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* विहितस्याऽपूर्वजनकत्वनियमप्रदर्शनम् *
___१३ न च विघ्नध्वंसेनैव फलोपपत्तावपूर्वकल्पनावैयर्थ्यम्, विहितत्वेन तस्याऽवश्यं पुण्यजनकत्वादित्यधिकं मत्कृतमङ्गलवादे'। .. अपि इति । शिष्टाचारपरिपालननिर्वाहकत्वे सति अपूर्वजनकत्वेऽपि मङ्गलस्य विघ्नध्वंसहेतुत्वे न विरोधः, किं पुनः शिष्टाचारपरिपालननिर्वाहकत्वे मङ्गलस्य विघ्नध्वंसहेतुत्वे विरोध इत्यपिशब्दार्थः । __ ननु मङ्गलेऽपूर्वजनकत्वे सति विघ्नध्वंसहेतुता न सम्भवति, विरोधादित्याशङ्कायामाह - अविरोधादिति । अयि ! मुग्धमते ! अपूर्वजनकत्व-विघ्नध्वंसजनकत्वयोः को नाम विरोधः? न तावत्सहानवस्थानलक्षणो विरोधः स्यात् शीतोष्णवत्, एकस्मिन्नेव सरागचारित्रे पुण्यजनकत्व-दुरितध्वंसहेतुत्वयोः पुण्यप्रकृतिबंध-पापप्रकृत्युच्छेदयोर्युगपद्भावेन सिद्धत्वात्। अत एव प्रकाशान्धकारयोरिव न परस्परपरिहारलक्षणो विरोधः। नापि वध्यघातकभावविरोधोऽपि फणिनकुलयोर्बलवदबलवतोः प्रतीतोऽपूर्वजनकत्व-विघ्नध्वंसजनकत्वयोः शङ्कनीयः, तयोः समानबलत्वात् मयूराण्डरसे नानावर्णवत्। किञ्च केन पाठितो भवान् यदुत "एकस्मिन् कारणेऽनेककार्यहेतुत्वं न किन्त्वेककार्यहेतुत्वमेवेति?" किमेकस्मिन्नेव प्रदीपे युगपत्तैलशोषवर्तिकादाहान्धकारनाश-प्रकाशादिबहुकार्यहेतुत्वं न द्रष्टम्?
"विहितत्वेने"ति। मङ्गलस्य प्रेक्षावत्प्रवृत्त्यन्यथानुपपत्तिहेतून्नीतविधिवाक्यबोधितकर्तव्यत्वेनेत्यर्थः। विहितत्वस्याऽपूर्वजनकत्वव्याप्यत्वान्मङ्गलेऽपूर्वहेतुतायाः प्रत्याख्यातुमशक्यत्वात्। एतेन तद्धेतोरस्तु किं तेन? इति न्यायेन विघ्नध्वंस एव मङ्गलफलत्वकल्पना व्यापाराकल्पनेन लघीयसी युक्तिसहा चेत्यपास्तम्। न हि प्रमाणस्वारस्यात्प्रतीयमानं प्रयोजनानुसारेण परित्यक्तुमर्हति, प्रमाणत्वहानिप्रसङ्गात् । अत्रेदमवधेयं यथा शाल्यथ कूल्या प्रणीयते ततश्च पानीयं पीयते शालयश्च भाव्यन्ते तथा प्रकृतेऽपि "अन्यार्थं प्रकृतमन्यार्थं भवती"तिन्यायेन निर्विघ्नसमाप्तये कृतं देवताविशेषनमस्काररूपं मङ्गलं तस्यै, शिष्टाचारपरिपालनाय, शिष्टशिक्षायै, "देवताविशेषगदितागमानुसारी ग्रन्थोऽयमित्युपादेय" इत्येवं बुद्धिनिबन्धनत्वेन शिष्यप्रवृत्त्यथ च भवति। अनेकफलकात्कर्मण उद्देश्यानुद्देश्यप्रधानाप्रधानबहुविधफलदर्शनाद्युक्तमेतदिति दिक् । अयमर्थ "इति"शब्देन विवरणकारेण द्योतितः | मत्कृतमङ्गलवाद इति साम्प्रतमनुपलभ्यमानोऽयं ग्रन्थः। __ शंका :- 'न च विघ्न.' इत्यादि। आपको मङ्गल मे अपूर्वजनकता की कल्पना करने के बाद भी विघ्नध्वंस के प्रति हेतुता की मङ्गल में कल्पना करनी आवश्यक है, क्योंकि विघ्नध्वंस भी समाप्ति का कारण है तथा विघ्नध्वंस से ही समाप्तिरूप फल की उत्पत्ति हो जाने में कोई विरोध नहीं हैं। फिर अपूर्व की अदृष्टकल्पना क्यों करे? मङ्गल और समाप्ति के बीच अपूर्व को खडा कर उसमें मङ्गल की कार्यता क्यों मानी जाय?
* अपूर्व मङ्गल का कार्य है * समाधान :- "विहितत्वेन.' इत्यादि। ग्रन्थ के आरंभ में शिष्टजनों द्वारा मङ्गल करने की परंपरा को देख कर यह अनुमान किया जाता है कि- इस प्रकार का कोई विधिशास्त्र कर्तव्यताबोधक शास्त्र अवश्य है, जिससे शिष्ट जनों को ग्रन्थ के प्रारंभ में मङ्गल में कर्तव्यता का बोध होता है, क्योंकि यदि ऐसा विधिवाक्य न होता तो शिष्टसमाज में ग्रन्थ के आरंभ में मङ्गल करने की परंपरा प्रतिष्ठित न होती। इस अनुमान से अपेक्षणीय विधिवचन का ज्ञान होने पर उससे मङ्गल की कर्तव्यता का अवगम होकर मङ्गल में नये ग्रंथकार की प्रवृत्ति होती है। तथा यह एक नियम है कि जो प्रवृत्ति विहित होती है विधायकवाक्यबोधित कर्तव्यता वाली होती है, वह अवश्य अपूर्व की जनक होती है, जैसे दानादिप्रवृत्ति | मङ्गलाचरण भी विहितप्रवृत्तिरूप होने से उपर्युक्त नियम से अपूर्वरूप पुण्य का अवश्य जनक होगा, क्योंकि सामग्री को कार्योत्पत्ति में अन्य किसीकी अपेक्षा नहीं होती है। यह कोई राजकीय वचन नहीं है कि-अपनी सामग्री से उत्पन्न होता हुआ कार्य अन्य किसीकी बदौलत अपने में निष्प्रयोजनता की आपत्ति होने पर उत्पन्न न हो। इस विषय की अनेक तात्त्विक बातें ग्रंथकार ने मङ्गलवाद नाम के अपने ग्रंथ में बताई है। इस विषय में विस्ताररुचि वाले जिज्ञासु को 'मङ्गलवाद' ग्रंथ देखने की सूचना कर के यहाँ मङ्गलसंबंधी अन्य विचारों को तिलांजलि
१ उपा. श्रीयशोविजयजी महाराज का मङ्गलवाद नाम का ग्रन्थ वर्तमान में उपलब्ध नहीं है।