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४८ भाषारहस्यप्रकरणे स्त. १. गा. १२
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o ग्रहणादिषु द्रव्यप्राधान्यविवक्षासमर्थनम् O
'अण्णह विरुज्झए किर दोहि अ समएहि भासए भासं ।
वयजोगप्पभवा सा, भासा भासिज्जमाणि त्ति । ।१२ ।।
अन्यथा विरुध्यते किल द्वाभ्यां समयाभ्यां भाषते भाषामिति । इदं हि प्रथमसमये भाषाद्रव्याणि गृहीत्वा द्वितीयसमये भाषात्वेन परिणमय्य निसर्गाभिप्रायेण सङ्गच्छते । एवं च निसर्गसमये भाषाद्रव्याणां भावभाषात्वमेवेति ग्रहणमेव द्रव्यभाषा स्यान्न निसर्गादीत्युक्तविवक्षैवादरणीया ।
'अन्यथेति ग्रहणादिषु द्रव्यस्य प्राधान्यमनालम्ब्य स्वरूपत एव द्रव्यभाषात्वाङ्गीकारे इत्यर्थः । स्वरूपतो द्रव्यभाषात्वं नाम भावभाषाकारणत्वम्। निसरण पराघातभाषयोः स्वरूपतो भावभाषात्वाद् ग्रहणस्यैव भावभाषाकारणत्वेन द्रव्यभाषात्वं स्यात् । अतः ग्रहणादिषु त्रिषु स्वरूपतो द्रव्यभाषात्वं परित्यज्य वैवक्षिकद्रव्यभाषात्वमेवाङ्गीकर्तव्यमित्याशयः । न च निसरणभाषाद्रव्याणां पराघातभाषाजनकत्वेन स्वरूपतो द्रव्यभाषात्वं तत्राऽव्याहतमिति वाच्यम् तथापि पराघातभाषाद्रव्याणां स्वरूपतो द्रव्यभाषात्वस्यानुपपन्नत्वात् ।
" ग्रहणादि भाषा में द्रव्य के प्राधान्य की विवक्षा न की जाय और स्वरूप से ही द्रव्यभाषात्व का अंगीकार किया जाय तब दोष क्या है ?" इस समस्या का समाधान प्रकरणकार १२वीं गाथा से दे रहे हैं।
गाथार्थ :- अन्यथा 'जीव दो समय से भाषा को बोलता है' "भाषा वचनयोग से उत्पन्न होती है और "जब शब्दोच्चारण होता है तब वह भाषा कहलाती है" इन तीन सिद्धांत वचनों का विरोध आयेगा (विवरणार्थ देखने से यह बात स्पष्ट हो जायेगी) । । १२ ।। * द्वाभ्यां समयाभ्यां भाषते भाषां-सिद्धांत का विरोध *
विवरणार्थ :- यदि "ग्रहणादि भाषा में द्रव्य के प्राधान्य की अपेक्षा से द्रव्यभाषात्व नहीं है मगर स्वरूपतः द्रव्यभाषात्व है" ऐसा माना जाय तो तीन सिद्धांतो का भंग होता है। प्रथम सिद्धांत है "दो समय से भाषा बोली जाती है"। इस सिद्धांत का तात्पर्य यह है कि जीव प्रथम समय में ग्रहणप्रयत्न से भाषाद्रव्यों को ग्रहण करता है। प्रथमसमयगृहीत सब भाषाद्रव्यों को भाषारूप से परिणमन कर के निर्सर्गानुकूल प्रयत्न से द्वितीय समय में छोडता है। तृतीय समय में प्रथमसमयगृहीत एक भी भाषाद्रव्य नहीं रहता है । इस तरह भाषा की उत्पत्ति दो समय से होती है। इस सिद्धांत से सिद्ध होता है कि द्वितीय समय में निसर्गकाल में भाषाद्रव्य भावभाषा ही है, क्योंकि भाषारूप से परिणमन कर के उनका निसर्ग=त्याग किया गया है। निसर्गकालीन भाषा स्वयं भावभाषा होने से भावभाषा के कारणभूत नहीं है। आपके अभिप्रायानुसार भावभाषा के कारणभूत द्रव्यभाषा अर्थात् स्वरूपतः द्रव्यभाषारूप से ग्रहणादि तीनों का स्वीकार किया जाय तो वह सिद्ध नहीं होगा, क्योंकि स्वरूपता द्रव्यभाषात्व सिर्फ ग्रहण भाषाद्रव्य में ही रहेगा; भावभाषात्मक निसरणभाषाद्रव्य और पराघातभाषाद्रव्य में नहीं द्रव्यनिक्षेप और भावनिक्षेप का एक काल में एक व्यक्ति में होना असंभव है, क्योंकि एक काल में एक व्यक्ति में एक ही चीज का द्रव्यनिक्षेप और भावनिक्षेप विरुद्ध हैं। आपकी मान्यता को अनुमति देने पर 'दोहिं समएहिं ... सिद्धांत बाधित होता है। अतः 'साँप मरे नहीं और लाठी भी टूटे नहीं' ऐसा मार्ग अपनाना ही युक्त होगा जो कि हमने पूर्व में ही बता दिया है कि ग्रहणादि तीनों में द्रव्य के प्राधान्य की विवक्षा से द्रव्यभाषा का व्यवहार होता है।
* वचोयोगप्रभवा भाषा सिद्धांत का विरोध
'एवं इत्यादि । "ग्रहणादि तीन भाषा विवक्षा से द्रव्यभाषा नहीं है किन्तु स्वरूपतः द्रव्यभाषा है ऐसी आपकी मान्यता को स्वीकार करने पर 'वचोयोगप्रभवा भाषा सिद्धांत का भी विरोध होगा। इस सिद्धांत का अर्थ है वचनयोग भाषा का जनक है और भाषा वचनयोग से जन्य है। यहाँ वचनयोग का अर्थ है निसर्ग के अनुकूल कायव्यापार । जो कायव्यापार निसर्ग का हेतु है वह कायव्यापार वचनयोगात्मक है अथवा वचनयोग की दूसरी व्याख्या विवरणकार ने इस तरह बताई है कि काययोग से गृहीत भाषाद्रव्यों के समूह के आलंबन से जीव जो व्यापार करता है वह जीवव्यापार वचनयोग है। वचनयोग के दोनो अर्थ में क्या अंतर है ? इसका स्पष्टीकरण मोक्षरत्ना से ज्ञातव्य है प्रस्तुत में विवरणकार कहते हैं कि वचनयोग चाहे भाषाद्रव्यत्यागहेतुभूत शरीरव्यापारात्मक हो या चाहे काययोग से गृहीत भाषाद्रव्यों की सहायता से होनेवाला जीवव्यापारात्मक हो, इस विषय में हमारा
१ अन्यथा विरुध्यते किल, द्वाभ्यां च समयाभ्यां भाषते भाषाम् । वचोयोगप्रभवा सा भाषा भाष्यमाणेति । । १२ ।।
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