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५२ भाषारहस्यप्रकरणे - स्त.१. गा. १२
० सूक्ष्मणुसूत्रनयाभिप्रायाविष्करणम् ० न च निसर्गानन्तरं वासनयैव भाषापरिणामाद्विशेषोऽभिधेयः; तया द्रव्यान्तराणां भाषापरिणामाधानेऽपि निसृष्टद्रव्याणां तदपरित्यागात् । न च सूक्ष्मर्जुसूत्रनयेनोपपत्तिः, तन्नयेऽपि परतस्तत्परिणति-धाराऽविच्छेदात्। वचनम्। इदं चापाततः। वस्तुतस्तु शब्दपरिणामस्योत्कर्षत आवलिकाऽसंख्येयभागप्रमितस्थितेः व्याख्याप्रज्ञप्त्यादौ सामान्यत एव प्रतिपादितत्वादभिन्नभाषाद्रव्याणामपि निसर्गसमयानन्तरं शब्दपरिणामसम्भवेन भवति तत्राप्यव्याप्तिः।
कश्चिन्मुग्धो भिन्नभाषाद्रव्येष्वव्याप्तिं निराकरोति तन्मतं निरसितुमुपन्यस्यति 'न चेत्यादिना। भिन्नभाषाद्रव्याणां निसर्गसमयानन्तरं न मौलः शब्दपरिणामः किन्तु भाषाद्रव्यैर्वासितत्वात् पराघातजन्यः शब्दपरिणाम इति तदा तेषामलक्ष्यत्वादेव नाव्याप्तिरिति मुग्धाशयं पूर्वपक्षी निराकरोति तया-वासनया भाषाप्रयोग्यद्रव्यान्तराणां भाषापरिणामाधानेऽपि निसर्गसमयानन्तरं निसृष्टद्रव्याणां तदपरित्यागात् मौलशब्दपरिणामाऽपरित्यागात् तेषां तदाऽपि लक्ष्यत्वेनाऽव्याप्तिर्वज्रलेपायितेति भावः ।
कश्चित् पंडितंमन्योऽव्याप्तिं निराकरोति तन्निरासाथ पूर्वपक्षी तन्मतं प्रदर्शयति 'न च सूक्ष्मे'त्यादिना। सूक्ष्मणुसूत्रनयेन = व्यवहारनयानुपगृहीतशुद्धर्जुसूत्रनयेनेत्यर्थः । शुद्धर्जुसूत्रनयमतेन सर्वे भावाः क्षणिकाः सत्त्वात् विद्युदादिवत्। अतः प्रतिक्षणमुत्पद्यन्ते निरन्वयं विनश्यन्ति च। तथा च भिन्नभाषाद्रव्याण्यपि निसर्गसमयानन्तरं निरन्वयं विनश्यन्ति। मूलं नास्ति कुतः शाखा? ततो निसर्गद्वितीयसमये निसृष्टद्रव्याणामेवाभावात्कुतोऽव्याप्तिरित्याशयः । पूर्वपक्षी तन्निराकरोति 'तन्नये'इत्यादिना। तन्नयेऽपि सूक्ष्मणुसूत्रनयेऽपि, आस्तां स्थूलर्जुसूत्रनैगमादिनये इत्यपिजाते हैं' - यह वचन ही अनुपपन्न रह जायेगा। अतः आरंभकाल के बाद भी शब्दपरिणाम से युक्त होने से द्वितीयादि समय में भी भिन्न भाषाद्रव्य भाषा के लक्ष्यभूत ही हैं, अलक्ष्य नहीं। मगर द्वितीयादि, समय में भिन्न भाषाद्रव्यों में भाष्यमाणत्व नहीं है = वर्तमानकालीनप्रयत्नविषयत्वरूप लक्षण नहीं है। इसी सबब 'भाष्यमाणा भाषा' ऐसा भावभाषा का लक्षण अव्याप्ति दोष से दुष्ट है। अव्याप्ति दोष होने से ही 'भाष्यमाणैव भाषा' इस प्रतिज्ञा का विरोध होगा।
शंका :- 'न च' इत्यादि। भाषाद्रव्यों का निसर्ग करने के बाद द्वितीयादि समय में भाषाद्रव्य वासित होने से उनमें वासना से शब्द परिणाम उत्पन्न होता है, मगर मौलिक शब्दपरिणाम नहीं होता है। अतः प्रथम समय की अपेक्षा द्वितीय समय में विलक्षण होने से हि वह भावभाषा का लक्ष्य नहीं है। अतः अव्याप्ति दोष नहीं है प्रत्युत अलक्ष्य में न जाने से लक्षण समीचीन होता है। द्वितीयादि समय में भिन्न भाषाद्रव्य भी अलक्ष्य होने से 'भाष्यमाणा भाषा' यह प्रतिज्ञा संगत है।
अन्य भाषाद्रव्य में शब्दसंस्कार का आधान करने पर भी निसरणभाषा में शब्दपरिणाम रहता है
समाधान :- 'तया' इति। जनाब! तीर नहीं तो तुक्का यह यहाँ नहीं चलेगा। द्वितीयादि समय में वासना = पराघात से निसृष्ट भाषाद्रव्य भले अन्य भाषापरिणमन योग्य द्रव्यों में भाषापरिणाम को उत्पन्न करे, मगर इसका मतलब यह नहीं है कि अन्य भाषाप्रायोग्य द्रव्य में भाषापरिणाम को उत्पन्न करने से निसृष्ट भाषाद्रव्य में विद्यमान शब्द का परिणाम चला जाय । अन्य भाषाद्रव्यों को वासित करने के बाद भी निसृष्ट भाषा में द्वितीयादि समय में शब्दपरिणाम के स्वीकार में कोई बाध नहीं है, प्रत्युत इसका समर्थक श्रीभगवतीसूत्र भी है जिसमें भाषापरिणाम की उत्कृष्टस्थिति आवलिका के असंख्यभागप्रमित असंख्य समय की बताई गई है। अतः आपकी यह शंका निराधार है। __ शंका :- जनाब! आँखें मूंद कर बोलने से समस्या भी हल नहीं होती है, मगर सूक्ष्म बुद्धि से सोचने पर सही समाधान प्राप्त होता है। यहाँ सूक्ष्म द्रष्टि = सूक्ष्म ऋजुसूत्र नय की दृष्टि का आलम्बन लिया जाय तो 'भाष्यमाणा भाषा' यह प्रतिज्ञावचन निर्दोष प्रतीत है। सूक्ष्म ऋजुसूत्र नय की दृष्टि से सब चीज सत् होने से बिजली की तरह क्षणिक होती हैं। उत्पत्ति के अनन्तर समय में कार्य अपने उपादान कारण के साथ नष्ट होता है, जिसको निरन्वय नाश कहते हैं। भिन्न भाषाद्रव्य भी सत् होने से सूक्ष्म ऋजुसूत्र नय के अभिप्राय से क्षणिक हैं अर्थात् अपनी उत्पत्ति के बाद भिन्न भाषाद्रव्य भी बिजली की तरह निरन्वय नष्ट होते हैं। द्वितीय क्षण में भाषा ही नहीं रहती है, तब 'भाष्यमाणा भाषा' इस लक्षण की प्रवृत्ति न होने से अव्याप्ति का आपादन करना कैसे संगत होगा? क्योंकि द्वितीयादि समय में भाषा ही नहीं रहती है, तब अव्याप्ति कैसे आयेगी?