अनुमान हो जाता है। अनुमान का आकार इस प्रकार होता है - "अमुक अमुक पदार्थ वक्ता के अभिमत परस्परसम्बन्ध के आश्रय हैं, क्योंकि आकांक्षा आदि से युक्त पदों से स्मारित है। जो पदार्थ आकांक्षा आदि से युक्त पदों से स्मारित होते हैं वे वक्ता के अभिमत परस्परसम्बन्ध के आश्रय होते हैं जैसे कि 'घट को लाओ' इस वाक्य का अर्थ। इससे सिद्ध होता है कि शब्द अनुमानप्रमाणरूप ही हैं, न कि अनुमान से भिन्न स्वतंत्र प्रमाणरूप।
* शब्द स्वतंत्र प्रमाण है - स्याद्वादी * स्याद्वादी :- काह! अधजल गगरी छलकत जाए! इधर उधर से कुछ ज्ञान प्राप्त कर के इस तरह अनुमानप्रयोग बनाने से आपके अभिमत अर्थ की सिद्धि नहीं होगी। वस्तु की सिद्धि तो आगम से, अनुमान से और लौकिकव्यवहार से होती है। आपके कथन में तो सिर से पैर तक गलतियाँ भरी है? फिर भी आज ऐसी मजा चखाऊँगा कि आप भी जानेंगे कि स्याद्वादी कौन है? सबसे प्रथम तो शब्द को अनुमान प्रमाणरूप मानने में लौकिक प्रतीति, स्वअनुभव एवं व्यवहार का अपलाप करना पडता है, क्योंकि लोगों का व्यवहार तो ऐसा ही होता है कि "मैने शब्द से यह जाना है", "मुझे शब्द से अर्थ की अनुमिति नहीं हुई है किन्तु शाब्दबोध हुआ है" ऐसा अनुव्यवसाय होता है।
'यथाहि' इति । आशय यह है कि जैसे अनुमान स्थल में लिंगज्ञानजन्य बोध का अनुभव प्रत्यक्षत्व रूप से न हो कर अनुमितित्व रूप से ही होता है, क्योंकि व्याप्यतादिज्ञान से जन्य बोध होने पर "मैं अर्थ का साक्षात्कार नहीं करता हूँ किन्तु अनुमान करता हूँ," "मुझे अर्थ का साक्षात्कार नहीं हुआ है किन्तु अनुमिति हुई है। इस प्रकार का अनुव्यवसाय होता है । व्यवसाय ज्ञान का स्वरूप क्या है? वह तो व्यवसाय ज्ञान के बाद उत्पन्न होनेवाले अनुव्यवसायात्मक ज्ञान से ही ज्ञात होता है। उपर्युक्त अनुव्यवसाय से प्रत्यक्षविषयता की अपेक्षा अनुमिति ज्ञान की विलक्षण विषयता सिद्ध होती है। अतः अनुमिति में प्रत्यक्षभिन्नता अनिवार्य है। दूसरी बात यह है कि कार्य भिन्न होने पर सामग्री में भी भेद होता है। प्रत्यक्ष प्रमिति से अनुमितिरूप प्रमिति भिन्न है। अतः उसका कारण भी भिन्न ही होना चाहिए। अतः प्रत्यक्ष प्रमिति के करणभूत इन्द्रिय से विलक्षण व्याप्तिज्ञान आदिरूप करण प्रमाण की सिद्धि होती है। इस तरह शाब्द स्थल में भी शब्दजन्य बोध का अनुभव अनुमितित्वरूप से न हो कर शाब्दत्वरूप से ही होता है, क्योंकि शब्दजन्य बोध होने पर 'शब्दात् प्रत्येमि' = 'मुझे शब्द से अर्थ की प्रतीति हुई है (लिंग ज्ञानादि से नहीं)' तथा 'शब्दात् नानुमिनोमि किन्तु शाब्दयामि' = "मुझे शब्द से अर्थ की अनुमिति नहीं हुई है किन्तु शाब्दबोध हुआ है" इस प्रकार का अनुव्यवसाय होता है। इस अनुव्यवसाय से अनुमितिविषयता से शाब्द बोध की विलक्षण विषयता सिद्ध होने से शाब्द बोध में अनुमितिभिन्नता की सिद्धि