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५६ भाषारहस्यप्रकरणे स्त. १. गा. १३ O वचनस्य भावभाषात्वोपपादनम् O तदिदमभिप्रेत्योक्तं वाक्यशुद्धिचूर्णी भावभासा णाम जेणाभिष्पाएण भासा भवइ सा भावभासा कह? जो भासिउमिच्छइ सो पुव्वमेव अत्ताणं पत्तियावेइ, जहा - इमं मए वत्तव्वंति भासमाणो परं पत्तियावेइ, एयं भासाए पओअणं जं परमप्पाणं च अत्थे अवबोधयति त्ति (द.वै.जि.चू. पृ. २३५) ।
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अथाग्न्युपयोगस्य भावाग्नित्ववद् भाषोपयोगस्य भावभाषात्वमुच्यतां न तूपयोगविषये वचन इति चेत् ? न भाव एव भाषेति 'अर्थाभिधानप्रत्ययाः तुल्यनामधेया' इत्यभिप्रायेण कश्चित्शङ्कते अथेति । 'भाव एव' इति । आगमतो भाषाविषयकोपयोग एव भावभाषा कर्मधारयसमासाभ्युपगमात् । एवंरीत्या वचने भावभाषात्वस्याऽनुपपत्तिस्तथापि भावेन भाषेति तृतीयातत्पुरुषसमासाभ्युपगमे न काऽपि क्षतिः । 'भावेनेत्यत्र करणत्वार्थे तृतीया द्रष्टव्या तदुक्तं सिद्धहेमे 'हेतुकर्तृकरणेत्थम्भूतलक्षणे तृतीये 'ति (सि.हे. २।२।४४) भावकरणकभाषेत्यर्थः भावो नाम भाषणविषयकोपयोगः कण्ठताल्वाद्यभिघातद्वारा स शब्दोत्पादक इति प्रसिद्धेः तत्र भावे करणत्वम् ।
नन्वेकं सन्धित्सतोऽन्यत् प्रच्याव्यते, यत एवं सति बहुव्रीह्यादिसमासेनान्यार्थेऽतिप्रसंगापत्तिर्न दुर्लभेत्याशङ्कायाहोती है।" यह कैसे हो सकता है?" इस प्रश्न का उत्तर यह है कि - "जो वक्ता बोलना चाहता है वह शब्दोच्चारण के पूर्व में ही अपने को "मुझे यह बोलना चाहिए ऐसे अभिप्राय से भावित करता है और बाद में वैसे बोलता हुआ दूसरों श्रोताओं को अर्थ का बोध कराता है। भाषा का यही प्रयोजन है कि वह भाषा दूसरों को और अपने को अर्थ का बोध कराती है" । - चूर्णिकार श्रीजिनदासगणी के वचन से भी सिद्ध होता है कि अभिप्राय यानी उपयोग से जन्य भाषा ही भावभाषा है, अनुपयोग से जन्य नहीं।
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* वचन भावभाषा नहीं है- पूर्वपक्ष
पूर्वपक्ष:- 'अथ' इत्यादि । भावभाषा शब्द का अर्थ उपयोगपूर्वक वचनप्रयोग समीचीन नहीं है। इसका कारण यह है कि जैसे अनुयोगद्वारसूत्र आदि में अग्निविषयक उपयोगरूप भाव को ही आगमतः भाव अग्नि कहा है वैसे भाषाविषयक उपयोगरूप भाव को ही भावभाषा कहना मुनासिब है। दूसरी बात यह है कि अग्निविषयक उपयोगरूप भाव को ही भावाग्नि मानने में भावाग्नि शब्द की यथार्थता उपपन्न हो सकती है, क्योंकि भाव ही आग या भावात्मक आग ऐसा भावाग्नि इस सामसिक पद का विग्रह भी उपपन्न होता है। इसी तरह भाव ही भाषा ऐसा विग्रह वाक्य भी तब सार्थक हो सकता है जब भाषाविषयक उपयोग को ही भावभाषारूप माना जाय । दूसरी बात यह है कि उपयोग के विषयभूत वचन को भावभाषा कहने में 'भाव ही भाषा' इस विग्रह वाक्य क़ी उपपत्ति भी नहीं हो सकती है, क्योंकि वचन तो जैन दर्शन में पौद्गलिक होने से द्रव्यात्मक है, भावात्मक नहीं । अतः द्रव्यात्मक वचन को भावभाषा कहने में शब्दार्थ का भी बाध होता है। अतः उपयोग के विषयभूत वचन को भावभाषा कहना युक्त नहीं है बल्कि वचनविषयक उपयोग को ही भावभाषा कहना ठीक है।
* वचन भावभाषारूप है उत्तरपक्ष *
उत्तरपक्ष :- न इति। आपकी यह बात ठीक नहीं है। आपके अभिप्राय के अनुसार यदि 'भाव ही भाषा' इस विग्रह वाक्य को अनुमति दी जाय तो आपका बताया हुआ दोष आ सकता है, मगर हमने यहाँ आपका बताया हुआ विग्रह मान्य नहीं किया है। हम तो यहाँ 'भावेन भाषा = भावभाषा 'ऐसा विग्रह करते हैं । अतः अब भावभाषा शब्द का अर्थ होगा भावकरणकभाषा अर्थात् भाव यानी उपयोग जिसका असाधारण कारण है ऐसी भाषा । इस विग्रह के अनुसार तो उपयोग से वचन को भावभाषा कहना सुसंगत ही है, क्योंकि वचन का असाधारण कारण उपयोग होता है। उपर्युक्त विग्रहवाक्य के स्वीकार करने से जन्य वचन में भावभाषत्व की उपपत्ति होती है। अतः कोई दोष नहीं है।
शंका- अरे क्या तुम्हारी अक्ल चरने को गई है? आपके मनपसंद रूप से समास का विग्रह कर के अपने इष्ट अर्थ की निष्पत्ति आप कर रहे हैं तब तो अन्य कोई बहुव्रीहि समास आदि के अनुकूल विग्रह कर के अपने इष्ट अर्थ की सिद्धि बिना किसी रोक टोक के कर सकता है जैसे कि 'भाव ही है भाषा जिसकी ऐसा विग्रह करने पर मूक पुरुष भी भावभाषा कहलायेगा, क्योंकि हाव-भाव ही उसकी भाषा होती है। यह तो बकरी को निकालते निकालते ऊँट घूस गया ।
१ भावभाषा नाम येनाऽभिप्रायेण भाषा भवति सा भावभाषा । कथं ? यो भाषितुमिच्छति स पूर्व्वमेवात्मानं प्रत्याययति यथा - इदं मया वक्तव्यमिति भाषमाणः परं प्रत्यायति । एतद् भाषायाः प्रयोजनं यत्परमात्मानं चार्थानवबोधयतीति । २ 'अत्थे' इति कप्रतो नास्ति ।