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* शब्दाऽप्रामाण्यवादिसुगताशङ्का *
- ५७ भाष्योक्तार्थानुपपत्तावपि भावेन भाषेति भङ्ग्या प्रकृतोपपत्तेः; परिभाषकेच्छायाश्चातिप्रसङ्गभञ्जकत्वादिति दिग् ।।१३।।
ननु भाषा न निर्णायिका, तादात्म्य-तदुत्पत्तिविरहेण शब्दार्थयोरसम्बन्धात्प्रतिनियतबोधानुपपत्तेः। न चैवं शब्दानामेवानुत्पत्तिप्रसङ्गोऽर्थबोधकत्वं प्रतिसन्धायैव तदुच्चारादिति वाच्यम् विकल्पेभ्य एव तदुत्पत्तेस्तेषामपि विकल्पजननेनैव चरितार्थत्वात् । उक्तंच माह 'परि' इत्यादि। परिभाषाकर्तशास्त्रकारेच्छाया नियामकत्वान्नातिप्रसङग इति भावः। नोआगमतो भावेन भाषा भावभाषेत्याकारकेच्छायाः शास्त्रपर्यालोचनेनोन्नयनादिति दिगर्थः||१३||
सौगत आशङ्कते 'ननु' इति । अत्रैवमनुमानप्रयोगाः भाषा न प्रमाणं अर्थनिर्णायकत्वाभावात् संशयवत् । तदेव कुत इति चेत? उच्यते, भाषा न अर्थनिर्णायिका प्रतिनियतबोधानुत्पादकत्वात विकल्पवत । तदपि कथमिति चेत? उच्यते, भाषा न प्रतिनियतबोधजनिका अर्थासंबद्धत्वात् कल्पनावत् । अर्थाऽसंबद्धत्वमपि कुत इति चेत? उच्यते, भाषाया अर्थप्रतियोगिक-तादात्म्य-तदुत्पत्त्यन्यतरसम्बन्धाभावात् तद्वद् । तदपि कुत इति चेत्? उच्यते, भाषाया अर्थतादात्म्याभ्युपगमे शस्त्रादिशब्दान्मुखच्छेदादिप्रसङ्गात्। भाषाया अर्थजनकत्वे धनशब्दादेव विश्वदारिद्रयं विदारितं स्यात्, भाषाया अर्थजन्यत्वे सदैव कोलाहलप्रसङ्गादिति न तदुत्पत्तिसंबन्धोऽपि युक्तः । तदुक्तं शास्त्रवार्तासमुच्चये बौद्धमतनिरूपणप्रसङ्गे - "न तादात्म्यं द्वयाभावप्रसङ्गाद् बुद्धिभेदतः। शस्त्राद्युक्तौ मुखच्छेदादिसङ्गात् समयस्थितेः ।। अर्थाऽसन्निधिभावेन, तद्रष्टावन्यथोक्तितः । अन्याभावनियोगाच्च न तदुत्पत्तिरप्यलम्।। (शा.स. स्त. ११/२३) तादात्म्यतदुत्पत्तिव्यतिरिक्तसंबन्धाभावात्, विशेषाभावकूटस्य सामान्याभावसाधकत्वाच्च शब्दो नार्थसंबद्ध इति स्थितम । असम्बद्धत्वे तु सर्वार्थबोधकत्वमबोधकत्वं वाऽविशेषादिति न प्रतिनियतार्थबोधकत्वम। 'विकल्पेभ्य' इति ।
* अर्थघटन परिभाषाकार की इच्छा के अनुसार * समाधान :- परि. इति । यहाँ भावभाषारूप समास का विग्रह कैसे करना? इसमें न आपकी इच्छा नियामक है, न हमारी इच्छा नियामक है और न अन्य किसीकी इच्छा नियामक है, किन्तु शास्त्र की परिभाषा बनानेवाले शास्त्रकार भगवंतों की ही इच्छा नियामक है। प्रस्तुत में 'भाव=अभिप्राय उपयोग से जन्य भाषा भावभाषा है' इस चूर्णिकार के वचन से सिद्ध होता है कि यहाँ 'भावेन भाषा भावभाषा' ऐसा विग्रह इष्ट है, न कि 'भाव एव भाषा = भावभाषा' ऐसा कर्मधारयसमासानुकूल विग्रह या बहुव्रीहिसमासानुकूल विग्रह । अतः हम दोनों के ऊपर, अरे! सभी के ऊपर जब शास्त्रकारों का अनुशासन है तब उनके वचन के अनुसार ही अर्थघटन करना मुनासिब है। अनुयोगद्वार आदि सूत्र के अनुसार भी वचन नोआगम से भावभाषास्वरूप ही है। अतः कोई दोष नहीं है। यह तो एक दिशासूचनमात्र है। इसके उपर अधिक विचार भी किया जा सकता है - इस बात की सूचना देने के लिए विवरणकार ने १३वी गाथा के विवरण के अंत में 'दिक्' शब्द का प्रयोग किया है।
* शब्द प्रमाण नहीं है - बौद्ध * बौद्ध :- ननु. इति। 'अन्य को बोध कराने के लिए वक्ता उपयोगपूर्वक शब्दोच्चारण करता है वह भावभाषा है' - यह आपका कथन जलमन्थन की तरह निष्फल है - क्योंकि भाषा अर्थ का निर्णय कराने में समर्थ ही नहीं है। भाषा से अर्थ का निर्णय तब हो सकता है, जब भाषा और अर्थ के बीच संबंध हो। अर्थ के साथ असंबद्ध हो कर भाषा अर्थ का निर्णय कराये - यह कथमपि संभव नहीं है। इसका कारण यह है कि अर्थ से असंबद्ध होने पर भाषा या तो सब अर्थ का निर्णय करायेगी या तो एक भी अर्थ का नहीं। इसलिए शब्द को अर्थ का निर्णय कराने के लिए अर्थ से संबद्ध रहना आवश्यक है, मगर शब्द का अर्थ के साथ संबंध नहीं घटता है। यदि शब्द का अर्थ के साथ तादात्म्य संबंध माना जाय तो वह संगत नहीं है, क्योंकि तब तो लड्डु शब्दोच्चारण से ही मुँह लड्डु से भर जायेगा और शस्त्र शब्द को बोलने पर जीभ कट जायेगी, क्योंकि 'अर्थ और शब्द अभिन्न है' ऐसा स्वीकार अर्थ और शब्द के बीच तादात्म्य संबंध के स्वीकार में निहित रहता है। यदि शब्द का अर्थ के साथ तदुत्पत्ति संबंध माना जाय तो वह भी संगत नहीं है, क्योंकि यदि आप शब्द को अर्थ का जनक मानेगे तब धन शब्द का उच्चारण करने से हि धन पैदा हो जायेगा फिर इस जगत में कोई दरिद्रनारायण नहीं रहेगा। यदि शब्द को अर्थ से जन्य मानेंगे तब जगत में घट-पट आदि अनेक अर्थ