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* साध्यतावच्छेदकलाघवशङ्का *
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अथ दण्डादिकं हेतुर्घटविशेष एव न त्वत्रापीति चेत्? अपूर्वेयं कल्पना। अस्तु वा तथा, तथापि 'घटे छिद्रमुत्पन्नं न तु घटो विनष्ट' इति व्यवहारः कथमुपपादनीयः? इत्यधिकं सम्मतिटीकायाम्।
'आकस्मिकत्वात्' = निर्हेतुकत्वापत्तेरित्यर्थः । तथा सति प्रसिद्धकार्यकारणभाव-देश-कालादिनियमभङ्गप्रसंगः । तदुक्तं धर्मकीर्तिना प्रमाणवार्तिके नित्यं सत्त्वमसत्त्वं वाऽहेतोरन्यानपेक्षणात्। अपेक्षातो हि भावानां कादाचित्कत्वसंभवः ।। ( ) किञ्च छिद्रघटस्य कार्यत्वेन 'सामग्री वै कार्यजनिके'त्यभियुक्तवचनविरोधः। अन्वयव्यतिरेकाभ्यां लाघवाच्च घटत्वावच्छेदेनैव दण्डादीनां कारणता न तु निश्छिद्रघटत्वावच्छेदेनेति खण्डघटोत्पादस्याऽऽकस्मिकत्वप्रसङ्गो दुर्निवारः । ततश्च भक्षितेऽपि लशुने न शान्तो व्याधिरिति सोपहासं नैयायिकंमन्यमाह - 'अपूर्वा' इति । किञ्च कार्यकारणभावस्य घटत्वं परित्यज्य निश्छिद्रघटत्वावच्छेदेन कारणतामङ्मीकृत्य सङ्कोचकरणे मानाभावात्, कार्यतावच्छेदकधर्मे गौरवाच्चेत्यजां निष्काशयतः क्रमेलकापात इत्युपहासबीजम् । न चाकस्मिकत्वदोषवारकत्वेन गौरवस्याऽदुष्टत्वमिति वाच्यम्, अन्योन्याश्रयप्रसङ्गात् ।
ननु छिद्रघटोत्पादानिश्छिद्रघटध्वंसानुमित्यपेक्षया घटध्वंसानुमित्यङ्गीकारो युक्तः, साध्यतावच्छेदकलाघवादित्याशङ्कायां सत्यामभ्युपगमवादेनाह अस्त्विति। शेषमतिरोहितार्थम् । पूर्वकालीन विशिष्टरूप से कार्य का ध्वंस प्रमाणसिद्ध होता है, न कि सामान्यरूप से कार्य का ध्वंस । अतः भाषाद्रव्य के सर्वथा नाश की आपत्ति नहीं आयेगी, क्योंकि भिन्नत्वरूप से भाषाद्रव्य की उत्पत्ति होने पर अभिन्नत्वरूप से भाषाद्रव्य का नाश प्रमाणसिद्ध होता है, न कि भाषात्वरूप से भाषाद्रव्य का नाश । अतः यह सिद्ध हुआ कि भाषाद्रव्य में जब भेदपर्याय उत्पन्न होता है तब पूर्वकालीन अभेदपर्याय का नाश प्रमाण से निश्चित होता है, न कि मूलतः भाषाद्रव्य का नाश।
नैयायिक :- 'न च' इत्यादि। आप तो भाषा में भेद पर्याय की उत्पत्ति की बात करते हो और वह भी घट में छिद्रपर्याय उत्पन्न होता है इस मान्यता के आधार पर | मगर आपकी यह मान्यता निराधार है, क्योंकि घट में छिद्रपर्याय उत्पन्न नहीं होता है मगर छिद्रघटरूप नवीन द्रव्य की ही उत्पत्ति होती है, ऐसा हमारा सिद्धांत है। इस सिद्धांत से ही भिन्न भाषारूप नूतनद्रव्य के उत्पाद की सिद्धि होगी, न कि पूर्वस्थित भाषा में ही भेदपर्याय की उत्पत्ति।
* छिद्रघटरूप नवीन द्रव्य के उत्पाद में दोषों की परंपरा* स्याद्वादी :- 'दण्डा'. इत्यादि। उस्ताद! लातों के भूत बातों से नहीं मानते-यह बात ठीक है। अब तक हमने हमारे पक्ष की ही युक्ति आपको बताई थी। अब आपके सिद्धांत में क्या क्या दोष हैं? यह भी बताते हैं। कान खोल कर सुनिए। घट में छिद्रपर्याय उत्पन्न नहीं होता है मगर छिद्रघटरूप द्रव्य उत्पन्न होता है-ऐसी आपकी मान्यता का स्वीकार यह आकस्मिक कार्योत्पाद की आपत्ति आयेगी। देखिये, कोई भी कार्य अपनी सामग्री से उत्पन्न होता है, सामग्री के बिना नहीं। घट की कारण सामग्री दण्ड-चक्रचीवर-कुम्हार आदि है। मगर जहाँ आपके मतानुसार छिद्र घट की उत्पत्ति होती है वहाँ कुम्हार-दंड आदि घटोत्पादक सामग्री कहाँ होती है? कुम्हार तो अपने घर में या बाजार में रहता है तब उसके बिना ही यहाँ छिद्र घट की उत्पत्ति होती है। यह तो सर्वजन से सुविदित है। अतः आपके सिद्धांत को स्वीकृति देने पर छिद्र घट की आकस्मिक उत्पत्ति का अनिष्ट प्रसंग आयेगा। 'सामग्री वै कार्यजनिका' यह अभियुक्त पुरुषों की उक्ति का भी विरोध होगा। दूसरी बात यह है कि छिद्र घट की उत्पत्ति को आकस्मिक = निर्हेतुक मानने पर छिद्र घट सब देश में और सब काल में रहेगा या फिर कहाँ भी न रहेगा, क्योंकि जिसको किसीकी अपेक्षा नहीं है, वह या तो सर्वत्र सदा रहेगा या तो कहीं भी कभी भी नहीं रहेगा। किसी काल में या किसी देश में वह चीज रहती है, जिसको किसीकी अपेक्षा हो जैसे कि मकान । सोचने पर ऐसी अनेक आपत्तियाँ आपके सिद्धांत को मान्यता देने पर आती है। अतः इन सब दोषों से मुक्त होने के लिए आपको यही मानना होगा कि घट में छिद्र पर्याय उत्पन्न होता है न कि नवीन छिद्रघट'। इसी तरह "भाषाद्रव्य में भेदनाम का पर्याय = धर्म उत्पन्न होता है, न कि नूतन भिन्नभाषाद्रव्य" यह प्रमाणसिद्ध होने की वजह, निर्दोष होने से अनिच्छा सें भी आपको स्वीकार करना होगा।