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* लोकव्याप्तभाषाद्रव्यस्वरूपावेदनम् *
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लोकान्तं व्याप्नुवन्तीत्यर्थः । तथा च पारमर्ष ""जीवे णं भंते! जाई दव्वाइं भासत्ताए गहिआइं णिसिरइ ताइं किं भिण्णाइं णिसिरइ अभिण्णाइं निसिरइ ? गोयमा ! भिन्नाइं पि णिसिरइ, अभिण्णाइं पि णिसिरइ । जाई भिण्णाइं णिसिरइ ताइं अनंतगुणपरिवुढिए परिवुढ्ढ-माणाइं लोअंतं फुसंति त्ति ।। (प्र.भा. सूत्र १६९ ) भाष्यकारोऽप्याह" कोई मंदपयत्तो णिसिरइ सयलाई' चेव दव्वाइं अन्नो तिव्वपयत्तो सो मुंचइ भिंधिउं 'ताई ।। भिन्नाई सुहमयाए, अनंतगुणवढियाइं लोगंतं । पाविंति पूरयंति य भासाइ निरंतरं लोगं । । (वि. आ. भा. गाथा ३८० - ३८२ ) । । ५ ।।
'षट्सु' इत्यादि । ननु निसृष्टानि भाषाद्रव्याणि प्रथमसमये एव षट्सु दिक्षु लोकान्तं व्याप्नुवन्ति । अतोऽस्मिन् विषये सूक्ष्मबहुत्वाभ्यामन्यद्रव्यवासकत्वादिति कथनमसङ्गतमिति चेत् ? मैवम्, सूक्ष्मबहुत्वाभ्यामन्यद्रव्यवासकत्वादिति न षट्सु दिक्षु लोकान्तं व्याप्नुवन्तीत्यत्र हेतुः किन्तु भाषाद्रव्याणामनन्तगुणवृद्धियुक्तत्वे हेतुः । भाषाद्रव्यांणां लोकान्त-व्याप्तौ चानन्तगुणवृद्धियुक्तत्वं न हेतुविशेषणं किन्तु संपूर्णलोकव्याप्तौ हेतुविशेषणमिति विवेकः ।
ननु भाषाद्रव्याणि किं शब्दपरिणामं त्यक्त्वा लोकान्तं प्राप्नुवन्ति यदुताऽत्यक्त्वा ? आद्ये पक्षेऽपसिद्धांतः । द्वितीये चासङ्ख्ययोजनदूरस्थानामपि शब्दश्रवणं प्रसज्येत । मैवम्, श्रोत्रग्राह्यत्वस्य शब्दपरिणामव्यापकत्वाभावेन न तदभावात्तदभावसिद्धिः । श्रोत्रस्य द्वादशयोजनपरत आगतभाषाद्रव्यग्रहणेऽशक्तत्वान्न तद्ग्रहणं । नायं स्थाणोरपराधः यदेनमन्धो न पश्यति । 'सयलाइं'त्ति । सकलानि सम्पूर्णानि अखण्डितानि, अभिन्नानीति यावदिति श्रीहेमसूरिभिस्तद्वृत्तौ व्याख्यातम् । 'निरन्तरं' इति । सम्पूर्णमित्यर्थः । लोकव्याप्तिश्च त्रिसामयिकी चतुःसामयिकी पञ्चसामयिकी यथा भवति तथा विशेषावश्यकभाष्यतो [वि.आ.मा.३७९-३९०] विस्तरतो विज्ञेया । । ५ ।।
* भिन्न निसरण भाषाद्रव्यों की लोकव्यापिता *
'तत्र.' इत्यादि । तीव्र प्रयत्नवाला जीव ग्रहणप्रयत्न से और निसरणप्रयत्न से भाषाद्रव्यों का अनेक सूक्ष्म खंड बनाता है। अतः वे निसरण भाषाद्रव्य अन्य भाषापरिणमनयोग्य द्रव्यों को वासित करते हैं = उनमें शब्दपरिणाम को उत्पन्न करते हैं। अतः वक्ता जितनी संख्या में भिन्न भाषा द्रव्यों को छोडता हैं उनकी अपेक्षा अनंतगुण अन्य भाषापरिणमनयोग्य द्रव्यों में भाषापरिणाम उत्पन्न होता है। इस तरह निसरण भाषाद्रव्यों अनंतगुण वृद्धि से बढते हुए छ दिशाओं में लोकांत तक फैल जाते हैं। यहाँ विवरणकार प्रज्ञापना आगम का हवाला देते हैं जिसका अर्थ यह है- "गौतमस्वामी महावीर भगवंत से प्रश्न करते हैं कि, हे भगवंत! जीव भाषारूप से जिन द्रव्यों को ग्रहण करके छोड़ता है वे क्या भिन्न होते हैं या अभिन्न होते हैं? इसका समाधान देते हुए प्रभु महावीरस्वामी कहते हैं कि- 'हे गौतम! जीव भिन्न भाषाद्रव्यों को भी छोड़ता है और अभिन्न भाषाद्रव्यों को भी छोड़ता है। उनमें से भिन्न भाषाद्रव्य अनंतगुण वृद्धि से बढते हुए लोकांत को छूते हैं।"
'भाष्यकारो.' इत्यादि । यहाँ श्रीजिनभद्रगणिक्षमाश्रमणकृत विशेषावश्यकभाष्य का भी हवाला दिया गया है। इसका अर्थ यह है कि-'मंदप्रयत्नवाला कोई जीव संपूर्ण = अखंड = अभिन्न भाषाद्रव्यों को ही छोडता है अर्थात् स्थूलरूप से छोडता है। तीव्र प्रयत्नवाला अन्य जीव भाषाद्रव्यों का खंड खंड-टुकडा कर के उन्हें छोडता है। जो भाषाद्रव्य भिन्न होते हैं वे अतिसूक्ष्म होते हैं । अतः अनंतवृद्धि से युक्त वे भाषाद्रव्य लोकांत को प्राप्त करते हैं और भाषाद्रव्यों से सकल लोक को पूर्ण कर देते हैं' विशेषावश्यक भाष्य के उपर्युक्त दो श्लोकों के अर्थ से भी निसरण भाषाद्रव्य के दो प्रकार सिद्ध होते हैं और सूक्ष्म होने से अन्य भाषाद्रव्य को वासित कर के अनंतगुणवृद्धियुक्त होते हुए संपूर्ण लोक में व्याप्त होते हैं । । ५ । ।
१ जीवो भदन्त ! यानि द्रव्याणि भाषातया गृहीतानि निसृजति तानि किं भिन्नानि निसृजति, अभिन्नानि निसृजति ? गौतम! भिन्नान्यपि निसृजति, अभिन्नान्यपि निसृजति । यानि भिन्नानि निसृजति तान्यनन्तगुणवृद्ध्या परिवर्धमानानि लोकान्तं स्पृशति ।।
२ कश्चिन्मन्दप्रयत्नो निसृजति सकलान्येव द्रव्याणि । अन्यस्तीवप्रयत्नः स मुञ्चति भेदयित्वा तानि ।। भिन्नानि सूक्ष्मतयाऽनन्तगुणवर्धितानि लोकान्तं । प्राप्नुवन्ति पूरयन्ति च भाषया निरंतरं लोकम् ।।
३ अत्र मुद्रितप्रतौ "सकलाई... भिन्नाइ... वट्ठियाइ" इति पाठः ।
४ अत्र मुद्रितप्रतौ 'ताई' शब्द: "भिन्नाइ" श्लोक स्यादौ वर्तते । भिन्नानि कश्चिन्निसृजतितीव्रप्रयत्नः परोऽभिन्नानि । भिन्नानि यान्ति लोकमनन्तगणिवृद्धियुक्तानि ||५||
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