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४२ भाषारहस्यप्रकरणे - स्त.१.गा.८
० द्रव्यनाशकतानिरूपणम् ० * सछिद्रघट की सामग्री भिन्न है - नैयायिक * नैयायिक :- 'अथ.' इत्यादि। छिद्रघटात्मक नूतन द्रव्य की उत्पत्ति मानने पर कार्य में आकस्मिकता आदि दोषों को आपने बताया है वह अरण्यरुदन समान है, क्योंकि दण्डादि भी घटविशेष यानी निश्छिद्र घट की सामग्री है, न कि घट सामान्य की यानी सछिद्र घट और निश्छिद्र घट दोनों की। यह नियम तो सर्वमान्य है कि - कोई भी कार्य अपनी उत्पत्ति में अपनी सामग्री की अपेक्षा रखता है, अन्य कार्य की सामग्री की नहीं। दण्डादि निश्छिद्र घट की सामग्री है, सछिद्र घट की नहीं। अतः छिद्र घट को अपनी उत्पत्ति के लिए दण्ड-चक्र-चीवर-कुम्हार आदि की अपेक्षा ही नहीं है। सछिद्र घट को तो दण्डादि से विलक्षण अपनी सामग्री की ही अपेक्षा होगी जो कि जहाँ जहाँ सछिद्रघट की उत्पत्ति होती है, वहाँ वहाँ अवश्य विद्यमान रहती ही है। आपके मत में जो छिद्रपर्याय की सामग्री है वही हमारे पक्ष में छिद्रघट की सामग्री है। अतः अब सछिद्र घट में आकस्मिकता दोष और तन्मूलक अन्य दोषों की परंपरा का आगमन नहीं होगा । अतः निश्छिद्र घट का नाश और सछिद्र घट की उत्पत्ति मानना ही युक्त है। इसी तरह अभिन्न भाषाद्रव्य का नाश और भिन्न भाषाद्रव्य का उत्पाद मानना ही तर्कसंगत रहेगा। इसी सबब पूर्वे अवस्थित भाषाद्रव्य में ही भेद पर्याय की उत्पत्ति की कल्पना करना नामुनासिब है।
* छिद्रघट की सामग्री घटसामग्री से भिन्न - स्याद्वादी* स्याद्वादी :- अपूर्व. इति। वाह! आपकी यह अजायब कल्पना है। सारे जहाँ की यह दशवीं अजायबी है। विवरणकार सत्तू बाँध कर नैयायिक के पीछे पड़े हैं। कभी कभी उपहास से भी नैयायिक को परास्त करते हैं। यहाँ उपहास का कारण यह है कि - दण्डचक्र-चीवर-कुम्हार आदि में अन्वय, व्यतिरेक और लाघव से घटत्वावच्छेदेन यानी घट सामान्य की अपेक्षा से कारणता सिद्ध होती है, क्योंकि सामान्य कार्यकारणभाव की सिद्धि के बिना विशेषकार्यकारणभाव का निर्णय नामुमकिन है। घट और दण्डादि में सामान्यतः कार्यकारणभाव निश्चित होने के बाद नील घट पीत घट आदि विशेष कार्य की सामग्री का निश्चय होता है। इस तरह जब घटसामान्य और दण्डादि के बीच कार्यकारणभाव निश्चित ही है तब तो छिद्र घट भी घट तो है ही, अतः छिद्र घट को घटसामान्य की सामग्री की तो अवश्य अपेक्षा रहेगी ही, विशेष में अन्य हेतुओं की भी अपेक्षा रहेगी। अतः छिद्रघटात्मक नूतन द्रव्य के स्वीकार में आकस्मिकता का प्रसंग तो वज्रलेप ही रहेगा।
दूसरी बात यह है कि छिद्रशून्य घट और दण्ड-चक्रादि के बीच कार्यकारणभाव मानने पर कार्यतावच्छेदक धर्म निश्छिद्रघटत्व होगा जब कि घट और दण्डादि के बीच कार्यकारणभाव मानने पर कार्यतावच्छेदक घटत्व होगा। अतः घट सामान्य में दंडादि को कारण मानने में लाघव है, जब कि निश्छिद्रघट में दंडादि को कारण मानने पर गौरव है। दार्शनिक जगत में जब लघुरूप से कार्यकारणभाव संभव हो तब गुरुतररूप से कार्यकारणभाव मान्य नहीं होता है। यह सामान्य ज्ञान भी पूर्वपक्षी बने हुए नैयायिक को नहीं है। अतः विवरणकार ने 'अपूर्वेयं' कल्पना' कह कर उपहास किया है। दूसरे भी दोष पूर्वपक्ष के सिद्धांत में रहे हैं, जिन्हें वाचकवर्ग मोक्षरत्ना से जान सकते हैं। __ नैयायिक :- घटसामान्य और दंडादि के बीच में व्यापकरूप से यानी घटत्वरूप से कार्यकारणभाव मानने में छिद्र घट की आकस्मिक उत्पत्ति होने की आपत्ति है। अतः इस दोष से मुक्त होने के लिए व्यापकरूप से कार्यकारणभाव का त्याग कर के व्याप्यरूप से विशेषरूप से कार्यकारणभाव मानना जरूरी है। हाँ, कार्यतावच्छेदक में गौरव जरूर है, मगर वह फलमुख होने की वजह दोषरूप नहीं है। दूधार गाय की लात भी भली! अतः निश्छिद्ररूप से ही घट की कारणता दण्डादि में मानना उचित है। अतः उपहास करना उचित नहीं है।
* सछिद्र घट की सामग्री अलग मानने पर व्यवहार का अपलाप * स्याद्वादी :- 'अस्तु वा.' इत्यादि। आपकी यह बात भी अन्योन्याश्रयदोषग्रस्त होने से नामुनासिब है। फिर भी 'तुष्यतु दुर्जनः' न्याय से आपकी इस कल्पना को हम स्वीकार करते हैं। अब आपसे हमारा यह प्रश्न है कि - "घट में छिद्र पैदा हुआ है, घट नष्ट हुआ नहीं है" ऐसा जो प्रसिद्ध और प्रामाणिक व्यवहार है इसका समर्थन आपकी कल्पना के अनुसार कैसे हो सकेगा? इस लौकिक व्यवहार से भी यही सिद्ध होता है कि - 'घट के रहते हुए ही घट में छिद्र की उत्पत्ति हुइ है'। यह व्यवहार भी हमारी मान्यता का समर्थन करता है। आपके सिर पर इस व्यवहार के अपलाप करने का कलंक भी लगा हुआ ही है। अतः सछिद्र घट की आकस्मिक उत्पत्ति होने की आपत्ति का निवारण करने के लिए घटसामान्य और दंडादि के बीच कार्यकारणभाव को छोड कर