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३८ भाषारहस्यप्रकरणे - स्त.१. गा.८
० सर: सर: सर वाप्यादिलक्षणप्रदर्शनम ० से त्तं चुण्णिआभेदे।३। से किं तं अणुतडियाभेदे? अणुतडियाभेदे जण्णं अगडाण वा तलागाण वा दहाण वा नदीण वा वावीण वा पुक्खरिणीण वा दीहिआण वा गुंजाण वा गुंजालियाण' वा सराण (ग्रन्थाग्रं-१०० श्लोक) वा सरसराण वा सरपंतियाण वा सरसरपंतिआण वा अणुतडियाभेदे भवति से त्तं अणुतडियाभेदे।४। से किं तं 'उक्कारियाभेए? उक्कारियाभेए जण्णं मूसाण वा मंडूसाण वा तिलसिंगाण वा मुग्गसिंगाण वा माससिंगाण वा एरंडबीआण वा फुडिया उक्कारि आए भेए भवति से त्तं उक्कारिआभेए त्ति ५। (प्र. भा. सू. १७०) बहूनि केवलकेवलानि पुष्पप्रकरवत् विप्रकीर्णकानि सरांसि, तान्येवैकैकपंक्त्या व्यवस्थितानि सरस्पङ्क्त्यः , येषु सरस्सु पंक्त्या व्यवस्थितेषु कूपोदकं प्रणालिकया संचरति सा सरस्सर-पङ्क्तिः , अप्रतीता भेदा लोकतः प्रत्येतव्या" (प्र. भा. सूत्र १७० वृत्तिः) एवं व्याख्यातम्। सर्वतन्त्रसिद्धान्तपदार्थलक्षणसङ्ग्रहे तु वापीलक्षणं "कृत्रिमसरा वापी" एवमुक्तम्। 'मूसाण' = मूषकाणां। 'मंडूसाण' इति दर्दुराणामित्यस्माकमाभाति।
खंडभेद का जैसे लक्षण बताया है वैसे ही प्रतरभेद आदि का लक्षण भी जानना चाहिए। जैसे कि वंश का भेद आदि द्रष्टांतो की अपेक्षा से भेद में रहनेवाला और अयाखंड, पिप्पलीचूर्ण आदि द्रष्टांतों की अपेक्षा भेद में नहीं रहनेवाला प्रतिनियत वैलक्षण्य ही प्रतरभेद का लक्षण है। इस तरह वाचकवर्ग चूर्णभेद आदि के लक्षण की योजना स्वयं करे-यह विनंति । वह वैलक्षण्य जातिरूप है या उपाधिरूप? इस विषय में विवरणकार का कोइ आग्रह नहीं है। फिर भी इसे उपाधिरूप मानना समीचीन लगता है।
* खंडभेद आदि के द्रष्टांत * खंडभेद के लक्षणभूत तादृश वैजात्य को जानने के लिए अयखंड आदि द्रष्टांतों को और वंशभेद आदि इतर भेद के द्रष्टांतों को जानना आवश्यक है, क्योंकि वह वैलक्षण्य अयाखडादि भेदों से घटित है। अतः तादृश वैजात्य के घटकरूप अयखण्ड आदि द्रष्टांतों को विवरणकार प्रज्ञापना आगम का शास्त्रपाठ दे कर बता रहे हैं। यह रहा वह शास्त्र पाठ, सुनिये "खंडभेद क्या है? इस प्रश्न का उत्तर यह है कि - "लोहे का टुकडा, कलइ का टुकडा, तांबे का टुकडा, सीसे का टुकडा, चाँदि का टुकडा, सोने का खंड येन सब खंड भेद कहे जाते हैं। लोहे के अवयवों का विभाग=भेद खंडरूप में होने से और वंशभेद आदि से विलक्षण होने से लोहे के खंड आदि खंडभेद कहे जाते हैं।१। 'प्रतरभेद क्या है?' इस समस्या का समाधान यह है कि - "बाँस की चीरी, नेतर की चीरी, नल नाम के घांस का खडा चीर, केले के वृक्ष के स्तंभ = थड का पटल = चीर, बादलों के पड - इन सबको प्रतरभेद कहते हैं।"।२। "चूर्णिकाभेद क्या है?" इस जिज्ञासा का समाधान यह है कि - "तिल का चूर्ण, मूंग का चूर्ण, उडद का चूर्ण, पिप्पल का चूर्ण, मिर्च का चूरा, सोंठ का चूर्ण = भूका, ये सब अपने मौलिक स्वरूप का त्याग किये बिना चूर्णरूप से विभक्त होते हैं, अतः वे चूर्णभेदस्वरूप हैं। चूर्ण भेद कहो या चूर्णिका भेद कहो - दोनों एक ही है।३। अनुतटिका भेद किसे कहते हैं?" इस शंका का समाधान है - "कुँआ, तालाब, नदी, चतुष्कोण = चार कोने वाली वावडी, गोल आकारवाली वावडी जिसको द्रहपुष्करिणी कहते हैं, दीर्घिका यानी सीधी नदी, गुंजालिका यानी टेढी नदी, सरोवर, सरःसर यानी जिसमें कुँआ का पानी नीक-नल आदि से आता हो ऐसा सरोवर, सरोवरों की पंक्तियाँ, सरस्सरों की श्रेणियाँ, इन सबका अनुतटिका भेद होता है। आशय यह है कि कुएँ की दीवार, नदी आदि के तट ये सब टूटते हैं तब इनके भेद को अनुतटिका भेद कहते हैं।४। "उत्करिका भेद क्या है?" इस प्रश्न का उत्तर है - "चूहे का उत्करण अर्थात् चूहा जब अपना घर (दर) बनाता है तब दो पाँवों से जमीन से मिट्टी को बाहर निकालता है वह भेद, वैसे मेंढक जमीन से मिट्टी को निकालता है वह भेद, तिल की फली, मूंग की फली, उडद की फली, एरंड के बीज ये सब फूटते हैं तब जो भेद होता है उनको उत्करिका भेद कहते हैं। उत्किरण का अर्थ है अंदर से बाहर निकालना । चूहा, मेंढकये सब जमीन में से मिट्टी को बाहर निकालते हैं" तिल की फली, मूंगफली आदि में से तिल आदि बाहर निकाले जाते हैं। अतः इनको उत्करिका भेद कहते हैं।५।" यह दर्शित प्रज्ञापना सूत्र का अर्थ है। इस तरह भाषाद्रव्यों के भी ये पाँच भेद होते हैं।
नैयायिक :- लोहे का टुकडा इत्यादि द्रष्टांतों से आप भाषाद्रव्यों के भेद का निरूपण करते हैं, मगर इस तरह भाषाद्रव्यों के भेद का निरूपण करने से भाषाद्रव्यों का ही नाश हो जायेगा, क्योंकि भेद होने के बाद भाषाद्रव्य ही नष्ट हो जाते हैं। आशय यह
१ 'रययखंडाण वा'... "गुंजालियाण वा " इमौ पाठौ कप्रतौ न स्तः किन्तु प्रज्ञापनायां मुद्रितप्रतौ च वर्तमानत्वेनाऽस्माभिर्गृहीतौ। ३ कप्रतौ च 'मरियचूण्णाण' अयं पाठः । २ प्रज्ञापनायां च "उक्कारियाभेदे भवति से तं उक्कारियाभेदे "एवं पाठः वर्तते।