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* क्रियारुपभावभाषाग्रहणम् *
नापि स्थूलकालमादाय वर्तमानत्वोपग्रहान्न दोष इति वाच्यम वर्तमानयत्नोपरमेऽपि भाषापरिणामानुपरमादिति चेत्? न; अत्र क्रियारूपभावभाषाया एव ग्रहणाच्छब्दार्थोपपत्तेरिति, हेत्वभिधानात् भाषापरिणामस्य तदुत्तरकालमप्यप्रत्यूहात् शब्दार्थवियोगादिति शब्दार्थः। परतः = निसर्गकालानन्तरम् तत्परिणतिधाराऽविच्छेदात् = शब्दपरिणामप्रवाहविच्छेदाभावात् । अयं भावः सूक्ष्मणुसूत्रनयमतेन विजातीयसन्तानप्रयोजकासमवधाने पूर्वकार्यसजातीयसन्ततिरुत्पद्यते विजातीयसन्तानप्रयोजकसमवधाने सति विजातीयसन्ततिरुत्पद्यते। प्रकृते भिन्नभाषाद्रव्याणां विजातीयसन्तानप्रयोजकासमवधानान्निसर्गकालानन्तरं पूर्वसजातीयशब्दपरिणतिसन्तानाविच्छेदेन शब्दपरिणामस्य निसर्गसमयानन्तरमप्रत्यूहात् वर्तमानकालिककृतिविषयत्वाभावादव्याप्तिदुर्निवारेति गिरिमुत्पाट्य मूषिकोद्धृतेति पूर्वपक्षाशयः। पुनरपि मुग्धोऽव्याप्तिनिराकरणमपाकर्तुमाह-समयात्मकं सूक्ष्मकालं त्यक्त्वा 'सत्सामीप्ये सद्वद्वे'ति न्यायेन विवक्षितसमयसमूहात्मकं स्थूलकालमादाय भिन्नभाषाद्रव्याणामपि निसर्गकालानन्तरं वर्तमानत्वोपग्रहात् = वर्तमानकालिककृतिविषयत्वोपपत्तेर्भवति तत्र लक्षणसमन्वय इति न दोष इति वाच्यम् 'वर्तमानयत्नोपरमेपि = विवक्षितसमयसमूहात्मकवर्तमानकालिकप्रयत्नविरामे सत्यपि भाषापरिणामानुपरमादिति । अयं भावो विवक्षितसमयसमूहात्मकस्थूलकालचरमसमयकालीनप्रयत्नजन्यशब्देषु तादृशस्थूलकालानन्तरसमयेऽपि भाषापरिणामाविच्छेदेन तेषां तदा लक्ष्यत्वेऽपि विवक्षितसमयसमूहात्मकवर्तमानकालिकप्रयत्नविषयत्वाभावेनाऽव्याप्तितादवस्थ्यमिति घट्टकुट्यां प्रभातमिति पूर्वपक्षाशयः।
समाधत्ते 'ने'त्यादिना । अयमाशयो विवरणकारस्य यदुत भावभाषा द्विविधा निसरणक्रियारूपा शब्दपरिणामरूपा च। 'भाष्यमाणैव भाषे'त्यत्र निसरणक्रियारूपभावभाषाया ग्रहणम | कुत? इत्याह 'शब्दार्थोपपत्तेः = कंठताल्वाद्यभिघातजन्यशब्दोत्पादकव्यापारात्मकभाषाशब्दार्थोपपत्तेरिति। क्रियाविशिष्टपदार्थाभ्युपगन्तुरेवम्भूतनयस्याभिप्रायेण क्रियाकाले एव वस्तुनः सत्वात । तथा च निसर्गसमयानन्तरं भाषाया अलक्ष्यत्वादेव नाऽव्याप्तिरिति हृदयम।
ननु भावभाषाद्वैविध्यकल्पनापेक्षया किमिति लाघवान्निसर्गसमयानन्तरं भिन्नभाषाद्रव्याणां शब्दपरिणाम एव न त्यज्यत इत्यारेकायामाह 'हेत्वभिधानादिति। "पराघातस्वभावश्च लोकव्याप्तौ हेतुरिति" (वि.आ.भा.गा. ३९३ वृ) विशेषावश्यकवृत्तिवचनात्पराघातस्वभावस्य लोकाभिव्याप्तिहेतुरूपेणाऽभिधानादित्यर्थः । "अप्रत्यूहात्" = अनिराकार्य
* सूक्ष्म ऋजुसूत्र नय से भी 'भाष्यमाणा भाषा' सिद्धांत नामुनासिब है * समाधान :- उस्ताद! इस दुनिया में शेर को सवा शेर मिलना मुश्किल नहीं है। उस्ताद! हमने बाल धूप में नहीं पकाये हैं कि तुम्हारी बातों से हम मान जाये। सूक्ष्म ऋजुसूत्र नय की द्रष्टि से द्वितीय समय में भले ही भाषाद्रव्य का नाश हो जाय। इसका हम विरोध नहीं करते हैं। मगर सूक्ष्म ऋजुसूत्र नय की द्रष्टि से भी विजातीयसंतति का प्रयोजक जब तक न आयेगा तब तक सजातीय संतति चलती रहती है, नष्ट नहीं होती है। यह तो आपको मालुम है न? निसर्ग के पश्चात् काल में भी भिन्न भाषाद्रव्यनिष्ठ शब्दपरिणाम के सजातीय शब्दपरिणाम की संतति = धारा चलती रहेगी। अतः सूक्ष्म ऋजुसूत्र नय की द्रष्टि से भी निसर्गानन्तर समय में शब्दपरिणाम होने से वह भी भावभाषास्वरूप ही है। अतएव वह लक्ष्य ही है, अलक्ष्य नहीं। मगर शब्दपरिणाम के होते हुए भी द्वितीयादि समय में 'भाष्यमाणत्व' न होने से अव्याप्ति दोष का निराकरण नहीं हुआ है। घांची का बैल सो मील चले फिर भी वहाँ का वहाँ। आप इतने दूर तक सोचते हैं, फिर भी अव्याप्ति से मुक्त नहीं हो पाते हैं। __शंका :- इस तरह आप हमारा दाँत खट्टे नहीं कर सकते हैं। अव्याप्ति दोष का निराकरण बहुत सरल है। सूक्ष्म ऋजुसूत्र नय तक जाने की कोई जरूरत नहीं है। व्यवहार नय से ही अव्याप्ति का निवारण हो जायेगा । यहाँ नैश्चयिक सूक्ष्मसमयरूप वर्तमान काल को लेने की आवश्यकता नहीं है। व्यवहारिक वर्तमान काल का ग्रहण ही उचित है। यह व्यवहारिक वर्तमान समय तो निसर्ग समय में और निसर्ग समय के बाद तीन समय तक भी रहेगा ही, क्योंकि सूक्ष्म समय व्यवहार्य नहीं है। अतः स्थूल वर्तमान काल को लेकर वर्तमानकालीनप्रयत्नविषयत्वरूप भाष्यमाणत्व, जो कि भावभाषा के लक्षणरूप से इष्ट है, निसर्गोत्तर काल में भी भिन्न भाषाद्रव्य में रहेगा। अतः अव्याप्ति दोष नहीं है।