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५४ भाषारहस्यप्रकरणे - स्त.१. गा. १२
० प्रमेयकमलमार्तण्डकारमतापाकरणम् ० त्वात् । अयं भावो निसर्गसमयोत्तरकालं भिन्नभाषाद्रव्याणां भाषापरिणामत्यागः स्यात्तदा भाषाद्रव्याणां सतां तेषां चतुर्थसमये लोकव्यापित्वे पराघातस्वभावस्य हेतुत्वमुक्तमनुपपन्नं स्यादिति तदा तत्र भाषापरिणामस्य निराकर्तुमनर्हत्वादित्याशयः । एतेन ताल्वादिव्यापारसहकारिकारणनिवृत्तौ हि पुद्गलस्य श्रावणस्वभावव्यावृत्तिरिति (प्र.क.मा.प्रताकार-पृ१२३) प्रमेयकमलमार्तण्डकारवचनमपास्तं द्रष्टव्यम, सहकारिकारणस्य कार्यस्थितिनियामकत्वाभावाच्च ।
* स्थूलकाल की अपेक्षा भी 'भाष्यमाणा भाषा' सिद्धांत तथ्यहीन है* समाधान :- तुम किस खेत की मूली हो? हमने सूक्ष्म ऋजुसूत्र नय का भी खंडन कर दिया, फिर व्यवहारनय की तो बात ही क्या? स्थूल व्यावहारिक वर्तमान काल लेने पर भी अव्याप्ति दोष तदवस्थ ही है। देखिये, आप स्थूलकालरूप वर्तमानकाल कितने समय का मानेंगे? आपसे कल्पित=विवक्षित स्थूलकालरूप वर्तमानकाल के चरमसमयपर्यन्त भाषाद्रव्यों के निसर्ग में जीव प्रयत्न करेगा तब आपका विवक्षित स्थूलकालरूप वर्तमानकाल समाप्त हो जायेगा, मगर उसके बाद वे भिन्न भाषाद्रव्य लोक में व्याप्त हों तब तक उनमें भाषा का परिणाम तो अवश्य रहेगा ही। लेकिन उस वक्त आपका विवक्षित स्थूलकालात्मक वर्तमानकाल खत्म हो चूका होगा। इसलिए उस वक्त भाष्यमाणत्व स्थूलवर्तमानकालिकप्रयत्नविषयत्व उन भिन्न भाषाद्रव्यों में न होने से अव्याप्ति दोष फिर आयेगा ही। बंदा ठेर का ठेर!
* भाष्यमाणा भाषा - सिद्धांत क्रियारूप भावभाषा के उद्देश्य से है - उत्तरपक्ष * उत्तरपक्ष :- साँप भी न मरे और लाठी भी न तूटे - ऐसा मार्ग लेने से कोई बाधा नहीं होती। सुनिये, भावभाषा दो प्रकार की होती हैं (१) क्रियारूप भावभाषा और (२) परिणामरूप भावभाषा । क्रियाशब्द से यहाँ निसरण क्रिया ग्राह्य है और परिणामशब्द से शब्दपरिणाम ग्राह्य है। 'भाष्यमाणा भाषा' इस सिद्धांत वचन में निसर्गक्रियारूप भावभाषा अभिप्रेत है; शब्दपरिणामरूप भावभाषा नहीं। तात्पर्य यह है कि जो निसर्गक्रियारूप भावभाषा है वह भाष्यमाण = वर्तमानकालीनप्रयत्न की विषयभूत होती है, अविषयभूत नहीं। यहाँ यह शंका कि - "भाषापरिणामरूप भावभाषा को छोड कर निसरणक्रियारूप भावभाषा का ही ग्रहण क्यों किया? यह तो अर्धजरतीय न्याय है" - करना मुनासिब नहीं है, क्योंकि शब्दोच्चारणक्रियारूप भावभाषा का ग्रहण करने पर ही भाषाशब्द के अर्थ की उपपत्ति होती है। भाषाशब्द का अर्थ है कंठ-तालु आदि के अभिघात से शब्द का उत्पादक व्यापार | यह अर्थ तभी घटता है जब भाषा शब्दोच्चारणक्रियारूप ली जाय | शब्दपरिणामरूप भावभाषा का ग्रहण करने पर भाषा शब्द के अर्थ की उपपत्ति नहीं हो सकती है। ___ 'हेत्वभि'। यहाँ यह संदेह हो सकता है कि - "भावभाषा के इस तरह क्रियारूप और परिणामरूप दो विभाग करने की अपेक्षा से उचित तो यह है कि निसर्ग काल के बाद भिन्न भाषाद्रव्यों में शब्दपरिणाम का ही स्वीकार न किया जाय। जब निसरण क्रिया के काल के बाद में भिन्न भाषाद्रव्य में शब्द परिणाम ही न होगा तब उसमें अव्याप्ति का प्रश्न ही उपस्थित नहीं होगा है। न रहेगा बाँस, न बजेगी बाँसुरी। अतः शब्दोच्चारणकाल के बाद भिन्न भाषाद्रव्यों में शब्दपरिणाम के नाश की कल्पना करना ही उचित प्रतीत होता है"। - मगर यह समीचीन इसलिए नहीं है कि - विशेषावश्यकभाष्य की वृत्ति में श्रीमलधारी हेमचंद्रसूरीजी महाराज ने स्पष्ट शब्दों में बता दिया है कि 'पराघातस्वभाव संपूर्ण लोक में भिन्न भाषाद्रव्यों को फैलाने में हेतु होता है। इससे साफ साफ यह सिद्ध हो जाता है कि भिन्न भाषाद्रव्य भिन्नभाषाद्रव्य के रूप में ही लोक में फैलते है। अतएव तब तक उनमें शब्द का परिणाम भी अवश्य रहता है। उसमें कोई विवाद नहीं है।
* एवंभूतनय की दृष्टि से भाषण के पूर्वोत्तर काल में भाषा का निषेध * शब्दार्थवियोगादिति'। वापस यहाँ यह संदेह कि - "यदि निसर्गकाल के बाद भी भिन्नभाषाद्रव्यों में शब्दपरिणाम विद्यमान है तब 'शब्दोच्चारण काल में ही भाषा भाषारूप है, शब्दोच्चारण के पूर्व में और पश्चात् काल में नहीं 'ऐसा भगवतीसूत्र में बता कर शब्दोच्चारण के पश्चात् काल में भिन्न भाषाद्रव्य में भावभाषात्व का निषेध क्यों किया गया है? यह तो परस्पर विरुद्ध है। चोर से कहे चोरी करना और साहूकार को कहे जागते रहना" - इसलिए निराकृत हो जाता है कि - "शब्दोच्चारण काल के बाद भाषाशब्द का अर्थ कंठ, तालु आदि से शब्दोत्पादक व्यापाररूप अर्थ भिन्नभाषाद्रव्य में नहीं रहता है। अतः क्रियारूप भावभाषा का ही निसर्गोत्तर काल में निषेध है, भाषापरिणामरूप भावभाषा का नहीं - ऐसा हमें प्रतीत होता है "ऐसा प्रकरणकार श्रीमद् कहते हैं।