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५० भाषारहस्यप्रकरणे - स्त.१.गा.१२
० उद्देश्य-विधेयभावविचार० अन्यथा न पूर्वं नापि पश्चादित्यवधारणानुपपत्तेः ।
अथ भाष्यमाणा भाषेति कथं? न हि भाषैव भाष्यते किन्तु विषय इति चेत्? सत्यम, भाषापदसमभिव्याहारे वचनार्थकधातोर्यत्नविशेषपरत्वात्। अत एव 'वाचमुच्चरती' त्यादिर्लोकेऽपि प्रयोगः। ,
'एवं' = ग्रहणादिषु त्रिषु वैवक्षिकद्रव्यभाषात्वाऽनङ्गीकारे सतीत्यर्थः । 'भाष्यमाणा भाषा' इति। उद्देश्यविधेयभावस्थले विधेयतानियामकसंबन्धेन विधेयस्योद्दश्यव्यापकतायाः संसर्गमर्यादया लाभादद्देश्यस्य च व्याप्यत्वं तादात्म्यसम्बन्धेनेति सर्वसिद्धा व्युत्पत्तिः। तथा च प्रकृतेऽपि भाष्यमाणाया उद्देश्यत्वात् भाषायाश्च तादात्म्यसम्बन्धेन विधेयत्वाद् भाष्यमाणव्यापकत्वं भाषायाः तादात्म्यसंबन्धेन लभ्यते। उद्देश्य-विधेयभावस्थले च विधेयतावच्छेदकरूपेणैव विधेयस्य व्यापकत्वं संसर्गमर्यादया प्रतीयतेऽतो भावभाषात्वेनैव भाषाया भाष्यमाणव्यापकत्वं न तु द्रव्यभाषात्वेन । ननु भावभाषात्वेन रूपेण कथं विधेयतेत्याशङकायामाह अन्यथेति। यदि भाषणकालेऽपि भाषा भावभाषा न स्यात तदा न पूर्वं नापि पश्चादित्यवधारणं एवपदलभ्यमनुपपन्नं स्यादिति प्रसङ्गापादनम्।
अयं भावः व्याख्याप्रज्ञप्तौ, "पुव्विं भंते! भासा, भासिज्जमाणी भासा, भासासमयवितिक्कंता भासा? गोयमा! नो पूर्वि भासा, भासिज्जमाणी भासा, णो भासासमयवितिक्कंता भासा। (भग. शत. १३.। उद्दे. ७। सू. ४९३)। इत्येवमुक्तम्। यदि भाषणकाले भाषा भावभाषा न स्यात्तदा "नो पुब्बिं भासा, णो भासासमयवितिक्कंता भासा" इति निषेधः कथं युज्येत? कदाचित्सतोऽन्यदा निषेधः क्रियते न तु सर्वथाऽसतः; अप्रसिद्धप्रतियोगिकत्वापत्तेः । अतो भाष्यमाणा भावभाषैवेति भावभाषात्वस्य विधेयतावच्छेदकत्वमुपपन्नम्।
'भाषापदसमभिव्याहारे' = भाषापदसाहचर्ये सति। शेषशेषिवाचकपदयोः सहोच्चारणं समभिव्याहारः । अयं भावः; 'यथा नृत्यन्ति नृत्यं, पाकं पचती'त्यादिस्थले नर्तनाद्यर्थकधातोर्यत्नविशेषपरत्वेन 'नृत्यं कुर्वन्ति, पाकं करोती'त्यादिवाक्यमुन्नीयानुन्नीय वा पदार्थाभिनयपूर्वकत्वे भूचरणसंयोगत्वे वा सति सविलासतालानुसार्यङ्गविक्षेपात्मकनृत्यानुकूलन माना जाय तो 'शब्दोच्चारण के पूर्व काल में और पश्चात् काल में भाषा नहीं होती है' यह निषेध अनुपपन्न रह जायेगा। अतः भाषणकाल में भाषा भावभाषा ही होती है - यह स्वीकार आवश्यक है। भाषणकालीन भाषा कहो या निसर्गकालीन भाषा कहो, या निसरण भाषा कहो, अर्थ में कोई फर्क नहीं है। निसरणभाषा में स्वरूपतः द्रव्यभाषात्व की उपपत्ति आपके अभिप्राय के अनुसार नामुमकिन होने से यह मानना होगा कि-ग्रहणादि तीन भाषाविवक्षा से ही द्रव्यभाषा है। ___ शंका :- 'अथ' इत्यादि। आप 'भाष्यमाणा भाषा' सिद्धांतवचन की रक्षा करने का प्रयास कर रहे हो मगर आप पहले यह तो सोचिए कि 'भाष्यमाणा भाषा' यह वचनप्रयोग ही समीचीन है या नहीं?" विचार करने पर 'भाष्यमाणा भाषा' यह प्रयोग ही निर्दोष प्रतीत नहीं होता है क्योंकि लोक में" वह भाषा को पुकारता है" ऐसा अनुभव नहीं होता है, किन्तु 'वह आदमी को पुकारता है" ऐसा अनुभव और प्रयोग होता है। अतः भाष्यमाण अर्थात् उच्चार्यमाण तो पुरुष आदि या घट आदि विषय ही होना संगत है न कि भाषा। इस तरह 'भाष्यमाणा भाषा' यह प्रयोग ही असंगत सिद्ध होता है, तब इसके बल पर आप "निसरण आदि भाषा में विवक्षा से ही द्रव्यभाषात्व है, स्वरूपतः नहीं" यह कैसे सिद्ध करोंगे? मूलं नास्ति कुतः शाखा?
* भाष्यमाणा भाषा' प्रयोग समीचीन है * समाधान :- 'सत्यम्' पद शंकाकार की बात के अर्ध स्वीकार अर्थ में यहाँ प्रयुक्त हुआ है। अर्ध स्वीकार इसलिए है कि - सिद्धस्य गतिश्चिन्तनीया-न्याय से जब प्रयोग किया गया ही है तब उसके लिए कोई रास्ता सोचना आवश्यक है। इस प्रयोग की उपपत्ति - इस तरह की जा सकती है कि जैसे 'पाकं पचति' इत्यादि प्रयोग स्थल में, जहाँ घातु से जो अर्थ बताना है वही अर्थ जब नाम से भी प्रतीत होता है, पाक अर्थप्रतिपादक पच् घातु का अर्थ केवल प्रयत्नविशेष ही होता है, वैसे ही यहाँ भी भाष घातु से जो अर्थ बताना है वही अर्थ 'भाषा' पद भी बता रहा है। अतः भाषापद के सन्निधान में भाषण अर्थवाले 'भाष्' धातु का अर्थ केवल प्रयत्नविशेष ही है। यहाँ 'भाष्' धातु कृतिविशेष बोधक होने से ही इस प्रयोग की उपपत्ति हो सकती है। अब 'भाष्यमाणा भाषा' का अर्थ होगा - "वर्तमानकालीन प्रयत्नविषयिणी भाषा ।" अर्थात् "सांप्रतकालीन जो प्रयत्न है इसका विषय भाषा है"। इस व्यवस्था