________________
५१
* 'भाष्यमाणा भाषा' इतिसिद्धान्तमीमांसा * ननु' तथापि कथमेतत् ? अभिन्नानामेव भाषाद्रव्याणामारम्भतः शब्दपरिणामत्यागात्, भिन्नानां तु लोकाभिव्याप्त्यादिना परतोऽपि तत्परिणामावस्थानान्निसर्गसमय एव भाषेति प्रतिज्ञाविरोधात् ।
वर्तमानकालिककृतिमन्तः, विक्लित्त्यनुकूलवर्तमानकालिककृतिमानित्याद्याकारकः शाब्दबोधोऽभ्युपगम्यते तथैवाऽत्रापि यत्किञ्चिज्ज्ञानानुकूलशब्दप्रयोगार्थकधातोः कृतिविशेषपरत्वेन 'क्रियमाणा भाषे'तिवाक्यमुन्नीयाऽनुन्नीय वा 'वर्तमानकालिक कृतिविषया भाषे' त्याकारकशाब्दबोधो युक्त एवेति भावः । अत एव = भाषापदसमभिव्याहारे वचनार्थकधातोर्यत्नविशेषपरत्वादेव 'वाचमुच्चरतीत्यत्र कण्ठताल्वाद्यभिघातपूर्वकशब्दजनकव्यापारार्थकधातोर्यत्नविशेषपरत्वाभ्युपगमेन 'वाचं करोती' तिवाक्यमुन्नीयाऽनुन्नीय वा 'वाग्विषयकवर्तमानकालिककृतिमानि' त्याकारकशाब्दबोधजनकः प्रयोग इत्यर्थः। यद्यपि 'चर् भक्षणे चे 'ति हैमधातुपाठान्न वचनार्थो लभ्यते तथापि उपसर्गेण धात्वर्थो बलादन्यत्र नीयते' न्यायेन तत्प्राप्तिरिति दिक् ।
पूर्वपक्षयति-नन्विति । 'कथमेतदिति । कथं भाष्यमाणैव भाषेति सिद्धान्तवचनं युक्तमिति शेषः । न युक्तमिति नन्वाशयः। अयुक्तत्वमेवाह 'अभिन्नानामि' त्यादिना । एवपदं भिन्नभाषाद्रव्यव्यवच्छेदार्थम् । आरम्भतः = आरम्भकालतः, अव्यवहितोत्तरत्वं तसिलर्थः आरम्भकालानन्तरमिति यावत् । परतः = निसर्गकालोत्तरं, किं पुनर्निसर्गकाले इत्यपिशब्दार्थः। पूर्वपक्षिणोऽयमाशयो यदुत निसर्गसमये एवाभिन्नानां भाषाद्रव्याणामुत्कर्षतः संख्येययोजनगमनात् तदनन्तरं तेषां शब्दपरिणामत्यागेन 'भाष्यमाणैव भाषा' इति भावभाषालक्षणप्रवृत्तिस्तेषु सम्भवति किन्तु भिन्नभाषाद्रव्याणां समयचतुष्केन लोकव्यापित्वान्निसर्गोत्तरकालमपि शब्दपरिणामावस्थानाद् 'भाष्यमाणैव भाषा' इतिभावभाषालक्षणस्य प्रवृत्तिस्तेषु वर्तमानकालिककृतिविषयत्वाभावेन न सम्भवतीत्यव्याप्तिदोषदुष्टं 'भाष्यमाणैव भाषे' तिसिद्धान्त
के अनुसार ही लोकप्रसिद्ध, जैसे 'वाचमुच्चरति' इत्यादि, प्रामाणिक प्रयोग की भी उपपत्ति हो सकेगी। इस व्यवस्था के अस्वीकार में कथित प्रयोग की उपपत्ति कदापि संभव नहीं है । उपर्युक्त व्यवस्था के स्वीकार किए बिना 'वाचमुच्चरति' का अर्थ यह प्राप्त होगा कि 'वाक्कर्मक - वर्तमानकालीन - वागनुकूलकृतिमान् (चैत्रादि)' जो कि पुनरुक्ति दोषयुक्त होने से अयुक्त है। जब कि पूर्वोक्त व्यवस्था का स्वीकार करने पर 'वाक्कर्मक- वर्तमानकालीन कृतिमान् (चैत्रादि ) ' - यह अर्थ प्राप्त होता है जो संगत प्रतीत होता है। उक्त व्यवस्था से ही इस लौकिक प्रयोग की उपपत्ति भी हो सकती है। लोग भी यह व्यवस्था होने के कारण 'वाचमुच्चरति ' इत्यादि वाक्य का प्रयोग करते हैं। अतः 'भाष्यमाणा भाषा' यह सिद्धांत वचनप्रयोग की दृष्टि से भी शुद्ध ही है, अशुद्ध नहीं ।
* भाष्यमाणा भाषा- यह भाषालक्षण अव्याप्तिदोषग्रस्त है पूर्वपक्ष
-
पूर्वपक्ष :- आपने 'भाष्यमाणा भाषा' इस प्रयोग को शुद्ध बताने का सराहनीय प्रयास किया है लेकिन यह समुद्रवृष्टि की तरह निष्फल है, क्योंकि 'भाष्यमाणैव भाषा' अर्थात् "वक्ता जब शब्दोच्चारण करता है तभी वह भाषा है, अन्यदा नहीं" यह भाषा का लक्षण अव्याप्तिदोष से दूषित है। देखिये, आपने निसरणभाषा के दो भेद भिन्न भाषाद्रव्य और अभिन्न भाषाद्रव्य बताये हैं। दोनों ही भाषारूप होने से लक्ष्य ही है। निसरणभाषारूप लक्ष्य के एक देशभूत अभिन्न भाषाद्रव्य में आपसे बताया गया भाषालक्षण नहीं जाता है, क्योंकि अभिन्न भाषाद्रव्य अपने आरंभ = उत्पत्तिकाल = निसर्गकाल के बाद शब्दपरिणाम का त्याग करते हैं। अतः निसर्ग के दूसरे समय में वे भाषारूप नहीं हैं और जब वे आरंभकाल में = शब्दोच्चारण काल में भाषा स्वरूप हैं तब इनमें 'भाष्यमाणा भाषा' यह लक्षण जाता है, मगर अभिन्न भाषाद्रव्य में जो कि अपने निसर्गकाल = आरंभकाल के बाद तीन समय में संपूर्ण लोक में व्याप्त होते हैं; 'भाष्यमाणा भाषा' यह लक्षण नहीं जाता है। भाष्यमाणत्व यानी वर्तमानकालीन कृतिविषयत्व सिर्फ आरंभकाल में ही भिन्नभाषा द्रव्य में रहता है जब कि शब्दपरिणाम तो आरंभकाल के बाद भी रहता है। भिन्नभाषाद्रव्य ४ समय में लोकव्याप्त होते है ऐसा आगम में कहा गया है। इससे यह सिद्ध होता है कि संपूर्ण लोक में फैलने तक वे भाषापरिणाम का त्याग नहीं करते हैं। यदि वे उत्पत्तिकाल के अनंतर शब्दपरिणाम को छोड दे तब तो वे भाषास्वरूप ही न होने से 'भिन्न भाषाद्रव्य संपूर्ण लोक में फैल
१ ननु' शब्दत आरभ्य अनुपरमादिति चेत् पर्यन्तं पूर्वपक्षः ततः 'न' इत्यादिनोत्तरपक्षः प्रारभ्यते ।
२ कप्रतौ 'मारत' इति पाठः ।
-