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१८ भाषारहस्यप्रकरणे - स्त.१. गा.३
० चूर्णिवृत्त्योरुभयोः प्रामाण्यम ० अन्यथा तु "तिविहा भासा तं जहा गहणं निसिरणं पराघातो' त्ति (द.नि.श्लो. १७३, चू. पृ. १५९) चूर्णिदर्शनात्प्रथमाऽपि नानुपपन्नैवेति ध्येयम् ।।२।।
अथ कीदृशानि भाषाद्रव्याणि गृह्णातीत्याह - गेण्हइ ठियाइ' जीवो, णेव य अठियाई भासदव्वाइं। दव्वाइचउविसेसो णायब्वो पुण जहाजोगं।।३।।
अथ यानि स्थितानि गृहणाति तानि द्रव्यतः किमेकप्रदेशकानि यावदनन्तप्रदेशकानि वा? क्षेत्रतश्चैकप्रदेशवगाढानि यावदइत्येवं ग्रहणक्रियामाश्रित्य श्रीहरिभद्रसूरिभिर्व्याख्यातत्वात् ग्रहणादिक्रियाविषयीभूता द्रव्यभाषेत्यर्थः प्राप्यते। अन्यथा = हारिभद्रव्याख्यानाऽनाश्रयणे तु चूर्णिकारवचनमाश्रित्य प्रथमापि युक्तैव । 'गहणे' इतिरूपं प्राकृतभाषायां प्रथमासप्तमी-संबोधनैकवचनेषु द्वितीयाबहुवचने च वर्तते । अत्र च सम्बोधनैकवचन-द्वितीयाबहुवचनयोरनुपयोगादसम्भवाच्च तदर्थघटनं न कृतमिति द्योतनाय 'इति' पदप्रयोगः कृतो विवरणकारेण। द्वावेतौ सदादेशौ, भगवदनुमतविचित्रनयाश्रितमहर्षिवचनानुयायित्वादिति सूचनार्थं ध्येयं पदप्रयोगः ।।२।।
'क्षेत्रतः' इत्यादि। ननु किमित्यनन्तप्रदेशावगाढानि सङ्ख्यप्रदेशावगाढानि भाषाद्रव्याणि जीवो न गृह्णाति? अत्रोच्यते अनन्ताकाशप्रदेशावगाढानां भाषाद्रव्याणामसम्भवादेव जीवस्तानि न गृह्णाति असङ्ख्याकाशप्रदेशात्मके लोक एव भाषाद्रव्याणामवस्थानात्। द्वितीये तु विकल्पे विवरणकार आह-'एकप्रदेशाधवगाढानां ग्रहणाऽयोग्यत्वात् अत्रादिपदाद् द्व्यादि-सर्वोत्कृष्टपर्यन्तप्रदेशग्रहणं द्रष्टव्यम्। यद्यप्येकपरमाण्वाद्यात्मकानामेकप्रदेशाद्यवगाढानां भाषाप्रायोग्यद्रव्याणामसम्भवादेव तानि न गृहणातीति वक्तुं युज्यते न तु तेषां ग्रहणाऽयोग्यत्वादिति, वस्तुनि सति निसरणद्रव्यभाषा तथा पराघातक्रिया का आलंबन ले कर पराघातद्रव्यभाषा' ऐसा निरूपण किया है। जैसे घट के आलंबनवाला ज्ञान घटविषयक कहा जाता है, वैसे ग्रहणादि क्रिया के आलंबनवाली ग्रहणादि द्रव्यभाषा को भी ग्रहणादि क्रियाविषयक कहने में कोई विरोध नहीं है। जब सूरिपुरंदर श्रीहरिभद्रसूरि महाराज ने सप्तमी विभक्ति ले कर व्याख्या की है तब हम भी उनका अनुकरण कर के सप्तमी विभक्ति को ले कर विषयत्व अर्थ बताए तो इसमें क्या दोष है? महाजनो येन गतः स पन्थाः। _ 'अन्यथा तु. इत्यादि। यदि श्रीहरिभद्रसूरिजी की व्याख्या छोड कर चूर्णिकार की व्याख्या का आलंबन ले कर यहाँ 'ग्रहणे' इत्यादि पदों में साधुत्वअर्थक प्रथमा विभक्ति का आश्रयण करे तब भी कोई दोष नहीं है, क्योंकि चूर्णिकार ने '(द्रव्य) भाषा त्रिविध है, ग्रहण, निसरण और पराघात' ऐसा स्पष्ट रूप से प्रथमा विभक्ति का ग्रहण कर के व्याख्यान किया है। उपर्युक्त दोनों पक्ष सुसंगत हैं, क्योंकि वे दोषमुक्त हैं, आपेक्षिक हैं। उनके अर्थघटन में कोई बाध नहीं है। संबोधन एकवचन तथा द्वितीया बहुवचन का अर्थ लेने में तो यहाँ स्पष्टरूप से बाध ही है। अतः उनका प्रतिपादन न करना ही उचित है। इस तरह द्वितीय गाथा में द्रव्यभाषा के तीन भेदों के स्वरूप का कथन हुआ।।२।।
जीव किस प्रकार के भाषाद्रव्यों को ग्रहण करता है? इस शंका का समाधान ग्रंथकार तीसरी गाथा से करते हैं।
गाथार्थ :- जीव स्थिर भाषाद्रव्यों को ग्रहण करता है, अस्थिर भाषाद्रव्यों को नहीं। तथा भाषाद्रव्यों की द्रव्यादि विशेषता यथासंभव ज्ञातव्य है।३।
* भाषाद्रव्यविषयक द्रव्यादिचतुष्कविचार * विवरणार्थ :- जीव एक जगह पर स्थिर भाषाप्रायोग्य द्रव्यों को ग्रहण करता है। मगर जीव अस्थिर, इधर उधर घूमते हुए भाषाप्रायोग्य द्रव्यों को ग्रहण नहीं करता है, क्योंकि जो सूक्ष्मपुद्गलस्कंध गतिमान होते हैं वे उस काल में ग्रहण के अयोग्य होते
हैं।
१ त्रिविधा भाषा तद् यथा ग्रहणं निसरणं पराघात इति।
२ मुद्रितप्रतौ तु 'गेण्हइ ठियाइ जीवो णेव य अठियाइ'. इति पाठः। ३ गृह्णाति स्थितानि जीवो नैव चास्थितानि भाषाद्रव्याणि। द्रव्यादिचतुर्विशेषो ज्ञातव्यः पुनर्यथायोगम् ।।३।।