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*दिगम्बराम्नायोपदर्शनम *
एभिः = भेदैः, भिद्यमानानि द्रव्याणि पश्चानुपूर्वीभेदात् पश्चानुपूर्येव भेदः = यथासंख्यं गणनप्रकारः ततः, अनन्तगुणानि भवन्ति। तत्र च सर्वस्तोकानि चरमाणि = उत्करिकाभेदेन भिद्यमानानि । तथा चालापकः । ___१"एएसिं णं भंते! दव्वाणं खंडाभेएणं पयराभेदेणं चुण्णिआभेदेणं अणुतडिआभेदेणं उक्कारियाभेदेण च भिज्जमाणाणं कतरे कतरेहिंतोअप्पा वां बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा? गोयमा! सव्वत्थोवाइं दव्वाइं उक्कारिआभेदेणं भिज्जमाणाइं, 'अणुतडिआभेदेण भिज्जमाणाइं अणंतगुणाई, चुण्णिआभेदेणं भिज्जमाणाई अणंतगुणाई, पयराभेदेणं भिज्जमाणाइं अणंतगुणइं, खंडाभेदेणं भिज्जमाणाई अणंतगुणाई ति" (प्र. भा. सू. १७०) इदं चाल्पबहुत्वं सूत्रप्रामाण्यादेव युक्तेरविषयत्वादिति सम्प्रदायः।।९।। तदेवमुक्तं सप्रसङ्ग कीदृशानि निसृजतीति । अथ कैः केषां पराघात इत्याह
"किर' इति। किरेरहिर किलार्थे वा इति (सि.हे.श. ८।२।१८६) सिद्धहेमशब्दानुशासनवचनात् तस्य किलार्थवाचकत्वं सिद्धम्। "अनुश्रेणि गतिः" इति। श्रेणेरनतिक्रमणम नुश्रेणि (कात. २।५।१४), अत्राव्ययीभावसमासः | तदुक्तम् "पूव वाच्यं भवेद्यस्य सोऽव्ययीभाव इष्यते" वर्तमानोपलब्धतत्त्वार्थप्रतिषु 'अनुश्रेणिर्गतिः' (तत्त्वा. २।२७) इत्येवं सूत्रमुपलभ्यते। दिगम्बराम्नाये च 'अनुश्रेणि गतिः' इत्येवं सूत्रमुपलभ्यते किन्तु' जीवसूक्ष्मपुद्गलयोरनुश्रेणि गतिः' इत्येवं सूत्रं न क्वापि दृश्यते इति ध्येयम् । हैं। खंडभेद, प्रतरभेद, चूर्णिकाभेद, अनुतटिकाभेद और उत्करिका भेद-इस क्रम से यहाँ भेद का निरूपण हुआ है। इस क्रम से जो अंतिम उत्करिका भेद है उससे भिन्न होते हुए द्रव्य सबसे कम होते हैं। इसका स्पष्ट प्रतिपादन करने के लिए विवरणकार पन्नवणा नामक उपांग का साक्षी पाठ बताते हैं। यह रहा वह साक्षी पाठ, सुनिये, - "गौतमस्वामीजी वीरप्रभु से प्रश्न करते हैं कि - "हे भगवंत! खंडभेद, प्रतरभेद, चूर्णिकाभेद, अनुतटिकाभेद और उत्करिकाभेद से भिन्न हुए द्रव्यों में से कौन किस से अल्प हैं? कौन किससे अधिक हैं? या सब समान संख्यावाले हैं? या विशेषाधिक हैं?" इस समस्या को हल करते हुए वीर प्रभु गौतम से कहते हैं कि - "हे गौतम! उत्करिकाभेद से भिन्न द्रव्य सबसे कम होते हैं। इनकी अपेक्षा अनुतटिकाभेद से भिन्न द्रव्य अनंतगुण होते हैं। इनकी अपेक्षा चूर्णिकाभेद से भिन्न द्रव्य अनंतगुण होते हैं। इनकी अपेक्षा प्रतरभेद से भिन्न द्रव्य अनंतगुण होते हैं। इनकी अपेक्षा खंडभेद से भिन्न द्रव्य अनंतगुण होते हैं।
शंका :- भिन्नद्रव्यों के प्रस्तुत अल्पबहुत्व में क्या तर्क युक्ति है?
समाधान :- सारे जहाँ में विषय दो प्रकार के होते हैं। हेतुवाद का विषय और आगमवाद का विषय। जिस विषय के स्वीकार में कोई तर्क-युक्ति हो वह हेतुवाद का विषय कहा जाता है। अतः हेतुवाद के विषय में विषय के स्वीकार के लिए युक्ति-तर्क की जाँच करना आवश्यक है। मगर जिस विषय के स्वीकार में कोइ युक्ति नहीं है - जैसे कि अभव्य जीवों से भव्य जीवों की संख्या अनन्तगुण होती है - वहाँ नहीं। सिर्फ सर्वज्ञ भगवंत कथित आगमवचन ही इसका समर्थक है। अतः वह आगमवाद का विषय कहा जाता है। आगमवाद के विषय का स्वीकार आगम के प्रामाण्य से ही करना पड़ता है। अर्थात् प्रमाणभूत आगम से कथित विषय युक्तिगम्य न होने पर भी मान्य होता है, क्योंकि वह प्रमाणभूत आगम से प्रतिपादित है। आगमवाद के विषय में युक्ति को जाँचना गधे के बालों की संख्या गिनने की तरह निष्फल है। प्रस्तुत में भी भिन्नद्रव्यों का अल्पबहुत्व आगमवाद का विषय है। प्रामाणिक आगम से प्रतिपादित होने से ही वह स्वीकर्तव्य है। यह हमारी अविच्छिन्नगुरुपरम्परा से प्राप्त हुआ उपदेश है।।९।। __ 'तदेवं' इति! इस तरह नो-आगम से तद्व्यतिरिक्त निसरण द्रव्यभाषा के प्रसंग से "जीव कैसे भाषाद्रव्यों को छोडता है?" यह निरूपण समाप्त हुआ। अब नोआगम से तद्व्यतिरिक्त द्रव्यभाषा के तृतीयभेद-पराघात भाषाद्रव्य का निरूपण अवसरोचित है। पराघात का अर्थ है वासित करना। यहाँ यह जिज्ञासा हो सकती है कि - "किन भाषाद्रव्यों से किन भाषाद्रव्यों का पराघात होता
१ एतेषां भदन्त! भाषाद्रव्याणां खंडभेदेन, प्रतरभेदेन, अनुतटिकाभेदेन, उत्करिकाभेदेन भिद्यमानानां कतराणि कतरेभ्योऽल्पानि वा बहुकानि वा तुल्यानि वा विशेषाधिकानि वा? गौतम! सर्वस्तोकानि द्रव्याणि उत्करिकाभेदेन भिद्यमानानि, अनुतटिकाभेदेन भिद्यमानानि अनन्तगुणानि, चूर्णिकाभेदेन भिद्यमानानि अनन्तगुणानि, प्रतरभेदेन भिद्यमानानि अनन्तगुणानि, खंडभेदेन भिद्यमानानि अनन्तगुणानि इति ।
२ अत्र मुद्रितप्रतौ "अक्कारिआभेदेणं" इति पाठः। ३ अत्र मुद्रितप्रतौ "अणुतडियाभेदेणं" इति पाठः।