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* सप्तम्यर्थदर्शनम् *
भाषापरिणतिप्रायोग्याणि द्रव्यान्तराणि । आह च नियुक्तिका 'दव्वे तिविहा गहणे निसरणे तह भवे पराधायेत्ति' (द. वै. नि. गा. २७१) अत्र च विषये सप्तमी ग्रहणाविक्रियामाश्रित्य वृत्तौ च ग्रहणे चे (द.वै. अध्य. ७. नि. गाथा २७१ हा वृ.) त्यादि व्याख्यानात् ।
विषये सप्तमीति सप्तम्या आधेयत्व-विषयत्व - विशेष्यत्व-निरूपितत्व व्यापकत्व घटकत्व प्रतिपाद्यत्व प्रकारत्वसामानाधिकरण्यात्मकवैशिष्ट्य-समानकालिकत्व-पूर्वकालिकत्वोत्तरकालिकत्वावच्छेद्यत्वानुयोगित्व-प्रतियोगित्वाभेदस्वविषयकेच्छाधीनत्व-कार्यकारणभाव- सामीप्य - निमित्तादयः अर्थाः । प्रकृते च विषयत्वं सप्तम्यर्थः । तथा च ग्रहणे इति ग्रहणक्रियाविषयिणी द्रव्यभाषा, निसरणे = निसरणक्रियाविषयिणी द्रव्यभाषा, पराघाते पराघातक्रियाविषयिणी द्रव्यभाषेत्यर्थः । 'ग्रहणे च निसर्गे तथा भवेत्पराघाते तत्र ग्रहणं भाषाद्रव्याणां काययोगेन यत् सा ग्रहणद्रव्यभाषा' द्रव्य चारों और फैले हुए हैं। फिर भी हम उनको नहीं देख सकते हैं, क्योंकि वे अत्यंत सूक्ष्म होते हैं लेकिन विशेष शक्ति से भाषा पर्याप्ति से पर्याप्त जीव इन भाषा द्रव्यों को ग्रहण कर पाता है। भाषापर्याप्ति से पर्याप्त जीव भाषायोग्य द्रव्य को सदा ग्रहण नहीं करता है, किन्तु जब वह वचन उच्चारण का प्रयत्न करता है तब अपनी संपूर्ण काया से भाषाद्रव्य को ग्रहण करता है, जिसे ग्रहणद्रव्यभाषा कहते हैं। जीव गृहीत भाषा द्रव्यों को कण्ठ, ओष्ठ आदि शब्दजनक स्थानों में विशेष प्रयत्न कर के शब्दविशेषरूप से परिणत कर के ग्रहण के अनन्तर समय में छोडता है, जो निसरण द्रव्यभाषास्वरूप होते हैं। जैसे क, ख, आदि शब्द का उत्पत्तिस्थान कंठ है, तो प, फ, आदि शब्द का उत्पत्तिस्थान ओष्ठ (होठ ) है। जब 'प' शब्दोच्चारण का प्रसंग उपस्थित होता है तब जीव वाग्योग से परिणत होकर काययोग से भाषावर्गणा पुद्गल को ग्रहण करने के बाद 'प' शब्दोत्पत्तिस्थान होठ में प्रयत्न कर के पूर्वगृहीत भाषावर्गणा पुद्गल को 'प' रूप में परिणत कर के छोड़ता है। यह बात अनुभवसिद्ध है। हम कभी भी एक होठ को दूसरे होठ से छुए बिना प, फ, ब, भ, म शब्द का उच्चारण नहीं कर सकते हैं। ये निसृष्ट भाषाद्रव्य यहाँ नोआगम से तद्व्यतिरिक्त निसरणद्रव्यभाषा पद से वाच्य हैं।
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'पराघातश्च' इत्यादि । वक्ता विवक्षित शब्दरूप में परिणत कर के जिन भाषाद्रव्यों को छोड़ता है, वे भाषाद्रव्य भाषापरिणमनयोग्य द्रव्यों को अपने समानरूप में वासित करते हैं जैसे कि निसृष्ट 'प' शब्द अन्य भाषायोग्य द्रव्य को 'प' शब्द के रूप में परिणत करता है। ये वासित भाषाद्रव्य यहाँ नोआगम से तद्व्यतिरिक्त पराघात द्रव्यभाषा शब्द से अभिप्रेत हैं।
भाषा के सम्बन्ध में जैनदर्शन की उपर्युक्त मान्यता सत्य प्रतीत होती है। आज कल वैज्ञानिकों ने भी भाषा = शब्द का पुद्गलरूप में स्वीकार किया है। प्रतिध्वनि तीव्र शब्द से कान में बधिरता, पराघात आदि से शब्द में पुद्गलरूपता सिद्ध होती है। भाषावर्गणा के पुद्गलों को शब्दरूप में परिणत कर के छोडने के लिए सर्वप्रथम उनका ग्रहण करना आवश्यक है। अतः सर्वप्रथम द्रव्यभाषा के भेदरूप में ग्रहण द्रव्यभाषा का निरूपण संगत ही है। श्रोता को अर्थबोध कराने के लिए शब्दद्रव्यों का विवक्षित रूप में परिणमन कर के त्याग करना भी आवश्यक है, जो ग्रहण के बाद होता है। अतः ग्रहणभाषाद्रव्य के बाद निसरणभाषाद्रव्य का उपन्यास समीचीन है। शब्द मुहँ में से बाहर निकलने के बाद ही अन्यभाषापरिणमन योग्य द्रव्यों को वासित करता है। अतः निसरणद्रव्यभाषा के बाद पराघातद्रव्यभाषा का प्रतिपादन यथोचित है।
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'आपने यहाँ भाषा के तीन भेद बताये हैं वे निराधार हैं अशास्त्रीय हैं ऐसी शंका का निवारण करने के लिए विवरणकार दशवैकालिक नियुक्ति का प्रामाणिक हवाला देते हैं। देखिये, 'द्रव्यभाषा के तीन भेद हैं, ग्रहण में निसरण में और पराघात में - चरम श्रुतकेवली भद्रबाहुस्वामीजी के उपर्युक्त वचन से द्रव्यभाषा के तीन भेद सिद्ध होते हैं। उपर्युक्त शास्त्रपाठ में 'ग्रहणे' इत्यादि पदो में जो सातवीं विभक्ति है वह विषय= विषयता अर्थ में है। अतः यह अर्थ प्राप्त होता है कि ग्रहण आदि क्रियाविषयक द्रव्यभाषा = ग्रहणआदि क्रियासम्बन्धी द्रव्यभाषा ।
यहाँ यह शंका कि- 'ग्रहणे' पद तो प्रथमा विभक्ति एकवचन, सप्तमी विभक्ति एकवचन, संबोधन एकवचन, द्वितीया विभक्ति बहुवचन में भी आता है। तब अन्य विभक्तियों को छोड़ कर और अपनी मनपसंद विभक्ति को ही ले कर उसके अर्थ का व्याख्यान करना कैसे संगत होगा? ठीक नहीं है, क्योंकि श्रीमद् हरिभद्रसूरिजी महाराज ने दशवैकालिकनियुक्ति के उपर्युक्त श्लोक की 'ग्रहणे च' इत्यादिरूप से 'ग्रहणक्रिया के आश्रय से आलंबन से ग्रहणद्रव्यभाषा, निसरणक्रिया का आश्रय कर के
१ द्रव्ये त्रिविधा ग्रहणे निसरणे तथा भवेत् पराघाते इति । २ भावे दव्वे अ सुए चरित्तमाराहणी चेव । इति नि. गाथोत्तरार्धः ।
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